कैफेटेरिया में बैठा अजय स्लाईस्स की बोतल में स्टौ घुसेड़े पी चुका था। और अब अपनी बायीं हथेली पर रखे फोन की स्क्रीन पर दाये हाथ की अँगुली फिर रहा था जैसे कोई माँ अपने बच्चे के सिर पर सोते वक्त हाथ फेरती है। फोन की स्क्रीन पर लगातार ऊपर की ओर बढ़ रही पिक्चरस् डिबेट कम्पीटिशन की स्मृतियों को ताजा कर रही थी। और सारी स्मृतियाँ टीवी स्क्रीन के न्यूज हैडलाइन्स की भाँति रफ्तार पकड़े आगे बढ़ने लगी। तभी फोन से घम्म्मम...... घम्म्म्म...... की ध्वनियाँ कम्पन करते हुए स्लाईस की बोतल से टकराने लगी। और स्क्रीन पर ‘पापा जी’ (चंचंरप) लिखने के साथ एक अर्थ सफेद बालों वाले साँवले आदमी की हँसती हुई तस्वीर बाहर की तरफ झाँकने लगी। इससे अचानक अजय का स्मृतियों की (डिबेट कम्पीटिशन वाली) दुनिया से ध्यान भंग हुआ। ऐसा लगा मानो विज्ञान की किसी प्रयोगशाला में अनेच्छिक क्रिया का उचित प्रयोग हुआ हो। और अजय इस दुनिया से जब जागा तो दोनों कानों में उस फोन की घम्म्म्म..... घम्म्म्म्म की ध्वनि के अलावा भी, हँसने-हँसाने, चिल्लाने, टेबल बजाने, गाने आदि जैसी कई ध्वनियों का मिश्रण गुँजने लगा। अपने दोनो पैर को दरवाजे की ओर खींचते हुए अजय कैफेटेरिया से बाहर निकला और फोन पर दायें हाथ की अंगुली को थेपकर, उसने फोन का मिलन सीधे कान से करवाया। भीतर से आ रही ध्वनियों को गौर से सुनने लगा। ‘हैल्लो, नमस्ते पापा जी।‘ .... ‘हाँ मैं ठीक हूँ।‘ ....... ‘ पढ़ाई अच्छी चल रही है।‘ ..... ‘परसों ही मैं डिबेट कम्पीटीशन जीता हूँ।‘ ‘नहीं पापा, नहीं गया।‘ ...... ‘ठीक है आज ही चला जाऊँगा। ....पक्का।‘ ‘ओकेय पापा .....बाय।‘ इतनी ही संपर्क ध्वनियों का वाचन कर फोन और कान का मिलन खत्म हुआ। और अजय सीधे हास्टल की ओर चल दिया।
शाम सात बजे ताई जी की भेजी साड़ी को सामान के साथ बैग में रख बस स्टेशन की तरफ चल दिया। अजय रात 10 बजे की गाड़ी से काठगोदाम की टिकट लेकर बैठ गया। अजय रास्ते भर खिड़की से बाहर झाँकते हुए अंधेरे में कुछ सोचने लगा। बुआ को काॅलेज में डिबेट कम्पीटिशन के सारे किस्से बताऊंगा। अपने दोस्तों के बारे में बताऊगां। काॅलेज की फ्रेशर पार्टी के बारे में बताऊगां। अपने हास्टल के मजेदार किस्से बताउगां। और पूरे दिनभर उनके साथ खूब बातें करुगा, खूब इन्जाॅय करूगाँ। इतना सोचते -सोचते ही अजय की आँखें मुरझाने लगी और देखते ही देखते वो गहरी नींद में जा पड़ा। सुबह-सुबह जब सो कर उठा, तो गाड़ी हल्द्वानी पार कर चुकी थी। तभी ताई जी की बात उसे याद आयी कि ‘वहाँ सुबह-सुबह कुछ नहीं मिलेगा इसीलिए रात में ही गजरौला या कहीं और से गाड़ी रुकने पर मिठाईयाँ, फल वगैरह खरीद लेना। आखिर! हमारे घर की चेली-बैणी (बेटी-बहन) के ससुराल जा रहा ठहरा तू।‘ ये सारे शब्दों की गुंज ने उसे उसकी गलती का आभास कराने लगे। थोड़े ही समय बाद गाड़ी काठगोदाम जा पहुँची और अजय काठगोदाम बस स्टेशन पर उतर गया। जहाँ किरण और बंटी सुबह की शीतभरी हवाओं के साथ उसका पहले से ही इंतजार कर रहे थे। सुबह की धुंधली रोशनी में ऐसा लग रहा हो मानो चारो ओर से हरे घंुघराले बालों वाले पहाड़ों से घिरा ये काठगोदाम शहर अपने किसी बाशिन्दे का स्वागत कर रहा है।
