साहित्य, समाज और संस्कृति में स्त्री की स्थिति अंतर्विरोधों से भरी हुई है। इस संदर्भ में सिमोन द बोउआ की बात सत्य ही है कि ‘साहित्य, इतिहास व परंपराए पुरुषों ने बनाए है, और पुरुषों ने अपने बनाए इस विधान में स्त्रियों को सर्वत्र दोयम दर्जा दिया है।’ विश्व भर में पिछलें कुछ दशकों से स्त्री मुक्ति चेतना व स्त्रीवादी दृष्टिकोण से काफी कुछ लिखा जा चुका है। और आज भी काफी कुछ लिखा जा रहा है। भारत के परिप्रेक्ष्य में भी भारतीय नवजागरण के समय से ही स्त्री की दयनीय स्थिति के निवारण संबंधी कुछ अहम् प्रयास मिलते है। जिसमें की राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द विद्यासागर, सावित्रीबाई फुले, रमाबाई रानाडे, आदि कई महान हस्तियों ने अपना योगदान दिया है। समकालीन समय में भी स्त्री संबंधी अहम् विषयों को विभिन्न हस्तियों ने उठाया है। स्वयं हिन्दी साहित्य में आवाँ, चाक, पीली आँधी, कलिकथा बाईपास, बेघर, परिजात, आदि अनेक पुस्तकें स्त्री से जुड़ी तमाम समकालीन विषयों की वकालत करती है। लेकिन क्या आज तक इनसे जुड़े कुछ ऐसे बुनियादी सवाल क़ायम नहीं है जो समाज की नजरों से ओझल है ? जिनकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं है। इस संदर्भ में अदिति शर्मा ने भी लिखा है कि ‘‘ बुनियादी सवाल अभी तक क़ायम हैं। सूक्ष्म रेशे से अटके इन सवालों की सामाजिक संदर्भों में बारीक से की गयी जाँच-पड़ताल ही नारी अस्मिता की खोज कर सकती है। ’’
मेरा प्रयास हम सभी की दृष्टि से ओझल ऐसे ही सवालों से जुड़े एक विषय को स्पष्टतः दृष्टिपटल पर खींचना है, जिससे हम सभी परिचित है। लेकिन उसे स्वीकारने से निरंतर कतराते आ रहे है। हमारा समाज, साहित्य, और संस्कृति सभी उससे अनजान बने हुए है। भारत के ज्यादातर हिस्सों में आज तक महिलाओं के साथ मासिक धर्म (माहवारी) के दौरान अछूतों की तरह व्यवहार होता है। भारत में ही क्या विश्व भर में किसी -न-किसी रुप में यह समस्या उपजी हुई है। जिससे इस समाज की सीधी सी समझ जुड़ी लगती है। जो स्त्री की लैंगिक हीनता को दर्शाती है। क्या हमारे समाज का स्त्री के प्रति ऐसा व्यवहार उचित हैं ?
