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उत्तराखण्ड लोकसंस्कृति की पहचान ‘काफल

 

--Rakesh Joshi

एक ठंडी जलवायु वाला पहाड़ी प्रदेश ‘उत्तराखण्ड’ जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य और लोक संस्कृति दोनों के लिए विख्यात है। आज अधिकतर उत्तराखण्ड वासी जो जीविका के लिए अपनी जन्मभूमि को छोड़ शहरों की तरफ विस्थापित हुए हैं, उन्हें यह लोक संस्कृति शहरों में रहने पर भी उत्तराखण्ड वासी होने का एहसास कराती है तथा उन्हें अपनी लोक परंपराओं से जोड़कर रखती है। आज दिल्ली, लखनऊ, मुंबई, आदि शहरों में होने के बावजूद भी ये गंगा दशहरा, हरेला, उत्तरायणी, होली आदि प्रमुख लोक पर्वांे को मनाते है। शहरों में ही नहीं बल्कि विदेशों में रहने वाले उत्तराखण्डी प्रवासी वहाँ तमाम लोक पर्वों को बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं। शहरों और विदेशों में बस गए इन प्रवासियों को अपनी लोकसंस्कृति अपनी जन्मभूमि की तरफ सीधे खींच लाती है। ज्यादातर उत्तराखण्डी प्रवासी आज भी गौहोत की दाल, पीनाऊ की सब्जी, बाल-मिठाई, अरसा, रोड, स्वान, मंडुए की रोटी, भट्ट का डुबूक, अंगुर का अचार, घुघुत, आदि डिश के लिए शहरों विदेशों में तरसते रहते है। और अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में, सर्दियों की छुट्टियों आदि अन्य समय में जरूर अपनी जन्मभूमि से मिलने चले आते है। आज उत्तराखण्ड में अधिकतर युवा पलायन कर चुके है, और बड़े-बूढ़े और घर के पहरेदार स्त्री-बच्चे ही यहाँ ज्यादातर रहते है। इस प्राकृतिक सौंदर्य के निवासियों की लोक संस्कृति भौगोलिक तथा प्राकृतिक दोनों ही रुप से जुड़ी हुई है। समस्त त्यौहार, रीति-रिवाज, नृत्य, गीत, बोली, पकवान, पहनावा, फसलें आदि इनसे जुड़ी हुई है। तथा समय-समय पर यह अपने लोगों को आकर्षित करती है।
उत्तराखण्ड देवभूमि के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहाँ समस्त देवी-देवताओंका निवास माना जाता है। हिमालय की वादियों के समीप का यह क्षेत्र चार धामों में से एक बदरी और केदार धाम जैसे पावन तीर्थस्थल के कारण विश्व विख्यात है। यहाँ तमाम देवी-देवताओं, त्यौहारों, फसलों, खेत-खलिहानों, तीर्थस्थलों आदि से जुड़ी अनेक लोकगाथाए यहाँ प्रचलित है। उन्हीं में से एक का जिक्र मैं आप सब से करता हूँ।
उत्तराखण्ड का फल है ‘काफल’। जिससे जुड़ी एक प्रसिद्ध लोककथा भी है। इस कथा को यहाँ कई लोकगीतों के द्वारा भी बताया गया है। ‘काफल’ इस पहाड़ी क्षेत्र का प्रसिद्ध फल है। काफल की खासियत है कि इसे बीजों के द्वारा उगाना नहीं पड़ता बल्कि यह प्राकृतिक रूप से ही अपने आप उग जाता है। इसलिए ज्यादातर यह जंगलों में उगता है। यह एक ऐसा फल है जो समस्त प्रवासियों और पर्यटकों को सीधे उत्तराखण्ड खींच लाता है। दरअसल बात यह है कि यहाँ के अन्य फल और खाद्य सामग्री तो अन्य क्षेत्रों में पहुँचायी जा सकती है लेकिन काफल ज्यादा देर तक रखने योग्य नहीं रहता। यही वजह है की उत्तराखण्ड के अन्य फल जहाँ आसानी से दूसरे राज्यों में भेजे जाते है, वहीं काफल खाने के लिए स्वयं लोगों को देवभूमि में आना पड़ता है। उत्तराखण्ड का सुप्रसिद्ध लोकगीत ‘बेडु पाको बारामासा, हो नरैणा काफल पाको चैता मेरि छैला।’ यह गीत इस फल की इस संस्कृति से जुड़ी गहरी आत्मीयता को ज़ाहिर करता है। इस गीत में चैत में काफल के पकने का जिक्र किया गया है।
प्रसिद्ध कुमाँऊनी कवि गुमानी जी का एक लोकगीत है जिसमें काफल अपना दुख इस प्रकार व्यक्त कर रहे है कि हम स्वर्ग लोक में इंद्र देवता के खाने योग्य थे। और अब भूलोक में आ गए, और पृथ्वी पर भी इन पहाड़ों को ईश्वर ने हमारा स्थान बनाया है। -
खाणा लायक इंद्र का, हम छियाँ भूलोक आई पणां।
पृथ्वी में लगा ये पहाड़, हमारी थाती रचा देव लै।
योई चित्त विचारी काफल सबै राता भया।
