Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

अगले जनम में मोहे बीटिया ही दीजो.......!

 

पिछले कई दिनो से टी वी चैनलो पर विभिन्न प्रकार के सामाजिक रिश्तो पर आधारित धारावाहिको का प्रसारण होता चला आ रहा है। इन सबमें मुझे वैसे तो कई धारावाहिक पंसद है लेकिन खास कर जी टी वी का लोकप्रिय धारावाहिक अगले जनम में मोहे बीटिया न कीजो.....! इस धारावाहिक को देखने के बाद और इसका शीर्षक गीत सुनते ही मेरा रोम - रोम दिल में छुपी उस पीड़ा से रो पड़ता है जो बेटी न होने की वज़ह से होती है। इसी तरह के धारावाहिको की श्रंखला में क्लर्स पर आने वाला धारावाहिक भाग्य विधाता में भी उस धारावाहिक की एक महिला पात्र अपने ससुराल वालो के साथ अपने पिता एवं परिजनो को भी चारो धामो की यात्रा करवाती है। कुछ नकारात्मक छबि बनाने वालो ने बिटिया के पात्र ऐसे प्रस्तुत किया है कि उसका बेडागर्क ही हो गया है। ऐसे कई कलाकारो एवं धारावाहिको के लेखको एवं निर्माता ने भारतीय संस्कृति का सवा का अपने स्वार्थ के लिए ऐसा सत्यानाश किया है कि भारतीय संस्कृति मुन्नी की तरह बदनाम हो गई है। ऐसा करने में जितेन्द्र कपूर की बिन बिहाई बेटी एकता कपूर का नाम अव्वल दर्जे पर आता है। एकता के धारावाहिको ने भारतीय नारी की मानसिकता एवं सोच को भी बदल कर ऐसे स्वरूप में प्रस्तुत किया है कि देख कर घृणा एवं तिस्कार की भावना पैदा हो जाती है। अध नंगी हाथो में विदेशी शराब के प्याले लेकर किटी पार्टी में अपनी बहू की बुराई करने वाली और उसके कोसने वाली सास नहीं बल्कि मंहगाई से खतरनाक डायन के रूप में दिखती है। जब भी ऐसे तथाकथित परिवारीक धारावाहिको को अपने माता - पिता एवं परिजनो के साथ जब हम देखते है तो भले ही अपना सिर न पीटे लेकिन मेरा तो मन होता है कि मैं अपना सिर पीट लूं......! नारी जाति की नकारात्मक छबि पेश कर करने के बाद भी मुझे अपनी बेटी के रूप में राजस्थान की वह छबि दिखती है जो कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपने गांव की चैधरी बन कर पुरूष प्रधान समाज को उस राजस्थान में चुनौती देती है जहां पर सदियो से बेटियो को कोख में ही मार दिया जाता है। मुझे हमेशा इस बात टीस सताती रहती है कि भगवान ने मुझे दो लडक़े देने के बजाय एक बीटिया क्यों नहीं दी .....! आज इसी लोग भले ही इस मानसिकता में पल रहे हो कि बेटे ही उनका अपना कुल - वंश - कुन्बा चलाते है। इसलिए हर माँ - बाप को बेटी की जगह बेटे की लालसा बनी रहती है। अपने कथित वंश - कुल - कुन्बे को चलाने के लिए उन्हे कथित कुल दीपक चाहिये। ऐसे लोगो को वह कहावत कभी भी नहीं भूलनी चाहिये जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि घर को आग लगा दी घर के चिराग ने ......! लोगो की अपनी मानसिकता भले ही कुछ क्यों न हो पर मैने अपनी मानसिकता में जरा सा भी परिवर्तन नहीं लाया है। मुझे आज भी इस बात का डर सताता रहता है कि कहीं मेरे दो चिराग मेरे ही अपने आशियाने को ही जला कर राख न कर दे। मैं एक नहीं सौ नहीं सैकड़ो नहीं बल्कि लाखो उदाहरण इस बात के बता एवं दिखा सकता हँू जब बेटे ने ही अपने शराब - शबाब - कबाब - धन लालसा में अपने माता - पिता को बेरहमी से मार डाला या फिर उन्हे धक्के मार कर घर से बेघर कर दिया। आज देश की अदालतो में चलने वाले परीवारीक मामलो में 90 से 99 प्रतिशत मामलो की जड़ में जर - जोरू - जमीन की फाँस रहती है। मैं इस मानसिकता का घोर विरोधी हँू जिसमेें लोग चाहत पालते है कि उसकी पहली और आखरी संतान बेटा ही हो क्योकि बेटा ही उसके बुढ़ापे का कथित सहारा बनेगा.....? मैने अपने जीवन में ऐसे