मासिक धर्म एक सहज प्राकृतिक व शारीरिक क्रिया है। जिसका सीधा संबंध समाज (मनुष्य) की उत्पŸिा से है। ऐसे समय के दौरान समाज का स्त्री के प्रति बड़ा क्रूर रवैया है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी मासिक धर्म एक स्वाभाविक शारीरिक क्रिया है। जिसके दौरान स्त्री सामान्य दिनों की अपेक्षा सुस्त और कमजोर होती है। उस दौरान हमारी संस्कृति व समाज का उसके प्रति ऐसा क्रूर व्यवहार क्या कोई घोर अपराध नहीं हैं ? ‘गर्भधारणपोषाद्धि ततो माता गरीयसि’ इस श्लोक का सामान्यतः अर्थ है कि गर्भधारण और पोषण करने के कारण माता का पद सबसे ऊँचा है। और मनुष्य ही नहीं पृथ्वी के सभी जीवों में मादा को जननी होने के कारण श्रेष्ठ माना गया है। फिर भी इस परिप्रेक्ष्य में पुरुषवादी सांमती मानसिकता से ग्रसित समाज इस उक्ति को अपने कर्मों से खारिज करते आ रहा है।
विश्वभर में मासिक धर्म के लिए कोई सम्मानपूर्ण एवं सामान्य शब्द नहीं है। स्वयं भारत में ही इसे बड़े ही हीन भाव से अलग-अलग शब्दों से उच्चरित किया जाता है। ‘‘उŸार भारत में पीरियड्स आना, कपड़े आना, महीना आना, सिग्नल डाउन, रेड सिग्नल, नेचर पनिशमेंट, और आजकल की छोटी बच्चियों में केक कट गया जैसी शब्दावली उपयोग में लाई जा रही है। ’’ नेपाल का एक शब्द है ‘छौपदी’। क्या आप इस शब्द से परिचित है ? ‘छौपदी’ एक कुप्रथा है जो वैसे तो नेपाल की है लेकिन भारत व बांग्लादेश भी इससे दूर नहीं है। छौपदी कुप्रथा के अंतर्गत स्त्रियों को माहवारी के दौरान घर से बाहर एक जगह में रहना पड़ता है। कहीं पर तो गाय-भैंस के साथ ही रहना पड़ता है। इस दौरान ये अनेक अंधविश्वासी मान्यताओं का पालन करती है। जैसे ये कोई भी चीज़ छू नहीं सकती, सामान्य पानी व भोजन का सेवन नहीं कर सकती। सामान्यतः शौच का प्रयोग नहीं कर सकती। खाने के तौर पर नमकीन ब्रेड व चावल का सेवन करती है आदि। वैसे तो 2005 से नेपाल की सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण यह कुप्रथा बैन है। लेकिन इसके बावजूद भी ये नेपाल में अपना अधिपत्य जमाए हुए है। और ऐसी अनगिनत अंधविश्वासी मान्यताएँ सिर्फ नेपाल ही नहीं बल्कि भारत में भी फैली है। भारतीय समाज में उŸार से लेकर दक्षिण तक, और पूर्व से लेकर पश्चिम हर क्षेत्र में मौजूद है।
भारत के चारों कोनों तक यह कुप्रथा पैर टिकाए जमी हुई है। दक्षिण भारत की तरफ की शुरुआत को तो उत्सव के रुप में मनाते है। जैसे दक्षिण भारत में कई जगह दूध अथवा तेल से नहलाने का रिवाज है। और जिस युवती के लिए यह उत्सव मनाया जाता है , उसे कई उपहार व भेंट परिवारजनों द्वारा दी जाती है। लेकिन इसके पश्चात दूबारा उस युवती के इस प्रक्रिया से गुजरने पर उसे अंधविश्वासी और सामंती नियमों को स्वीकारना करना पड़ता है। वही उŸार भारत में यह कुप्रथा भीषण नियमों से स्त्री को घेरे हुए है। उŸाराखंड के कुमायूँ क्षेत्र में तो यह कुप्रथा अत्यधिक क्रूर रुप में फैली दिखती है। यही पश्चिम का गुजरात, महाराष्ट्र व राजस्थान इससे दूर नहीं है। तो पूर्व में असम, बंगाल, मणिपुर आदि भी इससे जकड़े हुए है। असम के कुछ क्षे़़त्रों में केले के पेड़ के साथ विवाह करने का रिवाज है।
