संकरी गली के
तंग चबूतरे पर
रोज-रोज सुबह-शाम
सिगड़ी सुलगाती हैं
फूंकती हैं, हौंकती हैं
ज़हर बूझे धुँये को
फेफड़ों में भरती हैं।
खंचिया भर बर्तन
मांज-घिस चमका कर
रसोई में धरती हैं
माँ की दुलारी बन
खुद को ही छलती हैं
कहाँ जाये, क्या करें
मूकालाप करती हैं
टाट सी लड़कियाँ।
लटिआये बालों में
सोलह बसन्त लिए
कितने ही भैयन की
चिकोटियों का दंश
सहती चुपचाप हैं
आह नहीं, उफ नहीं
रातों में
सपने भी-देखने से डरती हैं
अनब्याहे ब्याह की
प्रतीक्षा में मरती हैं,
प्रतिष्ठा के नाम पर
सिंकती हैं, फुंकती हैं
एक नहीं...कई बार
फंसरी पर झूलती हैं
टाट सी लड़कियाँ।
बेटी से औरत बन
जब-जब निकलती हैं
कोई फुसलाता है
कोई बहकाता है
भाई के घर से
जब उन्हें भगाता है
रंगीन बादलों की
दुनियाँ दिखलाता है
ज्योंहि चुक जाती हैं
खनकते बाजारों में
बेच दी जाती हैं
या किसी स्टेशन पर
अनाथालय की शक्ल में
छोड़ दी जाती हैं
जहाँ से दिख जाता है
चौराहा
अगली सुबह होते ही
अनजानी खबर बन जाती हैं
टाट सी लड़कियाँ।
हमने तो पोंछे हैं
गन्दे पांव टाटों पर
जल्दी ही फेंका है
गली के कबाड़ों पर,
मर्दों की,
बेगैरत भीड़ में
अब भी
सहमती, ठिठुरती
हांफ रहीं लड़कियाँ
टाट सी लड़कियाँ।
रामानुज मिश्र
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