अजय ने किरण और बंटी को देखते ही पहचान लिया। लेकिन दोनो का चेहरा फेसबुक वाले चेहरे से थोड़ा फिका था। और फिर नीचे उतर कर अजय एक नजर चारों तरफ के हरे - हरे सुंदर डाण्डयों (ऊँचे-ऊँचे पहाड़) की तरफ देखने लगा। यह सुबह-सुबह की ठंड में भी ऐसा लग रहा था कि जैसे ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों ने अपनी ऊँचाई से आसमान का भी एक बड़ा हिस्सा ढक दिया है। अजय को यूँ निहारते देख बंटी ठंडो रे! ठंडो, मेरो पहाड़ा कि हव्वा ठंडी पाणी ठंडो..‘ गाने लगा। और इतने में किरण बोल पड़ी ‘हैल्लों भैया, वेलकम टू आवर काठगोदाम।‘ अजय ने भी हल्की स्माइल के साथ अभिवादन किया। अब बंटी ‘हैल्लो मिस्टर हाउ आर यू‘ की धून में गाने लगा। और किरण ने उसे आँखे पैनी करते हुए डरा डाला। उसी ने बताया कि बंटी बात कम करता मगर गाना ज्यादा गाता है। अब तीनों पैदल चल दिये। स्टेशन से लगभग 15 मिनट की दूरी पर ही उनका घर था। अब अजय टेंशन में आ गया। और किरण और बंटी से बोल पड़ा। ‘इधर कोई फल या मिठाई की दूकान नहीं है क्या?‘ लेकिन दोनों ने सीधे-सीधे मना कर दिया। फिर अजय ने दोनों की तरफ अपना हुकुम का इक्का फेंका। दूध और जलेबी के लालच में बंटी फिसल गया। और उसने बगल वाली मंडी का राज़ उगल दिया। रास्ते भर किरण अजय से काॅलेज के बारे में पूछती रही। अजय भी सारे उत्तर पूरे जोश में देते रहा। और बन्टी चुपचाप सुनता रहा। तीनों घर पहुँचे। बंटी ने घंटी की आवाज़ के साथ ही अजय और किरण अंदर घुसे। लेकिन अजय को आभास ही नहीं हुआ की गेट खोला किसने? उसने किरण के चेहरे की तरफ देखा। लेकिन उसकी आँखों में ऐसा कोई संदेह झलका नहीं। मगर बंटी ने अजय के एक्सप्रेशन को पकड़ लिया और बोल पड़ा। ‘अरे! मम्मी ने खोला। और हाथ से कोने में सीढ़ीयों की ओर इशारा करते हुए कहने लगा। ‘मम्मी, वहाँ पर है।‘ तथा सीढ़ियों के नीचे किसी के होने का आभास अजय को भी हुआ। साथ ही उसे याद आया कि दिल्ली में ताई जी के वहाँ भी जब कोई भिखारी या बाबा आता है तो उसे भी इसी तरह एक कोने मे उपहास की जगह बिठाकर उसको चाय या नाश्ता देते थे। इतने में ही अन्दर से गुस्से से सनी बुढ़ी-सी लटपटाती चीख गुंजी और बंटी ‘अम्मा......अम्मा फिर से ड्रामा......‘ गाने लगा। इतने में फिर से ‘ किरररु........किरररु.....चहा ल्या दे...‘ (किरण को प्यार से किररु पुकारती है और कहती है ‘चाय ला दे‘) की लड़खड़ाती गुस्सैल आवाज़ गुंजने लगी। जैसे सभी पूरी दीवारों को अपने होने भर से डरा रही हो। अजय सीढ़ीयों के पीछे देखने लगा जहाँ बुआ पुवाल के ऊपर हल्का बिस्तर बिछाए बैठी थी। अजय को पास आते देख कर बुआ बैठे-बैठे ही बोल पड़ी ‘अज्जू ...जा.......जा पहले भीतर जा, मुँह-हाथ धो ले। चल!