काफल से जुड़ी प्रसिद्ध एक लोककथा है। यह कहानी बहुत कम ही लोगों को पता है कि एक गांव में एक गरीब महिला और उसकी एक छोटी-सी बेटी रहती थी। दोनों एक-दूसरे का जीने का सहारा थी। उनके पास थोड़ी-सी ज़मीन थी। जिससे वो अपना गुजारा करने की कोशिश करते थे। महिला गर्मियों के दिनों अर्थात चैत मास में काफल पक जाने पर जंगल से काफल तोड़, इकठ्ठा कर उसे बाज़ार में जाकर बेचती थी। इसलिए उनका गुजारा इन दिनों काफल पर निर्भर करता था। एक बार सुबह के वक्त महिला जंगल उसे टोकरी भर के काफल तोड़कर लायी। और उसको अपने पालतू जानवरों के लिए चारा लाना था । इसके अलावा उसे अपने खेतों में गुड़ाई हेतु जाना पड़ता था। जो उसके प्रतिदिन का हिस्सा था। महिला प्रतिदिन की तरह काफल बाहर आंगन में रख कर जंगल से चारा काटने और खेतों में कार्य करने चले गई। उसने बेटी से कहा ‘मैं जंगल से चारा काट कर आ रही हूँ। तब तक तू इन काफलों की पहरेदारी करना। कहीं बानर टोकरी में झपटा मार कर मेरी मेहनत बेकार न कर दे। और हाँ तू भी इससे मत खाना, शाम को बाज़ार जाकर इसे बेचना है। ताकि पैसों से जरूरत की चीजें खरीद सकें।’ तब बेटी ने भूख की लालसा देकर काफल खाने की इच्छा जाहिर की। लेकिन माँ ने सख्त शब्दों से बेटी को डांट दिया। माँ की बात सुनकर मासूम बच्ची उन काफलों की पहरेदारी शुरू कर दी। दोपहर में जब उसकी माँ घर आई तो उसने देखा कि टोकरी में काफल का लगभग एक-तिहाई हिस्सा कम था। भूख-प्यास से व्याकुल माँ जो सुबह से जंगल से मेहनत करके काफल तोड़ लायी। अब काफल कम देखकर आग बगूला हो गई। उसने देखा कि एक भी काफल का दाना आसपास नहीं था। और न ही कुछ ऐसा सुराग जिससे बानर के आने का आश्वासन हो। तो वह समझ गई कि जरूर बेटी ने ही काफल खाये है। बेटी बेचारी भूख से जूझती हुई पहरेदारी करते-करते आंगन में ही सो गई थी। माँ अब सोई हुई बेटी पर जोर-जोर से प्रहार करने लग गई। मासूम बेटी माँ को नींद में भी ‘मैं नि चाख्यों’ का उत्तर देने लग गई। बेटी ने नींद में ही मरे पिताजी की कसम भी खाई, लेकिन ये सुनते ही माँ और गुस्से में आ गई और मासूम सी उस बच्ची के सर पर जोर-जोर से मारने लग गई। थोड़ी देर में वह मासूम चेहरे वाला शरीर पार्थिव शरीर में परिवर्तन हो गया। और माँ भी थकी हारी वहीं चिन्तन की मुद्रा में बैठे-बैठे ही सो गई। थोड़ी देर बाद उठ जानवरों को दाना-पानी देने लगी। तभी आंगन पर रखी टोकरी पर उसकी नज़र फिर से पड़ी। उसने देखा कि फिर से उस टोकरी में सुबह के बराबर ही काफल लग रहे है। और टोकरी पूरे काफलों से भरी लग रही है। अर्थात् बेटी ने सच कहा था कि उसने काफल नहीं खाये थे। अब थकी-हारी, मेहनती, गरीब महिला की ममता जाग उठी। उसे अपने किये पर अफसोस होने लगा। वह भागकर पास पर पड़ी अपनी बेटी के समीप पहुँची और उसे उठाने की कोशिश करने लगी। लेकिन बेटी तो चल बसी थी। उसके पार्थिव शरीर को माँ ने खूब हिलाया। और जोर-जोर से कहने लगी ‘पुर पुतई पूर पूर ! चेली उठजा रे!’ और माँ रात भर रोती बिलखती रही। और सुबह होते-होते माँ ने भी बेटी के सदमे में गुजर गई। और इस तरह से इस करूण गाथा का दुखद अंत हुआ। कहा जाता है कि वह बेटी और माँ ने इसके बाद से चिड़ियों के रूप में जन्म लिया। और हर चैत मास में एक चिड़िया कहती है कि ‘काफल पाकौ मैं नि चाख्यों’ अर्थात् काफल पक गए है और मैंने नहीं चखे है। और इसके बाद दूसरी चिड़िया कहती है कि ‘पुर पुतई पूर पूर’ अर्थात् पूरे है बेटी पूरे है। अब आप लोग सोच रहे होंगे कि काफल सुबह तो पूरे थे, फिर अगर किसी ने काफल खाये नहीं तो दिन में कम कैसे हुए? और फिर शाम को पुनः सुबह के बराबर कैसे लगने लगे। दरअसल तेज-चटक धूप के कारण काफल मुरझा गए थे। जिसके कारण काफल कम लग रहे थे। और शाम को फिर ठंडा मौसम होने के कारण काफल अपने उसी रूप में आ गये।
उत्तराखण्ड का लोक फल ‘काफल’ इसकी लोकगाथा तो ऊपर आज सुन ही चुके है। अब इसकी उपयोगिता से भी आपको परिचित कराता हूँ। आयुर्वेद में काफल को भूख की अचूक दवा माना गया है। इसके अलावा मधुमेह रोगियों के लिए काफल रामबाण का काम करता है। विभिन्न शोध के द्वारा इसमें एंटी आॅक्सीडेटिव गुणों के होने की पुष्टि मिलती है। जिससे दिल सहित कैंसर के होने की संभावना कम होती है।

 

 

 

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