Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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वेदना

 

सौरभ आज मानवी की तस्वीर लिए ऐसे फफक कर रो रहा जैसे उसने मानवी को अपनी
दुनिया से नहीं इस दुनिया से खो दिया हो | सौरभ और मानवी का विवाह
परिवार के सहमति से हुआ था. मानवी छोटे कस्बे की लड़की थी, साधारण नैन
नक्श गेंहुआ रंग ,काले घुंघराले बाल , पर एक ऐसा आकर्षण व्यक्तित्व पर जो
बरबस ही किसी को आकर्षित कर ले |उसे देख कर कोई कहता साक्षात् दुर्गा
लगती है, कभी उसके भोले चेहरे को देखकर कहता लक्ष्मी का रूप | मानवी की
बारहवीं पढ़ते पढ़ते ही विवाह की बातचीत चलने लगी, और उसका डॉ. बनाने का
सपना बस सपना ही रह गया | उसने अपने कुछ बनने के सपने को मन में ही दफ़न
कर लिया | माता पिता से कुछ कह ना पाई, उसके पिता विवाह तय कर आये, सौरभ
उन्हें मानवी के लिए उपयुक्त वर लगा , और मानवी का सौरभ के साथ विवाह
संपन्न हो गया | अपने गृहस्ती की गाड़ी मानवी कुशलता से सँभालने लगी , वो
एक कुशल गृहिणी थी उसने बहुत से कामों में निपुणता हासिल कर ली थी ,कोई
भी काम हो वो हर काम मन लगाकर करती थी, अतः उसने अपने इसी स्वभाव व्
निपुणता के कारण किसी नौकरों का सहारा नहीं लिया | सौरभ के कमाए गए
रुपयों से बचत कर उसने एक एक कर घर के कई सामान बना डाले, जिनका सौरभ को
जब पता चलता वो एक ही बात दुहराता " अच्छा है सामान बन गया " जल्द कोई
चीज़ बनती कहाँ है, " पर आया तो मेरे ही रुपयों से ना " और इन बातों को
बोलते वक़्त ये भी नहीं सोंचता की ये बातें मानवी को कहीं घाव करते
होंगे. धीरे धीरे मानवी ने गृहस्ती की जरूरतों से पैसे बचा बचाकर सोने के
गहने भी बनवाने लगी ,मानवी की एक अच्छी आदत थी वो फिजूलखर्च नहीं करती थी
जैसे उसकी पड़ोसने और सहेलियां भौतिकता के बनाव श्रृंगार के सामानों
पर रूपये लुटाती थी | मानवी का एकमात्र श्रृंगार था आँखों में काजल उसका
फिजूल खर्च ना के बराबर , बढ़ते महंगाई को देखकर वह हर वक़्त रुपयों के
बचत के उपाय सोंचती रहती थी जिससे उसके ना धोबी ,ना नौकर किसी पर कोई
खर्च नहीं बनते थे | उसने बचे हुए खाने के दालों, सब्जियों, चावलों की
उपयोगिता भी शुरू कर दी , बचे दाल से आंटा मल लेना, सब्जियों को भर कर
परांठा बना देना , चावल को पीसकर गोले बनाकर पकौड़े बना देना , जिससे
सामान भी बच गए और खाने की लज्ज़त भी बढ़ गए | यूँ ही कपड़ों पर कुछ
कारीगरी कर सस्ते कपड़ों को भी वो आकर्षक बना देती थी ,इस तरह अपने कुछ
सदुपयोग से खर्चों को बचाने की राह निकाल लेती थी |उधर सौरभ को क्या सूझी
उसने नौकरी छोड़ कर व्यवसाय शुरू कर ली जिसके लिए उसे बैंक से कुछ रूपये
भी क़र्ज़ लेने पड़े| व्यवसाय अच्छा चल पड़ा उसके कामों में विस्तार आने लगा
जिस कारण उसे कर्मचारियों को भी बढ़ाना पड़ा जिसमें कुछ रिश्तेदार भी