‘ इतने से वाक्य में उनके पूरी तरह मनाही के एक्सप्रेशन झलक रहे थे। अजय यह देख कशमशा गया। और नजरें नीचे कर अन्दर कमरे में चला गया। ऐसा लगा मानों किसी अछूत को ताजी-ताजी सामाजिक अवहेलना झेलनद पड़ी हो। अब अजय साइलेन्ट था और उसकी आँखें तथा चेहरा अपना काम कर रहे थे। जिसके भीतर प्रश्नों की तरंगे निरंतर कूदने लगी। वो सोच में पड़ गया बुआ जी ने पैर छूने तक क्यों नहीं दिये। दूर से ही क्यों इशारा कर दिया कि ‘अन्दर जा।‘ मेरे से कौन-सी बदबू आ रही है। कल शाम से नहाया था।‘ इतने में वह बूढ़ी सी गुस्सैल आवाज़ वाले चेहरे से जा टकराया। जो दोनो घुटनों को सीधे करते हुए अपने हाथों से अपना बुढ़ा-सा चश्मा सीधा कर, अजय को घूरने लगी। तभी अजय उनके पैरों पर जा झुका। बुआ के नही ंतो अम्मा के ही सही, उसे लगा जैसे पैर छूने की भड़ास तो पूरी हुई। इतने में कमरे में आ रही किरण बोल पड़ी ‘अम्मा ये अजय दाज्यू है, मेरे करनाल वाले मामा के लड़के।‘ (दादी ये मेरे अजय भैया है, करनाल वाले मामा के लड़के)अम्मा ने भी ‘बची....इइइ रौ ईजा !‘ (जीते रहो बेटा) ऐसा ही कुछ कहा। किरण ने अजय और अम्मा को चाय दी। तथा उधर बंटी अम्मा से नजरें चुराता हुआ बाहर सीढ़ियों के पीछे मम्मी को चाय दे आया। बाथरुम की तरफ जाते हुए अजय को ये सब अजीब लग रहा था। अजय कुछ कसमसाया-सा खड़े होकर सोचने लगा। तभी किरण बोल पड़ी ‘भैया छोड़ो ये सब, आज हाथ-मुँह धो लो।‘ बाथरुम से बाहर निकलकर इस वातावरण को समझने की अजय पुनः कोशिश करने लगा। तभी बाहर सीढ़ीयों के पीछे से बुआ की धीमी आवाज़ आयी। ‘अज्जू......इधर आ जरा!‘ धीमी से आवाज़ को सुन अजय उस तरफ बढ़ा। उधर सीढीयों से परे ही किरण द्वारा रखी गई कुर्सी पर अजय बैठ गया। और इतने में ही बुआ ने पूछा ‘कैसा है रे तू ? बड़े सालो बाद आया रे! और कैसे चल रहा है बल तेरा काॅलेज ?‘ अजय चुपचाप नीचे नजरें करते हुए ही बुआ के सवालों का जवाब देने लगा। इतने में अम्मा की फिर से तेज-तराटेदार गुस्सैल आवाज़ गुंजी ‘ये दुल्हनी नहा रे! बल ये कुलक्ष्णणी छैएएए........जरुर पूर्र्र भीतर शुतक फैलाली ....‘ (ये मेरे बेटे की दुल्हन अर्थात् लक्ष्मी समान नहीं है। ये तो रजोधर्मा औरत है जो नियमों की अवहेलना करके पूरे घर के अंदर छूत फैलाएगी)
इतनी सी आवाज से पूरा वातावरण डर-सहम सा गया । ऐसा लगा कि आकाश में किसी काली चील के पंखों के साँये से ही घर के सभी प्राणी डरनुमा जाल में सिकुड़ने लगे। ‘बुआ! ये सब क्या है? मैं कुछ नहीं समझ पा रहा हूँ।‘ तब बुआ भी बोल पड़ी। ‘चेला..ऽऽऽ.. (बेटा) ये तो पहाड़ों का रिवाज ठहरा रे। हमें ऐसे ही कुछ दिन रहना पड़ता है। तेरी माँ भी तो जब थी तो ऐसे ही रहती थी। याद है एक बार तूने अपनी माँ से भी यही पुछा था जो मुझसे पूछ रहा है।