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राजकुमार गौतम की डायरी... (3)

 

04 अगस्त, 2014; केन्द्रीय विहार -2, नोयडा, प्रातः 9.30 बजे

 


फिर वही गर्मी, उमस, पॉवर कट और पसीने- पसीने का रोना-धोना! पिछले दो दिनों का रेकॉर्ड तो बहुत ही तंदूर काण्ड- सा रहा! आत्मा तक झुलस और अलसा जाए-- वैसा!

 


जाहिर है, वैसा कुछ सार्थक न हो, किया जा, सका जैसा कि पुनर्संकल्प के पहले सप्ताह में अनिवार्य था. हाँ, एक ब्लॉग पर कल दो कहानियाँ सुनीं, KATHA-PAATH.BLOGPOST.COM पर.एक थी प्रेम भारद्वाज की 'प्लीज़ किल में मदर' और दूसरी किन्हीं दुष्यंत की. नए इमर्जिंग सोशल मीडिया का यह सदुपयोग काफी अच्छा- सा अनुभव रहा. जैसे दशकों पूर्व कहानी को प्रकाशित करते हुए सम्पादकीय टिप्पणी, लेखक का सचित्र परिचय, फोटो- स्केच या हाईलाइट करने की 'एड वैल्यू' हुआ करती थी, वही - वही कुछ इस नई तकनीक में भी. किताब पढ़ने की डिवाइस 'किंडल' का प्रयोग-अनुभव मैंने अभी नहीं किया है; मगर लगता है कि पूरी किताबों या लायब्रेरी को मुट्ठी में बसा लेने का सपना उससे अर्जित किया जा सकता है. जितना भी जीवन शेष है, लगता है साहित्य के लेखन, पठन- श्रवण की और भी अच्छी ख़बरें पढ़ने-अनुभव करने को मिलेंगी.

 


'हंस' की 31 जुलाई वाली संगोष्ठी में एक विज्ञापन फोलडर मिला.राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली अर्चना वर्मा और बलवन्त कौर के सम्पादन में राजेन्द्र यादव रचनावली का प्रकाशन करने जा रहा है. 15 खण्डों में विस्तारित इस रचनावली के दो खंड (10-11) उक्त फोलडर के अनुसार 'व्यक्तिगत डायरी' के भी होंगे. अर्थात, कहा जा सकता है कि राजेन्द्र जी के समग्र लेखन का 15-20 प्रतिशत व्यक्तिगत डायरी लेखन भी रहा उनका. दशकों पूर्व एक बार बात करते हुए उनसे मैंने डायरी प्रकाशन की बात की थी. अपने चिर-परिचित लहजे में उन्होंने कहा था कि मेरी डायरी में रोज-रोज कब्ज़ होने की शिकायत मिलेगी! शायद व्यक्तिगत डायरी की 'मर्यादाएं' और 'असावधानियां' इतनी होती हैं कि सहज जीवन का वर्णन करते हुए उनसे पाठकीय 'रस' निकाल पाना मुश्किल होता है. फिर, लेखक का छद्म और अहम भी अविश्वास बनकर इस लेखन के हर पृष्ठ पर गश्त लगाया करता है. इसलिए यह 'विधा' सामर्थ्यपूर्ण होने के बावजूद बौनी और अपंग ही लगती रही है.

 


मैंने संभवतः सन 1973 के आसपास से डायरी लिखना शुरू किया था. वह प्रारंभिक लेखन मेरे पास आाज की तारीख में मौजूद है या नहीं, मैं ठीक-ठीक नहीं जानता. मगर इतना जरूर याद है कि मैंने अनेक दिनों की डायरी में स्वयं को प्राप्त उन पत्रों की इबारत को भी कॉपी करके छोड़ा है, जो मुझे उस दौर में प्राप्त हुए थे. अभी पिछले दिनों पुराने काग़ज़ पलटते हुए मुझे अग्रज कथाकार और धुनी हिंदी विद्वान डॉक्टर लक्ष्मीधर मालवीय का एक पत्र हाथ लग गया, और मुझे पुरानी आदत जोर मारने लगी कि इस डायरी में उस पत्र को 'रिकॉर्ड' कर लिया जाए. सो यह:

 

 


ONOHARA 18-12-142
OAZA, MINO 562, JAPAN
26.04.85

 


प्रियवर गौतम जी, छह तारीख़ का आपका फ़ौरी पत्र मिला था. जी नहीं, यहाँ यह मेरे या किसी भी दूसरे पेशेवालों के ऐश करने का मौसम नहीं है. भारत में षट्ऋतुएं होती हैं, यहाँ महज़ चार. अतः ऐश करने का मौसम तो कोई नहीं होता बल्कि हर दिन की रात होती है, यदि करनेवाला कर सके तो! वहां? मौसम से ऐश करते हैं. वि.वि. १६ अप्रैल को खुला है, अब मुझे अवकाश २४ फ़रवरी ८६ को मिलेगा . लेकिन इस बीच कितनी सौ शाम-रात आऐंगी? क्या मैं आपको पत्र नहीं लिख रहा हूँ? क्या यह ऐश नहीं है मेरे लिए? और आपके लिए भी?