बहराल, पूरे भारतीय समाज को देखें तो यह लगभग सभी धमों, जाति, वर्गों में फैली है। सिर्फ पंजाबी संस्कृति व धर्म इस कुप्रथा से दूर नजर आता है। लेकिन फिर भी यहाँ की स्त्रियों की मानसिक स्थिति अन्य दिनों के मुकाबले सामान्य नहीं लगती। अगर हम सभी क्षेत्रों का इस कुप्रथा के संबंधित सार स्पष्ट करें तो भारतीय समाज से संबंधित स्त्री के माहवारी के प्रति व्यवहार निम्न बिन्दुओं में दिखती है:-
§ महिलाए इस कुप्रथा के दौरान सामान्य पानी, भोजन, कपड़े आदि जरुरतमंद चीज़ों को छु तक नहीं सकती है।
§ उन्हें घर या घर के बाहर सीमित क्षेत्र भीतर ही अपने यह 5से 7 दिन का समय गुजारना पड़ता है।
§ महिलाओं को इस दौरान कई शारीरिक पीड़ाएँ होती है, जिसके उपचार की तो छोड़ों बल्कि ऐसी अंधी मान्यताओं से उन्हें मानसिक रुप से पीड़ित भी किया जाता है।
§ ऐसी पुरुषवादी सामंती मान्यताओं से ग्रसित भारत की अधिकतर महिलाए इस अवस्था को परिवार के आम जनों से छिपाती है। शर्म व संकोच के कारण इसका सीधा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है।
§ माँ और पुत्री के बीच भी यह प्रक्रिया आपसी संकोच को बढ़ाती है जो कि दोनों के स्त्री होने पर भी ।
§ ‘‘ इंडियन कौंसिल फाॅर मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट अनुसार भारत में 70 प्रतिशत लड़कियों को प्रथम रजो दर्शन से पहले पता नहीं होता कि यह क्या प्रक्रिया है। जिस कारण वह इस दौरान इसे गंदा और प्रदूषित मानकर इसे शर्म का विषय मानते है। ’’
§ ‘‘ भारत की 70 प्रतिशत प्रजनन प्रणाली संक्रमण से पीड़ित है। जिसका अहम् कारण भारत में लगभग तीन-चैथाई से अधिक महिलाओं को इसके प्रति जागरुकता से वांछित रहना है। जिस कारण वे उपयोगी सैनेट्री पैडस् के स्थान पर फटे-पुराने पौछेनुमा कपड़े, भूसा, लकड़ी का बुरादा, सड़े-गले कागज़, अखबार, गत्ते, राख आदि का प्रयोग करती है। ’’
§ शहरी क्षेत्रों में भी इस अवस्था में स्त्री को पूजा-पाठ से वांछित रखा जाता है। और उसे तुलसी, पीपल आदि पेड़ों से दूर ही अपनी श्रद्धा अर्पण करनी पड़ती है।
§ भूमंडलीकरण के इस दौर में भले ही शहर की युवतियों का, इस अंधविश्वासी मान्यताओं की तरफ ध्यान कम है। लेकिन यहाँ की अधेड़ महिलाएँ जो गाँव से पलायन के कारण यहाँ है, वो आज भी किसी न किसी रुप में ऐसी बेकार मान्यताओं को भूलने में आनाकानी करती है। और अपनी बेटियों को ऐसी जड़वादी मानसिकता की ओर अग्रसर करती है।
§ भारत के गाँवों में इस कुप्रथा की मान्यताओं व नियमों को अस्वीकारने पर स्त्रियों को विभिन्न अनहोनियों व हानियों के ढ़ोंग द्वारा डराया जाता है जैसे:-
व महवारी के समय स्त्री द्वारा स्वयं से सामान्य पानी छूने पर सूखा पड़ जाता है। फल को हाथ लगाने से पेड़ में फल नहीं आते है, और फसल को हाथ लगाने से वे बर्बाद हो जाती है आदि।
व अगर ऐसी अवस्था में कोई स्त्री घर में सामान्यतः अन्य दिन की तरह रहे तो वह बीमार पड़ जाती है, क्योंकि यह इज़ाजत देवता नहीं देता। और कहीं - कहीं तो माना जाता है कि पीरियड् के दौरान ऐसी मान्यताओं की अवहेलना के कारण परिवार में किसी की मौत भी जो सकती है आदि।
अतः भारतीय समाज में यह बड़े दुःख की बात है कि स्त्री की इस सहज शारीरिक प्रक्रिया को छूत के रोग में बदल दिया है। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 17 सभी नागरिकों को अछूत व्यवहार निष्क्रिय है, का अधिकार देता है। फिर भी स्त्री के प्रति ऐसा निर्दयी व्यवहार समाज की पुरुषवादी मनोदशा का अत्यंत पीड़ादायक दुव्र्यवहार है। स्त्रियों पर माहवारी के दौरान थौपी गई विभिन्न मान्यताओं से हम स्पष्ट समझ सकते है कि आज समाज किस दशा और दिशा में है ? और आज तक यह इसे कुप्रथा के रुप में स्वीकारने को तैयार नही ंतो इससे निवारण की बात ही दूर है।
