हरी-हरी घास पर
चादर भर सपने
कितना ही चाहा है
मिले नहीं अपने
धूप के बगीचे में
गूंगी अभिलाषा है
पलक-पलक दौड़ रही
नयनों की भाषा है
तनहाई बँट गई
गम के सवेरे
कितना ही चाहा है..
बीती है रात अभी
सुधुयों के चलते
कितने ही टूटे हैं
नेह के घरौंदे
मन बढ़ हवाओं ने
दिए ऐसे धोखे
कितना ही चाहा है
मन तो अड़भंगी है
फिर भी यह संगी है
भाग-भाग जाता है
लौट-लौट आता है
ओठों की चाहत पर
संगीन पहरे हैं
कितना ही चाहा है
सुबह गई, शाम गई
प्रीत गई, प्यास गई
तेरे लौट आने की
मन भावन आश गई
सिंदूरी शाम आज
फिर तुम्हें पुकारे
कितना ही चाहा है
रामानुज मिश्र
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