 


आपने कई चुनिन्दा पुस्तकें पढ़ने का सुझाव दिया. मैं मँगाकर ज़रूर पढूंगा. एक 'महाभारत' पर आधारित उपन्यास (सम्भवतः एस.एल. भैरप्पा का 'पर्व' उपन्यास--राकुगौ ) को छोड़कर. ऐसे आधारितों से मुझे भीषण एलर्जी है! यहाँ कई-कई पुस्तकें पढ़ने के बाद भी संतोष नहीं मिलता. मेरी क़िस्मत से भी अधिक मेरा कपाल ख़राब होगा. अभी एक उपन्यास बड़ी हिम्मत कर दोबारा पढ़कर राय बदलने के लिए उठाया-- 'और इन्सान मर गया' . पढ़कर मन में वीर रस का संचार हो आया. ख़ैर, मेरी निजी प्रति थी इसलिए पेन्सिल से काटकर उसके टाइटिल पर लिखने का मुझे अधिकार था-- "और आप खुद क्यों न मर गए?" ! अधिकतर अकेले रहने का मुझे सौभाग्य प्राप्त है अतः शांत होकर कारण सोचने लगता हूँ कि मैं खुद पागल तो अभी नहीं हुआ हूँ, फिर अकस्मात ऐसी वीभत्स और क्रूर प्रतिक्रिया मुझे क्यों सताती है. तो अकेले में मौन बोलते-बोलते कुत्ते का-सा एकालाप करता रह जाता हूँ! मैं इसे भी ऐश में शामिल करता हूँ. आप जब भी मुझे पत्र लिखा करें, अपनी पसन्दीदा किताबों के नाम मुझे सुझाना न भूलें. वहाँ भी मेरे लिए इने - गिने ही मित्र हैं, जिनमें पढ़ने-लिखने में रुचि रखनेवाले बहुत ही कम. 'ऐसा सत्यव्रत ने नहीं चाहा था' तथा 'उत्तरार्ध की मौत' (मेरे उपन्यास और कहानी -संग्रह के क्रमशः शीर्षक-- राकुगौ ) के लिए मैंने ऑर्डर दे दिया है क्योंकि इसका कोई संतोषप्रद कारण समझ में न आया कि प्रकाशित हो जाने के बावजूद भी मैं 'उत्तरार्द्ध की मौत' क्यों न पढूं! मुमकिन है इससे आपके साथ गैर-शाकाहारी या शाकाहारी सहभोज का मुझे सहयोग मिले. (मालवीयजी के साथ किया गया एक लम्बा साक्षात्कार है जिसके आरम्भ में मैंने कहीं उनके साथ 'शाकाहारी मुठभेड़' होने का पद प्रयोग किया है, संभवतः उसी पद को मालवीयजी यहां संकेतित कर रहे हैं --राकुगौ ) 'यह चेहरा' (लक्ष्मीधर मालवीयजी का उपन्यास-- राकुगौ ) यदि कभी पढ़ें और पत्र में उसके बारे में मुझे लिखें तो उसकी या मेरी तारीफ़ न करें. लेखक-मित्रों द्वारा की गयी प्रशंसा को मैं हनुमान-स्तुति के "अहो रूपः ! अहो गुणः !" की कोटि में उपहास योग्य मानता हूँ. बल्कि, उसके कमज़ोर स्थलों को मुझे दिखाते हुए मेरा कान उमेंठें तो मैं लाभान्वित हो पाऊँगा. मेरे लेखक-मित्र यदि मेरी खामियाँ मुझे बताकर नहीं सिखाएंगे मुझे तो लिखना क्या कोई हेडमास्टर- लेक्चरर -प्रोफेसर आकर सिखाएगा ?