भारतीय साहित्य और संस्कृति दोनों ने ही स्त्री से जोड़ी गई माहवारी संबंधी कुप्रथा को गंभीरता से नहीं लिया है। वर्षों से चले आ रहे हमारे पौराणिक मिथक कथाओं में भी इसका स्पष्टतः चित्रण नहीं मिलता है। लेकिन कुछ पुस्तकों को ध्यान से पढ़ते समय ऐसे कुछ दृश्य जरुर नजर आते है। उदाहरणतः पौराणिक मिथक ‘महाभारत’ में दुशासन द्वारा द्रौपदी के बाल पकड़ कर लाने के समय, द्रौपदी को रजस्वला माना है। जिस समय उन्हें विश्राम करना चाहिए। उस समय उनका ऐसा अपमान भी शायद उनके वीभत्स क्रोध व प्रतिज्ञा का द्योतक है। ‘‘ दुर्योधन ने द्रोपदी को सभा में लाने का सूत को आदेश दिया। वह दो बार विफल होकर लौटा - पहले तो इस सूचना के साथ की देवी रजस्वला एकवस्त्रा है। वे इस अवस्था में सभा में नहीं आ सकती। ’’ ‘भारत में महाभारत’ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक मे पांचाली शपथम् (तमिल) नामक कृति में सुब्रमण्यभारती द्वारा रचित कथा द्वारा स्पष्ट बताया गया है कि द्रौपदी इस दौरान रजस्वला थी। इसके अतिरिक्त पूना क्रिटिकल एडीशन (महाभारत) में भी इसकी पुष्टि मिलती है।
भारत में 51 शक्तिपीठों में सर्वोच्च शक्तिपीठ कामाख्या देवी का मंदिर असम की गुवाहटी में है। इस मंदिर में देवी की पूजा तब विशेष रुप में की जाती है जब वह रजोधर्म (मासिक धर्म) से ग्रसित मानी जाती है। नीलाँचल पर्वतमाला में स्थित यह मंदिर अम्बूवाची पर्व के समय सबसे पवित्र माना जाता है। और इस पर्व के समय माता रजस्वला होती है। इस प्रकार एक देवी तो रजस्वला होने पर पवित्र और सर्वशक्तिशाली मानी जाती है और वहीं एक सामान्य स्त्री जो रजस्वला के समय अपवित्र मानी जाती है। और एक तरफ माता के रजस्वला होने पर सभी जन उसकी पूजा करते है। वहीं सामान्य स्त्री के रजस्वला होने पर उसको तमाम पुरुषवादी सामंती अंधविश्वासी परंपराओं में बांध दिया जाता है। और समाज सदियों से इस दौरान स्त्री का अपमान-तिरस्कार करता आ रहा है। जबकि एक देवी की इस स्थिति को पर्व के रुप में मना रहा है।
भारतीय साहित्य में स्वतंत्रतोतर से लेखिकाओं ने बढ-चढ़कर स्त्री विमर्श को उजागर किया है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि स्वतंतत्रता के पश्चात से आज तक ऐसे प्रमुख स्त्री स्वाभिमानी विषय की तरफ शायद ही किसी का ध्यान गया है। मैं कई दिनों से ऐसी किसी कथा या नाट्य या काव्य आदि विधा की तलाश में था। जिसका विषय माहवारी से जुड़ी कुप्रथाओं से संबंधित हो। लेकिन मैं अभी तक दो-तीन कविताओं के अलावा कुछ और नहीं खोज पाया हूँ। शायद ऐसे विषय से संबंधित साहित्य न के बराबर ही है। गद्य में संजीव के ‘फाँस’ उपन्यास में एक दृश्य जरुर ऐसे विषय से संबंधित है। सर्वप्रथम समकालीन समय में हिन्दी की प्रमुख साहित्यकार एवं अहम् स्त्रीवादी कवियत्री अनामिका की कविता ‘प्रथम स्राव’ इस विषय से संबंधित कविता है। जिसमें उन्होने एक युवती के प्रथम स्राव को बेहद कुशलता से दर्शाया है। कवियत्री ने प्रथम स्राव के दौरान होने वाले शारीरिक कष्टों को सूक्ष्मता से अंगित किया है।
‘‘ उसकी सफेद फ्राॅक
और जाॅघिए पर
किस परी माँ ने काढ़ दिए हैं
कत्थई गुलाब रात-भर में ?
