इस पृथ्वी का कितना छोटा-सा अंश देखा है; कितने कम मनुष्य -प्राणी या सभी प्रकार के जीव-जंतु. प्रकृति के कितने ख़ूबसूरती से सजे-धजे दृश्यों के थाल और प्रसन्नता,मुदिता की बहती सरिताएँ! दृश्य और श्रृव्य युग की इस आधुनिक और सर्वत्र सुलभ तकनीकी ने भी इस दुनिया -जहान और अपनी कल्पनाओं के अम्बार में आग लगाकर कितनी तो ज्योतियां चाक्षुष कर दी हैं. एक ही मात्र भाषा के आधे-अधूरे ज्ञान से जो ले सकते हैं उसका शतांश भी कुछ गृहित हुआ है क्या? यथासम्भव भी उपलब्ध नहीं हो सका; प्राप्त को भी कभी `जाने दिया` की तर्ज़ पर दूर-परे कर दिया. प्रायः तो बेहतर,सुन्दर और मधुर सामने आया ही नहीं! अभी तक भी स्वभाव यही है कि ठीक से पता नहीं चलता कि जीवन की भारी- भरकम चहारदीवारी में निकासी का द्वार कौन - सा है, जिसे खोजा जा रहा है मेरे द्वारा! स्वयं से ऐसा अल्प परिचय हो तो भीतर की कामनाओं-वासनाओं का भी ओर - छोर कैसे मिले.
दिमाग में, दिल में, बाँहों की `मछलियाँ मरी हुईं` में मानो किसी अनलिखी,अनपढ़ी और अनछपी किताब के पन्नों के उलटने-पलटने की सरसराहट जारी है. श्वेत्केशी, दंत हानि और दृष्टि दुर्बलता से भी अधीर न होते हुए जैसे कौन-सी इच्छा , अधूरी कामना मन में छटपटाती रहती है कि दिमाग की यह घुमड़न किसी दिन तीव्र आवेग की कै की तरह कोरे पन्नों पर छींटम - छींट मचा देगी और कोई रचना अंकित हो सकेगी. मैं नहीं जानता कि यह जिजीविषा है या मन की नींव में जड़ जमा रहे किसी विकल्प का शिशुभाव या कि फिर जीवन का ऐसा ओछा -सा बहाना जिसमें `टाइम पास` को अच्छे-अच्छे मुहावरों में वर्णित और संदर्भित किया जाता है. जीवन एक लम्बा-चौड़ा-सा कैनवास है, जिस पर जीवन-क्रियाओं द्वारा उकेरी गयी हर एक रेखा रंगित करती है,धाराप्रवाहमयता सौंपती हैं या कि कुछेक कामों के `स्ट्रोक्स` विलुप्त सरस्वती की तरह हमारी दुर्बलताओं में लीन -विलीन या तल्लीन होकर अदृश्य हो जाते हैं. अनोखी है यह धरा और इस पर चहलकदमी करता जीवन!
सुन्दरता की विपुलता और तृष्णाओं के मरुस्थलों से भरा अपार सागर!.. आचार्य रजनीश अपने एक संभाषण में कहते हैं कि यह संसार बहुत विशाल है, बहुत विस्तृत .. और ऐसा सम्भव ही नहीं कि आपको चाहनेवाला , आपसे प्रेम करनेवाला यहां कोई-न-कोई व्यक्ति उपस्थित या उपलब्ध ना हो. मगर क्या हम अपने चाहनेवालों को, प्राप्त होते ही `व्यर्थ` की सूची में उन्हें डालकर फिर से वासनापूर्ति के लिए रिक्त नहीं हो जाते? और यह तलाश निरंतर जारी रहती है. ज़िंदगी एक ऐसा मुक़दमा है जिसमें न गवाही का ख़ासा महत्व है, न सुनवाई का और न ही किसी सजापूर्ण निर्णय के सुने जाने का, बस .. बयान ही बयान है. प्रायः कटघरे /कटघरों में सावधान खड़े होकर दिए गए बयानों से लबरेज़ व्यक्तिकर्म को ही एक `जीवन` कहकर सम्बोधित किया जा सकता है.
आत्मपीड़ा की तरह है ज़िंदगी. अक्षुबद्ध तृष्णाओं और असम्भाव्य कल्पनाओं, परिकल्पनाओं के पातालतोड़ कुओं में हाथ-पैर मारते. .डूबते इंसानों की कहानी . अन्यों की `कांव-कांव` का जवाब अपनी `दांव-दांव` से देने में एकाग्रतः लगे लोग! एक अजीब -से अधूरेपन, विकलांगता और परीकथाओं के लोक में कतरे-कुतरे पंखों के कारण छटपटाते लोग. अपने-अपने स्खलनों के घृणास्पद प्रायश्चित में लिथड़े छटपटाते लोग.
मेरी नियति भी इस सबसे विलग रहने की कैसे हो सकती है? हाँ, मैं कुछ बेहतर की अपेक्षा और प्रतीक्षा से भी स्वयं को जोड़े रखना चाहता हूँ. शरीर और मस्तिष्क के मुहावरों को सुनता हुआ. . ! आमीन.
राजकुमार गौतम
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