Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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शंख हूँ मैं तुम्हारा.

 

शंख हूँ मैं तुम्हारा- आराध्य बन बजता रहूंगा,
शिल्प-सीपी सा ढलकर वालू-वारि बहता रहूंगा |
निर्विघ्न हो अब रूक सके न अर्चना मेरी,
द्वार पर खड़ी कालजयी एक- सर्जना मेरी,
करवद्ध- सृजन कर आगे बढूँ मुक्त होकर,
उठा आवाहन निज ध्येय की अर्चना मेरी,
पथ कोई मिले भटकूँ नहीं किसी डगर मैं
विश्वास हूँ मैं तेरा साथ चलता रहूंगा ||
शंख हूँ मैं तुम्हारा ——————

हार मैं मानूं नहीं आभास जो जीत का हो मेरी,
धूल बन जाऊंगा मैं पद – पखार कर जो मैं तेरी,
भार ना बन सकूं धरा पर समर्पण ऐसा मैं करूंगा,
जो दोगे निष्प्राण कर मुक्त- परिधि पर तुम मेरी,
वाधा हो न कोई अभिराम- लोचन ज्योति में
मनुज हूँ मनुज देह के आभास में जीता रहूंगा ||
शंख हूँ मैं तुम्हारा ——————–
दुर्लभ- दिनमान में व्याप्त तपती- भावना मेरी,
सहज- सुलभ अन्चमन में भरती कामना मेरी,
जगाये कोई मेरी सोयी तिमिर- श्रंखला आकर,
और जगीं हों पावन-स्मृतियाँ ले आराधना मेरी,
तुम्हारे द्वार की भीख जब देगी वरदान मुझे,
भिक्षा का करुणा – पात्र लेकर मैं आता रहूंगा ||
शंख हूँ मैं तुम्हारा ——————–
थी अजनवी डगर जो सदियों के संताप ने घेरी,
मरने को मर रहे थे हम पाप- अभिशाप में तेरी,
फिर भी तोड़े प्रतिबंध सारे मांगकर मैंने तेरे द्वारे
संकल्प इस निर्धन के निर्वाह में हो कामना मेरी,
खारेपन का प्रवाह झक-झोरता रेत की तपन में ला
बज्र के प्रहार सा अपना तन-मन ले मैं बढ़ता रहूंगा ||
शंख हूँ मैं तुम्हारा ————————

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