और कहानी के वे सात बौने
क्यों गुत्थम-गुत्थी
मचा रहे हैं
उसके पेट में ?’’
अनामिका के अलावा अभी हाल ही में भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित युवा कवियत्री सुश्री शुभम श्री की एक कविता है ‘ मेरे हाॅस्टल के सफाई कर्मचारी ने सैनिटरी नेपकिन फेंकने से इन्कार कर दिया है।’ यह कविता आज के पुरुषवादी सामंती मानसिकता से ग्रसित शहरी समाज की पोल खोलती है।
‘‘ ये कोई नई बात नहीं
ल्ंबी परंपरा है
मसिक चक्र से घृणा करने की
‘अपवित्रता’ की इस लक्ष्मण रेखा में
कैद है आधी आबादी
अक्सर
रहस्य-सा खड़ा करते हुए सेनिटरी
नैपकिन के विज्ञापन
दुविधा में डाल देते है संस्कारों को
संसार की सबसे घृणित वस्तु बन जाती है
सेनिटरी नैपकिन ही नहीं, उनकी
समानधर्माएँ भी
पुराने कपड़ों के टुकड़े
आँचल का कोर
दुपट्टे का टुकड़ा।......’’
संजीव के ‘फाँस’ उपन्यास में एक दृश्य जरुर ऐसा है जो महाराष्ट्र के आदिवासी समाज में मौजूद ऐसी अंधविश्वासी कुप्रथाओं की वकालत करता है। यह उपन्यास मूल रुप से किसानों की आत्महत्या से संबंधित है। लेकिन इसमें आया एक दृश्य समाज में मौजूद इस कुप्रथा का सूचक है -
‘‘ अपने तमाम गँवईपन के बावजूद मेंडालेखा उसके लिए किसी आश्चर्य लोक से कम नहीं था। एक गाँव, जहाँ कोई मंदिर नहीं, जाति नहीं, जंगल पर सबका समान अधिकार, बाँस के वन और वर्षो-वर्षो पुराने पेड़ों से भरा मेंडालेखा।
.........पर यहाँ एक और भी अद्भुत चीज़ थी कूर्माघर, जहाँ मासिक धर्म के दिनों 3-4 दिन तक औरतें विश्राम करती है। ये कैसा गाँव है .....लेकिन प्यारी सखी मजुला ने उसके कान में कुछ कहा कि वह चैंक गयी।
‘मुझे तीन दिन तक तुझसे अलग उस कमरे में रहना होगा।’
‘क्यो ?’
‘वो, शुरु हो गया।’ उसने कान में फुस-फुसाकर कहा।
‘ज्यादा नाचने-कूदने से ?’
‘अरे नहीं रे! त्ेारा अभी शुरु नहीं हुआ ?’
‘मेरा ? लगता है.........मेरा भी......?’
