-- राजकुमार गौतम
स्थानीय नेताओं की एक बैठक में लिए गए निर्णय के अनुसार इस वर्ष गांधीजी का जन्म-दिवस अतिरिक्त हर्षोल्लास और गांधीजी की सम्पूर्ण व्यावहारिकता के साथ मनाया जाना तय किया गया. जिन दलितों के उत्थान के लिए महात्माजी ने अपने जीवन का अधिकांश होमा था, आज उन्हीं पर हो रहे बर्बर, पैशाचिक अत्याचारों के कारण स्थानीय नेताओं के दिल बेतरह क्षुब्ध थे. आज भी हरिजनों को किसी भुट्टे की तरह जलती आग में झोंक दिया जाता. अराजकता का यह सीधा तमाचा इन स्थानीय नेताओं के मुँह पर भी था.
ठीक दो अक्टूबर को जब स्थानीय नेताओं की झकाझक सफ़ेद पोशाकें आबकारी मुहल्ले में पहुँचीं तो वहाँ गंदगी पर तैर रहे मच्छरों में खलबली मच गयी! नेताओं के स्वागत में एक चौंतरे पर सफ़ेद कपड़ा बिछा था और बापू के प्रियजन इनके धवल भाषण सुनने की गरज से इसी मंच के चारों ओर, मच्छरों को उठाकर खुद बैठे थे.
भाषणों का दौर चालू हुआ. बापू की दुहाई दे-देकर बताया गया कि जब तक उनकी पार्टी सत्ता में रही, तब तक किसी माई के लाल की हिम्मत नहीं हुई कि वह दलितों की तरफ आँखें उठाकर भी देख ले. हरिजन बालिका से विवाह करनेवाले को प्रशासन द्वारा अतिरिक्त सुविधाएं तक दी गयीं. सारा समाज इतना उज्ज्वल होता जा रहा था कि जात - पाँत का कोई कलंक शेष नहीं बचा था. मगर इस दस-रंगी सरकार ने हर तरह से जनता को ठगा, सम्प्रदायवाद को बढ़ावा दिया...वगैरह- वगैरह !
भाषणों का दौर अंतिम चरण में आया तो आबकारी बस्ती के कुछ लोग बराबरवाले घर से खाने का सामान लाकर मंच पर रखने लगे.
इन स्थानीय नेताओं में कुछ प्रखर बुद्धिवाले भी थे. नाश्ते का पूर्वानुमान कर, उन्होंने जनसमुदाय के सामने हाथ जोड़े और जल्दी जाने का आग्रह करके वे यथासमय खिसक लिए. कप-प्लेट-गिलास-पकौड़ियाँ ... जब मंच पर साक्षात आये, अपेक्षाकृत कम समझदार नेताओं ने तब खिसकना शुरू किया. कुछ ने कहा --'अभी आते हैं' ... और कुछ ने, 'पेशाब...'. बहरहाल, जब तक पूरी तरह से नाश्ता आया, मंच पर केवल तीन नेता बचे थे.
इससे बस्ती के प्रबन्धकर्ताओं को काफी दुःख हुआ. उन्होंने हाथ जोड़ते हुए इन तीनों से नाश्ता 'जूठा' करने की प्रार्थना की. इनमें से दो ने अपने हाजमे का बुरा हाल बताते हुए माफ़ी मांगी और प्रतिदान में हाथ जोड़ लिए. बहुत कसम-धरम और मिन्नतों के बाद एकमात्र तीसरा नेता ही बचा, जिसने सूक्ष्म जलपान ग्रहण कर बापू के प्रियजनों को उपकृत किया.
कार में बैठे ये तीनों नेता आबकारी मुहल्ले से जब वापस लौट रहे थे तो 'हाजमे का बुरा हाल'वाले दोनों नेताओं के चेहरे पर विजय के चिन्ह थे तथा एकमात्र 'शिकार' तीसरा नेता प्रायश्चित्तस्वरूप बार-बार मानो अपने गले में कुछ वापस घुटक रहा था. उन दोनों से वह आँखें तक नहीं मिला पा रहा था. कोई अपराधबोध था जो उसे भीतर-ही-भीतर लील रहा था!
कुछ ही देर बाद उस 'शिकार' नेता ने दौड़ती कार से अपना चेहरा बाहर फेंका और उलटी का एक तेज फव्वारा उसके मुँह से फूट पड़ा..!
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