कुछ वर्षों में बदल गई है
गाँवों की तस्वीर |
मोबाईल ले घूम रहा
हर कोइ अपने हाथ,
संगी-साथी बचपन के तो
रहे नहीं अब साथ,
तारों ही में उलझ गई है
जीवन की जंजीर |
टीवी के केबल मुँह ताके
चोपलों के बीच,
पुरखों के संस्कारों पर ही
पौध नई दी सींच,
आँगन के झगड़ों में सबकी
बिखर गई जागीर |
हैंडपंप घर-घर आ बरसा
सूखी जाती झील,
खेत खड़े सूने, खलिहानों
पर मँडरांए चील,
बिन माँझी की नाव खड़ी है
देखो नदिया पार |
***
§ रजनी मोरवाल
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