उज्ज्वल, ‘उज्ज्वल-पेपरवाला’ नाम तो सुना होगा आपने, साहेब प्रातकालः दिल्ली के इस चौराहें से गुजरोगे तो अपने आप उज्ज्वल से मिल ही लोगे । देखने मे बिल्कुल दुबला-पतला बिस्कूट सा हैं , लेकिन असल में वो ऐसी टॅाफी है जिसकी मिठास हर फ्लेवर मे भाती है । उस चौराहे से प्रात:काल गुजरने वाले सभी (vip व सामान्य) लोग उससे पेपर खरीदते व पढ़ते है। साथ ही उससे प्रात:काल राम-राम कर, अपना दिन शुभ बनाते है।
साहेब, वैसे तो उज्ज्वल १२-१३ का होगा। लेकिन बड़ो-बड़ों से भी ज्यादा मेहनत, साहस, धैर्य, आदि गुणों को अपने मे समेटे रखता है। माँ घर में ही रहती है तथा फूलों की माला बनाती है। जिसे छोटावाला ‘कालू’ बेचता है। उज्ज्वल और कालू दो भाई है। दोनो से उनके पिता के बारे मे मत पुछिये नहीं तो रो पड़ोगे। इनकी झोपड़ी कॉलेज के बायीं तरफ के नाले के किनारे में हैं। वैसे तो कभी-कभी हवा के साथ बास यहाँ तक आ जाती है। मगर न जाने ये लोग वहाँ कैसे बसे हुए हैं।
उज्ज्वल चौराहे पर प्रातकाल: से ही न्यूजपेपर बेचता है। वो भी पूरे ६ तरह की भाषा के पेपर । हिन्दी, तमिल, अंग्रेजी, उर्दू, उड़िया आदि भाषाओं में। इस चौराहे से आने-जाने वाले कई मुसाफिरों व वाहनचालकों से उसकी गहरी दोस्ती है। उसकी इस खुबी का राज़ उसकी अपनी प्रसन्लटी है, आखिर कई सारी बोलियाँ बोलता है। तथा कई देशी- विदेशी अॅफसर लोग भी उसे अच्छा मानते है। जो अक्सर सड़क से गुजरते समय उसे कुछ गिफ्ट दे जाते हैं। उज्ज्वल, पूरे दिन अपनी मेहनत मे लीन रहता है। सुबह अखबार बेच माँ के साथ फूलमाला बनाने मे मदद् करता है तथा उन्हें कालू के साथ बेचता भी है। कालू भी दोपहर मे चौराहें के किनारे रैड सिग्नल पर करतब दिखाता है।
उज्ज्वल से अन्य मुसाफिरों की तरह हम तीन दोस्त भी प्रात: काल ही मिलते हैं। अपनी तो उससे गहरी फ्रेंडशिप है। साहेब, अगर उसकी एजुकेशन की बात करे तो ए बी सी डी भी लिख नहीं सकता। मगर ‘द हिन्दू’ के मोस्ट पॅापुलर हैडलाइन्स पढ़कर ‘द हिन्दू’ बेचता है। ये तो कुछ नहीं साहेब तमिल, और उर्दू, के न्यूजपेपर भी पढ़-पढ़कर बेच देता है। ऐसे कई किस्से सुबह की चाय के दौरान वो हमें सुनाता है। हम तीन क्लासमेट की सुबह की चाय उस चौराहे पर उज्ज्वल के साथ ही होती है। चाय की चुस्की के बीच ही हमने उज्ज्वल के बारे मे काफी कुछ जाना हैं। हम तीन दोस्तों मे एक कम गंभीर है । वह अधिकतर समय हमसे मजे लेता रहता है। अपने खुरापाती दिमाग को चलाता रहता है । एक दिन तो उसने मजे-मजे मे उज्ज्वल से यह तक पुछ दिया कि ‘ हीरो महिने मे कितने छाप लेता है?’ तब उज्ज्वल का रिपलाइ भी बड़ा अलग-सा था। उसने कहा कि ‘ साहेब पूरे २१०० का कोटा पूरा करता हूँ।’ इसी तरह पिछले हफ्तें मैंने भी उससे पुछ लिया कि ‘ऐ उज्ज्वल तेरे पिछले शुक्रवार की फोटो वाले नेता का क्या हुआ?’ पिछले शुक्रवार उसके ही पास पड़े अधिकतर पेपर के फ्रन्ट पेज पर उसका नेता जी के साथ फोटो छपा था। वो भी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी के बड़े नेता के साथ, जिसने कई वादे भी उससे किए सिर्फ पेपर के काले अक्षरों में, तथा पत्रकारों के कैमरों के भीतर । अब तक उस नेता की तरफ से कोई हेल्प उज्ज्वल के लिए नहीं हुई है। वैसे भी उज्ज्वल ने कई बार बताया है कि कई नेता-वेता, मंत्री-संत्री से मिला है । सब-के-सब उसके न्यूजपेपर बेचने के अंदाज से काफी प्रभावित है। तरह-तरह के प्रश्न उससे पुछते रहते है जैसे ‘स्कूल क्यों नहीं जाते हो?’ , ‘क्या पढ़ना जानते हो?’ , और जब वह पढ़कर दिखाता है । तो बोलते है ‘ तुम्हें पढ़ना चाहिए। तुम पढ़ो स्कूल जाओ, हम तुम्हारी मदद् करेंगे।’ तरह-तरह के वादे करते है। इनके अलावा भी कई संस्थाएँ यहाँ आती है। उज्ज्वल जैसे कई अन्य उज्ज्वलों से मिलती है । इनसे बातें करती है , वादे करती है फिर दो-चार दिन इनकी जिन्दगी अपनी तरह से चलाती भी है। लेकिन, फिर इनकी मजबूरी इन्हें इसी चौराहे पर लाकर खड़े कर देती है