 


आपका लिखा लेखक जाति को क्या छूट की.....? हो सकता है कि मैं आपका आशय समझ नहीं पाया हूँ. लेकिन छूट मिल जाने या ले लेने से भी कम से कम लिखने पर तो कोई फ़र्क़ पड़ता नहीं. छूट लेकर अगर दूसरी औरत रख लेने से लेखक बेहतर लेखन कर सकता तो हर मुसलमान को चौगुना लेखक होना ही चाहिए था. या कि दूसरा मर्द कर लेने से लेखिका अमृत बरसा सकती तो जौनसार बाबर की हर स्त्री को पाँच कवियित्रियों -बराबर काव्य-रचना करनी ही चाहिए थी. वेश्यागमन करने से यदि मंटो बन जाया जा सकता तो जीटी रोड पर रेंगने वाले हर मर्द को अफसानानिगार होना ही चाहिए. "छूट की हक़दार" हमारे यहां की बहुत ही दीन मानसिकता का मुहावरा है. देखिए तो, निराला की बीमारी में मुफ़्त इलाज के लिए गोविन्द बल्लभ पन्त से प्रान्तीय सरकार की आर्थिक सहायता दुही जानी थी, जिसे पीते थे अच्छे - खासे स्वस्थ निराला के चरण-पूजक .... मुक्तिबोध की असाध्य बीमारी के इलाज के लिए प्रधानमंत्री के लॉन पर कौन-कौन लोग गए थे , आपको याद होगा. राजनीतिक पीड़ित अर्थात पोलिटिकल सफरर! स्वतंत्रता सेनानी. इन्हें दी जानेवाली पेंशनें. यह तो भिखमंगी 'संस्कृति' है, फ़ट से हाथ पसारने की! यदि आपके घर में कोई बीमार पड़ जाता है तो उसके इलाज में मदद करने का अधिकार धीरेन्द्र (अस्थाना) जी को , आपके दूसरे मित्रों को ही है-- प्रधानमंत्री भकुआ आपका कौन होता है जो आपको छूट देने का हक़दार होता हो! किस ज्योतिषी ने कहा था आपसे कि आपको लेखक बनना ही है? मैं यहाँ मर जाऊँ तो मेरे बाद मेरा तेरह साल का बेटा मज़दूर बनकर अपनी माँ और छोटी बहिन का पालन करेगा.-- क्या आपके गोल मार्केट में बंगाली स्वीट हाउस का इतना ही बड़ा छोकरा देर रात कड़ाह माँज कर अपने परिवार को रोटी नहीं खिलाता? असल दिक़्क़त यह है कि वहाँ आप लेखक लोग यह सोचते हैं कि एक कविता -- एक कहानी -- एक उपन्यास लिखकर आप सारी दुनिया को खड़खड़ाकर बदल देने जा रहे हैं. इस त्तरह नक़्शे को ऊपर उठाकर हिला देने भर से , क्रांति नहीं हो जाती. ज़रा उसी गोल मार्केट के स्वीट हाउस के बैरा से पूछकर देखिये कि क्या वह पड़ोस में मर गए सर्वेश्वर (दयाल सक्सेना ) जी की कविताओं का पाठक रहा है?-- कहाँ की बात! लिखनेवाला, जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, छूट लेता है तो अपने ही से--- दूसरों से भीख नहीं माँगता --अचानक याद आ गयी मायकोवस्की की घनगर्जन जैसी आवाज़, कविता पढ़ते हुए-- 'कामरेड टैक्स - कलेकटर, मेरी कविताओं का हिसाब इस तरह जोड़ो/ कि कविताओं के लिए मैं रेडियम की खानें खोदता रहा/ ग्रामभर रेडियम के लिए साल-साल भर/ महज़ एक शब्द के लिए-- एक हजार टन खनिज रेडियम निकलता रहा/ कामरेड टैक्स- कलेक्टर/ पाँच के बाद के सारे शून्य मैं काट दूँगा / अपने अधिकार की तरह माँगूँगा तुमसे/ इन्च भर ज़मीन/ यदि तुम कहोगे कि मैं दूसरों के शब्दों पर मुनाफ़ा कमाता रहा हूँ / तो यह लो कामरेड , यह रही मेरी कलम! / एक बार तुम भी इससे आज़मा कर देखो !"

 


आशा है रुष्ट न हुए होंगे.
सस्नेह आपका--
(लक्ष्मीधर मालवीय)

 

 


पुनश्च:
आपके-मेरे इंटरव्यू के शताब्दी समारोह (प्रकाशित किए जाने के विलम्ब पर तंज़-- राकुगौ ) पर 'सारिका' मेरी कहानी प्रकाशित करेगी तब उस पर भी अपनी बेबाक राय अवश्य देंगे.

 

 

 


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