कई वृद्ध आश्रमो में बेटो के द्वारा लात मार कर - बुरी तरह जलील कर - धक्का मार निकाले गये बापो की पीड़ा को जाना है। इन सभी लडक़ो के बाप का बस यही पाप था कि उन्होने बेटी की जगह पाप की ऐसी पेटी को अपनी छाती से बांध रखा जिसने बाद में अपना असर दिखाया तो वे न तो घर के रहे और न घाट के .......। मैने अपने पिता से एक अच्छी सीख ली जिसके अनुसार उन्होने अपनी पूरी वन विभाग की सरकारी नौकरी के दौरान अपने चार बेटो और दो बेटियों का लालन - पोषण किया करके उन सभी का घर संसार बसाया। बाबू जी ने अपने सगे भाई - बहनो के अलावा नाते - रिश्तेदारो को भी अपने पास पाला पोसा और उनके हाथ पीले किये। हम बाबू जी को अकसर उनकी इस दरियादिली पीडित होकर अनमने से यह कहा करते थे कि उन्होने क्या होटल या रैन बसेरा खोल रखा है....! पर बाबू जी कहा करते थे परोपकार ही सच्चा परमार्थ है। मेरे बाबू जी को पांच पर लकवा का अटेक हुआ लेकिन वे आज भी घुम फिर सकते है। उनकी जुबान थोडी सी तुतलाती है लेकिन वे आज भी अपने नाम के अनुरूप दयाराम की दया को लुटाने में कोई कसर नहीं छोड रहे है। नौकरी से रिटायर होने के बाद भी उन्होने अपनी दिवंगत बहन की बेटी का विवाह करवाया। बाबू जी का बेटियो के प्रति प्रेम ही मुझे आज इस बात की पीडा को दे रहा है कि मेरी बेटी होती तो कितना अच्छा होता। पर हमें भी दुसरो को देख कर यह मन में ख्याल आ जाता है कि क्या बाबूजी आपने भी अपने नाम के अनुरूप दयाराम की दया होटल या सराय यदि नहीं खोल रखी होती तो आज हमारे पास भी बंगला - मोटर कार होती लेकिन बाद मे उस बंगले में चार दिवारे और कार के चार टायरो का बटवारा होता तब क्या होता.....! हालाकि हम अपने बाबू जी को यह कहा करते थे कि आप यदि सब दुसरो को ही बाट दोगो तो अपने बेटो - बेटियो को देने के लिए आपके पास बचेगा क्या.....? आज भले ही हमारे बाबू जी से उपकृत हमारे अपने तथाकथित रिश्तेदार ही हमें इस बात की उलाहना देते है कि तुम्हारे बाप के पास क्या है......? हमारे पास देखो चार - चार गगन चुम्बती इमारते है ....? लेकिन वे इस बात को भूल जाते है कि उनके पास पहनने को कपड़े तक नहीं थे......! बाबू जी के कपड़े पहन कर उन्होने अपनी बदहाली के दिन हमारे घर में काटे थे। आज बाबूजी की उस त्याग तपस्या का यह असर रहा कि हमररी दोनो बहनो को रेल्वे में नौकरी करने वाले दामाद मिले , चारो भाईयो का अपना घर परिवार है। आज भले ही हमारे बाबूजी ने हमारे लिए एक प्लाट तक नहीं लिया। आज हमारे बाबूजी अपने परोपकार की वज़ह से पाँच बार मौत को धता देकर चल फिर रहे है। आज यदि वे भी औरो की तरह खेतीबाड़ी और बैंक बैलेंस - घोड़ा गाड़ी - बंगले - मोटर कार खरीद कर रख लेते तो पता चलता कि हम चारो भाई ही एक - दुसरे के खून के प्यासे हो जाते और माता - पिता की सेवा तो दूर उन्हे भी घर से बाहर का रास्ता दिखा देते। आज भी मालिक की दया कहिये या फिर बाबूजी की अपने नाम के अनुरूप की गई दया का असर वे आज भी अपनी मर्जी के मालिक है किसी एक के पास न रह कर वे अपनी इच्छा के अनुसार चारो भाईयो एवं दोनो बहनो के घर पर आते - जाते रहते है। आज के समय में हम सबसे से अच्छे हमारे बाबूजी है। बेटी के प्रति प्रेम और प्यार बाबू जी से मुझे मिला लेकिन ईश्वर की कथित नाइंसाफी की वज़ह से बेटी को अपने आंगन में खेलते - कुदते देखने की लालसा जीवन के आखरी छोर से बरकरार रहेगी। माँ अकसर कहती है कि बेटा तू चिंता क्यों करता है अपने किसी भाई या बहन की बेटी का कन्यादान कर लेना...... लेकिन फिर भी दर्द तो अपनी जगह पर आज भी कैंसर से भी घातक हो चुका है।