शामिल थे | मेहनत के साथ व्यवसाय बढ़ने लगा , समय बदले, पर सौरभ की एक आदत
नहीं बदली ,वो आज भी मानवी को रूपये गिनकर देता रहा यदि मानवी कुछ रूपये
घर की जरूरतों पर भी ख़ुद से खर्च कर देती तो वो मानवी पर बरस पड़ता जब
जी आया पैसे निकाल लिया " तुम्हें क्या मालूम पैसे कैसे कमाए जाते है
सारा दिन घर में पड़े रहती हो क्या जानो " और गालियों की अपशब्दों की
बौछारें शुरू | ये सब सुनकर मानवी रो पड़ती की उसने आजतक ख़ुद के कौन से
शौक के लिए रूपये खर्च किया है जो भी रूपये लगे घर के लिए ही , परिवार
बच्चे ऐसे पैसों के बिना तो नहीं चलते | सौरभ में एक और कमी थी जिसे सौरभ
जानना नहीं चाहता था , वो सारा दिन व्यस्त रहता अपने कामों में, पर रोजाना
के जरूरतों का ख्याल भी तो पति पत्नी में से किसी एक की जिम्मेवारी होती
है, वह ना ख़ुद ख्याल रख पाता और मानवी कुछ जरुरत का सामान के लिए रूपये
खर्च करती तो उसे जलील करता ,जब तक मानवी अकेली थी ये समस्या कुछ कम रही
पर एक बच्चे के आने के बाद ये कलह रोजाना घटने लगे | मानवी दिन महीने
गुजारते हुए तीन वर्ष व्यतीत कर दी ,सौरभ की हिम्मत बढती गयी वो थप्पड़ तक
जड़ने लगा , मानवी अपने भाग्य का खेल समझ सौरभ के हाथों जलील होती रही,
जब मानवी का अहम् घायल होने लगा उसने सौरभ का विरोध करना शुरू किया |
उसे उल्टा सुनने को मिलने लगा "देख रहा हूँ तेरे तेवर आजकल बदले हुए हैं
" मानवी के घर परिवार में सभी अपने जिंदगियों में व्यस्त थे मानवी जितनी
साफ दिल थी उतनी ही आत्म सम्मान वाली उसे अपने पति की गालियाँ, कटु बातें
अच्छी नहीं लगती थी | वो अपनी तुलना पासवाली सौम्या से करने लगती सौम्या
के पति भी व्यवसायी हैं पर मुझमे और सौम्या में कितना अंतर है सौम्या ने
अपने हर सुख सुविधा का इंतजाम रखा है ,पड़ी सारा दिन डूबी रहती है
टेलीविजन में | क्या हो रहा क्या नहीं उससे कुछ मतलब नहीं उसे , बस मुंह
हिलाया मिस्टर हितेन सब कुछ हाजिर कर देते हैं |
जबकि उनकी हैसियत सौरभ से ज्यादा नहीं | सौरभ मानवी को बार बार अपने
बातों से आह़त करने लगा , मानवी ने बहुत सोंचा आखिर मै क्या करूँ जिससे
वो मुझे निठल्ला ना समझें, क्या मै सारा दिन घर में बैठ कर बिताती हूँ
,इतने बड़े घर की सफाई कपड़े धोना , स्त्री करना , खाना , बगीचे की सफाई
क्या ये काम नहीं , इन्हें करने में मेहनत नहीं लगते या समय नहीं लगता |
क्या कोई घर से बाहर जाकर रूपये कमाए तभी उसकी इज्ज़त होती है , गृहणियों
की अपनी कोई इज्ज़त नहीं ? क्यों पति अपने कमाकर लाने का ताने देते हैं
क्या वो अकेले घर बाहर की जिम्मेवारी संभाल लेंगे ,ये सोंचते सोंचते
मानवी की रात गुजर गयी , मानवी इस वेदना में अन्दर ही अन्दर जलती रही |
क्रमशः आगे "वेदना" की कड़ी (अगले अंक में )

 

 

रजनी नैय्यर मल्होत्रा

 

 

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