अरे हाँ, उसकी एक और बात तो बताना ही भुल गया। हमनें, मंत्रियों ने, नेता-वेता, रिपोटरों, संस्था वालों ने आदि कई लोगों ने उससे कई बार पुछा कि ‘ बड़े होकर क्या बनोगें?’ तो, उसका हर बार एक ही जवाब था ‘साहेब बड़ा होकर मैं डाक्टर बनूगाँ। अपने पिता के जैसी खतरनाक बीमारी से ग्रसित मरीजो का इलाज करूगाँ और तब तक उनका इलाज करता रहूगाँ जब तक की वो ठीक नहीं होते।‘ सुनने मे यह बात जरूर संवेदनशील लगे । साहेब मबर इसके पीछे उसकी संवेदनशीलता नहीं बल्कि उसका दृढ़संकल्प था। जो हमें सीधे उससे जोड़ता है। अखबारों के कई लेख जो बीमारी से संबंधित होते थे। उन्हें काट-काटकर वह अपने पास रखता था तथा हमसे उन बीमारियों की चर्चा करता था जैसे एक रोज मधूमेह की चर्चा हुई थी। साहेब उज्ज्वल की इन्ही खूबियों ने हमें हमारी डाक्टरी (पढ़ाई) की तरफ ध्यान केन्द्रित करने के लिए बाधित किया। उसी का परिणाम है कि आज हम तीनों सारे सेमेस्टर क्लेयर कर चुके है।
इसी चौराहे के ठीक पीछे लगभग ४०० मीटर की दूरी पर एक केन्द्रीय विद्यालय है। जहाँ कई विद्यार्थी पढ़ते है। शायद ही कोई उज्ज्वल जैसा होगा। साहेब, ऐसी उम्र में लगभग ६-७ भाषा के न्यूजपेपर रोजाना बेचता है। साथ ही कई और कार्य भी करता है। कई लोगों से बड़े मधूर सम्बन्ध है उसके, और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि उसे २१०० रूपये कि गहरी समझ है। शायद ही इतनी उम्र का कोई और दूनिया मे ऐसी समझ रखे। उज्ज्वल की यही अच्छाई हमें भी प्रेरित करती है। शायद इसीलिए उसे रोजाना चाय की चुस्की के दौरान हम कुछ दवाई व बीमारियों के बारे मे जरूर बता देते थे। जो काफी हद तक उसकी डॅाक्टरी नॉलेज के लिए पूर्ण न हो , मगर उसके लिए आवश्यक जरूर है। एक मिडिल क्लास फेमिली से होने के कारण हम बंधे हुए जरूर थे।
खैर छोड़ो, आज हमारा कॉलेज का आखिरी दिन है। कल से भरतपुर पहुँच कर मुझे अपनी उस सिटी में ही ट्रेनिंग के लिए धक्के खाने है। कोई बात नहीं मैं ये सब सह सकता हूँ। मगर ज्यादा चिन्ता उज्ज्वल की है। उसके साथ खेलते-खालते हमने तो डिग्री पा ही ली। मगर आज भी उज्ज्वल वही चौराहे पर पड़ा है। आज अपने दिल मे मैंने भी एक दृढ़ संकल्प किया है कि एक बार कही जल्दी से सेटल हूँ। फिर उज्ज्वल डाक्टर जरूर बनेगा। बो भी खतरनाक बीमारी का इलाज करने वाला डॉक्टर। लेकिन तब तक उज्ज्वल क्या करेगा। शायद यहाँ से किसी नयी ओर तो वह नहीं चला जायेगा या अन्य बच्चों की तरह वो भी कोई दूसरा-भद्धा रास्ता अपना लेगा।
बस कुछ ही दिनों की बात है। आज उज्ज्वल बनकर उज्ज्वल की तरफ से यह संदेश लिख रहा हूँ। कल सुबह मैं यहाँ से चला जाऊगाँ। और यह संदेश हॉस्टल वाले उस्ताद को दे कर जाऊगाँ ताकि आने वाले किसी अन्य आशिश को इस आशिश का संदेश मिले। और अगले ३ वर्ष तक कोई अन्य आशिश उज्ज्वल का दोस्त बने। वो भी सच्चा दोस्त, इस आशिश जैसा, जिसके साथ उज्ज्वल चाय पिये, अपनी बातें शेयर करें। साथ ही कुछ अन्य दवाइयों व बीमारियों पर टिप्स लेता रहे। अच्छा एक बात और उज्ज्वल का यह ‘साहेब’ शब्द अपने साथ लेकर जा रहा हूँ ताकि उज्ज्वल को भूलू नहीं। और साहेब जहाँ भी रहूँ किसी अन्य उज्ज्वल के करीब जा सकू।
हे भगवान मेरी इस दिल-ई-तमन्ना को जरूर पूरा करना। ...................आशिश
Rakesh Joshi
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