मैने जीवन के लगभग आधे दशक पूरे होने के पूर्व ही कई अनुभवो को महसुस किया है. उसके हिसाब से मैं कह सकता हँू कि समाज में आज भी कोई माने या न माने लेकिन बेटी का बाप होना एक ऐसी पाठशाला है जिससे बहँुत कुछ सीखा जा सकता है. अकड़ - घमंड - मक्कारी जैसे शब्द लडक़े के बापो में ज्यादा होती है क्योकि उन्हे चिंता नहीं रहती कि उसके परिवार का क्या होगा। वह तो सोचता है कि उसने बेटे को पैदा करके सुदंरलाल पटवा सरकार की एम पी लाटरी का एक इनामी टिकट ले लिया है .......! लेकिन टिकट लेने के बाद वह यह क्यो भूल जाता है कि लाटरी के इनाम के चक्कर में कई लोग बेमौत मारे जा चुके है। जहाँ एक ओर यह कहा जाता रहा है कि बेटा तो एक ही कुल का वंश चलाता है। वही दुसरी ओर बेटी के बारे में कहा जाता है कि वह अपने सात कुलो का नाम रोशन करने के साथ - साथ उनके भी वंश का नाम चलाती है। बेटी का बाप होना कोई पाप या अभिश्राप नहीं है। बेटी के बाप को समाज में क्या दर्जा मिलता है उस पर मैं बहस नहीं करना चाहता लेकिन बेटी के बाप और भाई को समाज सलीका सीखाता है कि अपनी बहन - बेटी की तरह दुसरो की भी बहन - बेटियो की इज्जत करना चाहिये. अगर आज हम किसी की बहन - बेटी को बुरी नज़र से देखेगें तो कल कोई हमारी बहन - बेटी पर बुरी नज़र डालेगा ही। बेटी की कमी हर किसी को है लेकिन लोग बेटे के चक्कर में कोख में ही सैकड़ो - हजारो - लाखो बेटियो को मार डालते चले आ रहे है। यदि आप भगवान को मानते है तो फिर श्री गणेश से कुछ तो सबक लीजिए...... भगवान श्री गणेश ने भी अपने दो बेटो शुभ एवं लाभ के लिए माता संतोषी को अपनी पुत्री रूप में अवतरीत किया था। ऐसे में प्रथम पूज्यनीय भगवान श्री गणेश एवं कार्तिकेय महाराज को बहन न होने की पीड़ा सता सकती है....... और जगत माता आदि शक्ति जगदम्बा पार्वती को पुत्री न होने का दर्द......... तब आप लोगो किस खेत के मूली - बैंगन है.......! बेटी के न होने की पीड़ा जो समझ नहीं सका उसकी लाश का अंतिम संस्कार तक नहीं हो सका है। आज भी इस देश ने ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किये है जब बेटियो ने अपने पिता को कंधा ही नहीं दिया बल्कि उनका तर्पण तक किया। आज भी भगवान सूर्य नारायण के पुत्र एवं न्याय के देवता शनिदेव जिसके नाम से पूरी दुनिया कांपती है वे भाई दूज को अपनी छोटी बहन माँ ताप्ती के घर पर आते है। इसी तरह स्वर्ग - नरक के स्वामी भगवान यमराज भी अपनी बहन यमुना के घर जाते है। बहन - बेटी की पीड़ा को यदि इस संसार में कोई समझ सका है तो वे स्वंय भगवान दिवाकर - भास्कर -सूर्य नारायण है जिन्होने अपने तेज से पीड़ित पशु - पक्षी - मानव यहाँ तक कि कीट - पंतगो को तृप्त करने के लिए माँ ताप्ती को धरती पर अवतरीत किया। आज भी देश - दुनिया की कई नदिया सुख जाती है लेकिन माँ ताप्ती में अथाल जल भरा पड़ा हुआ है। ताप्ती का जल न सुख पाने के पीछे एक पिता का पुत्री प्रेम ही नहीं तो क्या है....! बेटी का होना एक सुखद पल है जो जीवन में बार - बार नहीं आता। ऐसे में पुत्रमोह में अपनी पुत्रियो का उसकी जननी की कोख में ही गला दबाने वाली माताये और पिता संभल जाये .....! वे अपनी चाहत के चलते अपनी पत्नि की कोख में ऐसे काले विषधर को तो नहीं पाल रहे है , जिसके बाहर निकलते ही उसके दंश से उनका राम - नाम सत्य हो जायेगा...... । अंत में मैं एक बार फिर उस मालिक से उसकी अपनी गलती को सुधारने का करबद्ध दण्डवत होकर यह आग्रह करते हुये यह प्रार्थना - अर्चना - आराधना - आवेदन - कामना करता हँू कि प्रभु अगले जनम में मोहे बीटिया ही दीजो.......!

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