‘ इतना कहने भर से ही अजय किसी गहराती साँझ की डूबती उदासी में खो गया। और उसकी आँखें और चेहरा उसकी माँ की अकस्मात मृत्यु का सारी स्मृतियों का बखान करने लगे। ये देखते ही बुआ को अपने फेंके हुए शब्दों से इस दुखदः दृश्य को रचने का भचानक आभास हुआ। लेकिन फिर किसी बनावटी रेखा के जाल में सिमट कर वह अपने पुवाल के ऊपर बिछे बिस्तर तक घिरी रह गई। जैसे चारों तरफ से कोई पैनी निगाहे उनकी रेखा पार न करने की नाकाबन्दी कर रहा हो। इसके बाद बुआ ने अपने चेहरे व निगाहों को नीचे पुवाल की तरफ करते हुए कहा ‘अज्जू माफ करियो चेला, जा ...रे, सफर से थका होगा। अन्दर जाकर सो जा। नाश्ते के समय किरण उठा देगी।‘ अजय भी इस अनचाही व अनजानी दास्ताँ को सुनकर भीतर चला गया। बिस्तर पर लेटे ही क्षण भर में आँखें बन्द कर तेज खर्राटे लेने लगा।
किचन में दादी द्वारा सिलबट्टे में पुदीने और हरी मिर्च का नमक पीसने के साथ ही, उनकी ताने भरे लम्बे-लम्बे कुमाउँनी वाक्यों की गुंज घर के हर कोनग तक गुँजने रहे थे। और पुवाल के ऊपर बैठी एक शांत मूरती निरंतर उन वाक्यों को सोखते जा रही थी। अम्मा...... जब तक हरा नामक पीसती रही तब तक प्रवचन गुँजते रहे। मगर अजय इस शो को इंटरवल के बाद हो जाग कर देख रहा था। उस समय किरण लोई बेल गैस में तवा रख रोटी बना रही थी। और अम्मा हरा नमक पीस खीरे के रायते में मिलाने लगी। पूरे घर में दादी के प्रवचनों में उनकी दहशत का माहौल बन गया था। इतने में बंटी पुनः बिस्तर में लेटे अजय की तरफ देखकर ‘अम्मा....अम्मा फिर से ड्रामा‘ की लिपसिंग करने लगा। अब बारी थी सफाई की तो बंटी और किरण बाँट-बाँट कर सफाई कर रहे थे। अजय को मानों एहसास होने लगा था कि ये पहाड़ी रिवाज़ जान का जन्जाल है।
दोपहर के भोजन के समय भी इसी तरह की हलचल दुबारा हुई। बल्कि हलचल नहीं तुफानी हलचल। ऐसा लगा मानों अम्मा! ठान चुकी हो कि ‘चलो तुम्हें कंछ तुफानी दिखाती हूँ।‘ पूरी तरह रट्ट लगाए बैठी की भात नहीं खाया 3 दिन से । वो भी इस कुलक्ष्णणी के कारण।‘साथ ही उन्होंने रसोई अपने हिसाब से कुछ अटपटी तरह से भात और पिनाउ साग बनाया। खाते समय बंटी कहने लगा ‘बड़े दिनो बाद पिनाउ की साग बनी है, वो भी भांग डालकर।‘ शायद ऐसी साग पिछले महीने ही बनी थी। शाम की चाय के बाद एक बार फिर से अम्मा का ड्रामा शुरु हुआ। इस बार तो अजय खुद ‘अम्मा........अम्मा फिर से ड्रामा‘ की लिप्सिंग बंटी के साथ करने लगा। पूरे दिन भर की माथापच्ची में अम्मा ने घर को गालियों से सजा दिया था।
रात में बिस्तर पर लेटते ही अजय को आभास हुआ कि हर रोज की तरह फिर से आज पूरे दिन की स्मृतियों की ट्रेन गुजरने वाली है। तभी रात के अंधेरे में दिन-भर की हेडलाइन्स फटाफट गुजरने लगी। और सारी स्मृतियाँ बुलेट ट्रेन से भी तेज दौड़ने लगी। तभी अचानक किसी स्मृति का डिस्क ब्रेक लग पड़ा। और अजय को ऐसा लगा कि उसकी आत्मा में कोई हलचल उठी। और पलभर में जिन्दगी में अर्जित की गई सारी वैचारिकता क्षीण होने लगी। लेकिन ऐसी कौन सी स्मृति आई जिसने उसे जिंदगी के परिप्रेक्ष्य में यूं ठंडा कर दिया। जरुर कोई उदास मुरझायीे स्मृति होगी। हाँ बिल्कुल