‘तब भाग कला भाग, नही ंतो मेरे साथ उस कुर्माघर में तुझकों भी बन्द कर देंगे...तीन दिन।’ ’’
आज साहित्य जहाँ एक ओर स्त्री, दलित, आदिवासी, तृतीय लिंग आदि जैसे हाशिये के समाज की चेतना और प्रतिरोध को निरंतर प्रकट कर रहा है। लेकिन इसके बावजूद भी माहवारी कुप्रथा जैसे अहम् विषय से यह दूर है। अर्थात् प्रमुखतः स्त्रीवादी विमर्श तो मेरे अनुसार ऐसे विषय से इतर नहीं हो सकता है। जगदीश्वर चतुर्वेदी का कथन है कि ‘‘ स्त्री की व्यक्ति के रुप में अस्मिता को स्थापित करना, उसकी संवेदनाओं , भावों और विचारों को अभिव्यक्ति देना स्त्री साहित्य का बुनियादी दायित्व है। ’’ यह कथन स्पष्टतः ऐसे विषय की ओर ध्यान जुटाने के लिए प्रेरित करता है।
आजकल पूरे विश्व में मासिक धर्म के प्रति प्रचलित कुप्रथाओं को मिटाने तथा इसके प्रति सामान्य जागरुकता बढ़ाने को लेकर बहस चल रही है। संयुक्त राष्ट्र विमेन, वल्र्ड बैंक जैसी अनेक अंतराष्ट्रीय संस्थाओं व संगठनों ने इस विषय को मुख्यधारा के कार्यक्रमों में शामिल कर लिया है। इस प्रकार आज अनेक वैश्विक जागरुकता की रुपरेखा व कार्यक्रम बन गए है। स्वयं भारत सरकार ने इसे राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम शामिल किया है। इसके अतिरिक्त इस कुप्रथा के निवारण के लिए हम सभी को आगे बढ़कर अपनी भूमिका निभानी चाहिए। समाज में इसकी जागरुकता संबंधी अहम् बिन्दु निम्न है:-
ऽ सर्वप्रथम स्त्री और पुरुष समाज में दोनों को इस प्रक्रिया के प्रति अपने सामंती मूल्यों को त्यागना होगा। जिससे महावारी के दौरान स्त्री और पुरुष दोनों ही सामान्य व्यवहार करें।
ऽ साहित्य में इसे एक प्रमुख विषय के रुप में अपनाया जाए। जिससे समाज के सभी बुद्धिजीवी इसे स्वीकार करें।
ऽ साहित्य के साथ-साथ सिनेमा, संगीत, मीडिया जैसे लोकप्रिय साधनों के द्वारा यह विषय अपनाया जाए। जिससे यह सीधे जनसामान्य तक पहुँचे।
ऽ गरीब और ग्रामीण क्षेत्रों में सस्ते दामों या मुफ्त में सेनिटरी पेडस् बाँटने की योजना बनाए जाए।
ऽ ग्रामीण व शहरी सभी प्राथमिक विद्यालयों और चिकित्सालयों में किशोरियों को इसके प्रति विशेष तौर पर जागरुक किया जाए। उन्हें पेडस्् आदि मुफ्त में बाँटे जाए।
ऽ सरकार द्वारा देश के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे समय में स्त्री के प्रति होते दुव्र्यवहार को कानूनी रुप से अपराध स्वीकार कर ऐसे किसी कानून का निर्माण किया जाए।
ऽ ऐसे विशेष व्यक्तियों या संस्थाओं को प्रोत्साहित किया जाए जो इसके प्रति सच्ची निष्ठा से सेवानिवृत हो।
ऽ 28 मई जिसे अंतराष्ट्रीय मासिक धर्म दिवस 140 देशों द्वारा स्वीकार गया है। उस दिन विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा जागरुकता फैलायी जाए।
अन्त में अगर इस लेख में पद्म श्री अरुणाचलन मुरुगननथम का जिक्र न हो तो यह लेख सार्थक नहीं होगा। पद्म श्री अरुणाचलन मुरुगननथम जिन्हें वर्ष 2016 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया है। उन्होंने मासिक धर्म स्वच्छता के बारे में जागरुकता कायम करने में अहम् भूमिका निभाई है। तमिलनाडु में कोयम्बटूर के एक स्कूल में किसी समय पढ़ाई छोड़ चुके, मुरुगननथम ने महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान अपने ही घर में संघर्ष करते हुए देखकर 12 साल पहले विश्व की सबसे सस्ती सेनेटरी पेडस् बनाने वाली मशीन का आविष्कार किया और उसके बाद से ही वह ग्रामीण भारत में मासिक धर्म को लेकर पारंपरिक कुप्रथाओं में बदलाव लाने के लिए अभियान चल रहे है। भारत के ग्रामीण परिवेश में सभी स्त्री तक यह जानकारी पहुँचाना उनका लक्ष्य है। तथा अपनी मशिनों ़द्वारा वह ग्रामीण परिवेश में रोजगार के साथ सस्ते दामों में सेनिटरी पैडस् मुहैया कराने का अहम् कार्य भी कर रहे है।
Rakesh Joshi
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