उदास, मुरझायी और बेजान स्मृतियाँ, जो जिन्दगी में हर क्षण भीतर से कचैटती रहती है। ये स्मृतियाँ किसी डिटरजेंट सर्फ से भी रगड़-रगड़ कर धोने से धुंधली नहीं पड़ती। क्योंकि ये उपेक्षित मानवीय जीवन में गुप्त रखी जाने वाली धुंधली परिचितताओं को उजागर करने का काम करती है। जिससे कोई भी अन्जान नहीं है। अपनी ही स्मृतियों में उलझते ही अजय लाचार हो खिड़की की ओर देखने लगा जहाँ बाहर की छिटपुट रोशनी में टुकड़े-टुकड़े में दिख रहे आसमान को वह घूरने लगा। और फिर आँखें मूंदकर अपनी उदास मुरझायी स्मृतियों में डूबने लगा। बढ़ते अंधेरे की रफ्तार में कुछ क्षण पश्चात् वो आँखें खोलकर पुनः कमरे के अंधेरे को भाँपने लगा। वह फस्ट ईयर का छात्र काॅलेज डिबेट कम्पीटिशन से जीतकर सीधे यहाँ आया। वो भी पापा के फरमान के खातिर की बुआ को भिटोई दे आओ। और हाॅस्टल से एक बैग टाँग क रवह काठगोदाम के लिए रवाना हुआ। बस में बैठे-बैठे पूरी प्लानिंग कर चुका था कि बन्टी और किरण को पूरे डिबेट कम्पीटिशन के रोचक व मजेदार किस्से सुनाएगा। काॅलेज में फ्रेशर पार्टी की रौनक के बारे में बताएगा। लेकिन डिबेट कम्पीटिशन तो क्या पूरे काॅलेज की स्मृतियाॅ भी उसे अब एक क्षण के लिए अपनी तरफ नहीं खींच पा रही है। वो उसी तरह जमीन पर पीछे एक डल्लफ गद््दे पर दोनों टांगे पसारे उदास मुरझायी किसी स्मृति को निरंतर झाँके जा रहा है। अंधेरे का सन्नाटा इतना गहरा था कि अपने साँस लेने की आवाज भी अजय सुन रहा था। और फिर उसके बचपन से अब तक की सभी उदास स्मृृतियाँ अपने होने की गवाही देने लगी। सबसे पहले उसके सात साल की उम्र में गांव की वो स्मृति गुजरी जिसमें घर के अन्दर माँ उस कमरे को अलग से लाल मिट्टी से लेप रही थी। और उस पाँच बाइ पाँच फूट की जगह को ही वो अपने रहने के लिए लीप रही थी। जहाँ परिवार के किसी भी बच्चे, बूढ़े या पुरुष का जाना वर्जित था। उसके बार-बार पूछने पर ही माँ ने कहा था कि ‘ये तपस्या की जगह है जहाँ हम औरतें पाँच-छह दिन तपस्या करती है।‘ इस स्मृति की शक्ति ने अजय की आँखों से मोती टपकाने का चमत्कार शुरु किया। इसके साथ ही अजय आज सुबह से बुआ की दुर्दशा भरी स्मृति में बहने लगा। ऐसा लगा कि दोनों ही स्मृृति अपने सक्रियपन का गुणगान करने लगी है और इसमें डूबा अजय सुख के आसमान से सीधे नीचे गिरा और दुख भरी स्मृतियों के तीव्र वेग में बहने लगा।
अब अगली स्मृृति अपने होने का आभास कराने लगी तथा अजय सीधे अपने ननिहाल में जा पहुँचा। जब मात्र 13 वर्ष का था। तब उसकी भोली-भाली नानी की आग उगलती गालियाँ उसकी मम्मी के व्यक्तित्व की गाथा रच रही थी। उन दिनों मामी भी दूर-दूर किसी कोने में सिमटी रहती थी। उस दौरान उन्हें नानी ने कई बार भला-बुरा कहा ‘ मेरे नाती के आने पर ही तुझे कुलक्ष्णणी होना था? मेरे नाती की आयु पर विघ्न डालेगी तू क्या? हराम्म्मम......जादी...कुक्कुर की चेली....तेर ख्वरा ना डान धरन...।‘(मेरे नाती के आने पर ही तुझे रजोधर्मा होना था। मेरे नाती की आयु पर जरुर विघ्न डालेगी। हरामजादी, कुत्ते की बच्ची, तेरे सर काटने पर ईनाम रखू) आदि शब्दों की गुंज फिर से अजय के कानों में सुनाई दी। और माँ की मृत्यु से पूर्व की माँ की स्थिति जैसे किसी सन्नाटे में चित्रित होने लगी। बस एक ही बात अजय को याद आती थी कि माँ लम्बे अरसे से परेशान थी लेकिन किसी से भी अपनी बीमारी का जिक्र नहीं करती थी। बूढी गुस्सैल अम्मा और नानी की आवाजें उसके मन में कोई दृश्य रचने लगी थी। पूरे दिन में अम्मा के प्रवचन नानी की उस गाथा के साथ उसे सर्प की भांति डसने लगे। अजय फिर से पुनः दिन भर की स्मृृतियों के उदासीपन को सुड़ग-सुड़ग कर पीने लगा। और डिबेट कम्पीटिशन में वामेन ऐम्पावरमेंन जैसे विषय पर बोलने वाला अजय अब आँखों जोर से बन्द करने की कोशिश करने लगा। लेकिन वो आँखें बंद ही करता तो फिर से स्मृृतियाँ उसे डसने को तैयार थी। अंत में हारकर अजय इससे दूर जाने के लिए कमरे की लाइट जलाता है। और टेबल पर रखी किताबों को घूरने लगता है। वह अपने मन की विषमता को दूर करने भर के लिए पास रखी किताबों के पन्नों को पलटता है। ऐसा लगा मानों जिंदगी की इन उदास स्मृतियों के इतिहास को इन पन्नों में पलट रहा हो। अब वह जितना इन मकड़जालों से निकलने की चेष्टा कर रहा था, उतना ही इसमें उलझता जा रहा था। और लगातार इन स्मृृतियों में समुद्र की लहरों की तरह पछाड़ खा रहा था। अब अजय उठा और लाइट बंद कर सीधे बुआ के पास चल दिया। बुआ सीढ़ियों के पीछे अंधेरे को अपने सीने से चिपका उस डरावने माहौल में लेटी पड़ी थी। और दर्द के किसी लावा के फूटने भर से उनकी उदास ताल सी आँखें पीड़ानुमा बुदें बह रही थी। अजय को देखते ही रूंधें गले से बमुश्किल कुछ शब्द बाहर निकले। ‘अज्जू......सोया नहीं रे।‘ अजय बुआ के चेहरे व उनकी रूंधती आवाज भर से पहचान गया कि बुआ किसी कष्ट में हैं। इसे देखते ही वो अपने उदासी स्मृतियों का खुल्लासा बुआ से करने लगा। तब बुआ ने भी पलट कर कहा ‘ अरे! ये तो यहाँ होता ही ठहरा रे। तू क्यों परेशान है इन सब बातों को लेकर? यहाँ के चारो तरफ के पहाड़ सदियों से ऐसी चल रही रीति-रिवाजों के पक्के गवाह है। इससे कोई दूर नहीं है। छोड़ ये सब बातें ये बता कि दाज्यू(बड़े भाई) ने भिटोई भेजी या नहीं ?‘ तब अजय ने अंदर अपने कमरे से ताई जी की भेजी साड़ी लाकर दिखायी। और ताई जी की साड़ी देखते हीं बुआ जी का चेहरा पीड़ामुक्त होने की गवाही देने लगा। और चेहरे में बाहर और भीतर दोनों तरफ की मुस्कुराहट झलकने लगी। इतने में ही बाहर वाले कमरे से फिर से ‘ईजा....ईजा..‘की बूढ़ी सी चीख गुंजने लगी। और बाहर की तरफ किसी के आने का आभास हुआ। तो अपने बिस्तर में साड़ी छिपाए बुआ लेट गई। और अजय चुपचाप सीधे अंदर कमरे में जाकर बिस्तर पर लेट गया। और क्षण-भर में उसे नींद आ गई और वो तेज खर्राटे लेने लगा।
Rakesh Joshi
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