रंजीता विश्वकर्मा
दामिनी के बहाने ही सही, भारतीय पुरुष संस्कृति प्रधान देश जागा तो सही। नारी विमर्श के क्षेत्र में शायद यह पहली बार है, जब समूची युवा पीढ़ी खुलकर बिना किसी के उकसाये, स्वतःस्फूर्त आंदोलन करने निकल पड़ी। युवतियों ने परिवार नाम की नियामक संस्था के आदेशों को दरकिनार कर रात के अंधेरे में भी सड़क की राह गह ली। रात-दिन बिना किसी पहरेदार के विरोध का झंडा फहराती रहीं।
लेकिन हैरत होती है, उन शीर्ष महिलाओं पर जो खुद सत्ता और राजनीति के शीर्ष पर आसीन हैं और जिनके इशारे पर ही समूचा भारतीय तंत्र संचालित होता है। सोनिया गांधी, शीला दीक्षित, मायावती, जयललिता, ममता बनर्जी, सुषमा स्वराज, रेणुका चैधरी समेत सैकड़ों माननीया, इस मामले में कितनी खामोश और निष्ठुर रहीं। न तो उन्हें दामिनी की पीड़ा प्रभावित कर पायी और न ही देश की असंख्य बालाओं का स्वर सुनाई दिया।
भारतीय संविधान की तो बात ही नहीं करनी। उसके निर्देशों और सत्ता के व्यवहार में जमीन-आसमान का फासला है। संविधान की मानें तो कानूनन स्त्री-पुरुष में कोई फर्क नहीं है और दोनों को अपनी मर्जी से जिन्दगी जीने की पूरी आजादी है। लेकिन सत्ता द्वारा इस निर्देश का क्रियान्वयन!!! एकदम यक्षप्रश्न। सत्ता ने स्त्री को कभी एक वस्तु से ज्यादा नहीं मानने दिया। उदाहरण के तौर पर हम राष्ट्रपति के बेटे सांसद प्रणब मुखर्जी, कांडा प्रकरण में वहां के मंत्री, गृहमंत्री आदि के बयानों को देखना चाहेंगे। इनके बयानों का ध्वन्यार्थ यदि निकालें तो प्रतीत होगा कि स्त्री कोई मामूली सी चीज हैं और ये नवाबजादे उनके देवता। देवता की मर्जी के अनुरूप ही स्त्रियों को अपनी बात कहने का, अपने जीवन जीने का अधिकार है। अन्यथा वे कुलक्षणा हैं। इन बयानों के उलट भी अनेक महानुभावों के बचाव भी हैं। लेकिन सवाल इससे भी आगे खड़ा है।
बात यह है कि पुरुष पक्ष में हो या विपक्ष में, वह महिला को या तो गुस्से में अपमानित करता है या फिर प्यार से। यानि खेलते दोनों हैं। पुरुषों में वैमनस्य, मनमुटाव और लड़ाई हुई तो स्त्री को आगे कर दिया। वाक्युद्ध हुआ तो निशाना स्त्रियां बनने लगी। दुनिया की हर गाली स्त्रीकेन्द्रित है। क्या कोई गाली पुरुष केन्द्रित भी होती है!! स्त्री लक्ष्य है और पक्ष-विपक्ष के पुरुष अर्जुन। वे लगातार भेद रहे हैंै स्त्री की आत्मा। यह लक्ष्य भेदन प्रतिदिन, प्रतिपल इतनी बार हो रहा है कि स्त्री की आत्मा अब आत्मा से ज्यादा चलनी हो गयी है। इस गुस्सा और पुचकार में स्त्री देह को न पाने या पाने का ही विषय-बिन्दु निहीत रहता है। वह शोषण का केन्द्र स्वतः मानी जा चुकी है। पुरुष आपस में लड़े तो स्त्री से बलात्कार, प्रेम में हार गये तो बलात्कार, पुरुष विवेक खो दे तो बलात्कार, युद्ध हुआ तो बलात्कार, कानून शिथिल हुआ तो बलात्कार, कड़ा हुआ तो बलात्कार! अर्थात् स्त्री माने बलात्कार। बलात्कार की केन्द्र। क्यों? इसलिए कि वह अभी तक पुरुष के प्रति अंध वफादार बन कर रही है। उसने जोखिम उठाने की कोशिश नहीं की। उसने बगावत नहीं किया। उसने पुरुषनिर्मित चारदीवारी को तोड़ने की कोशिश नहीं की। दामिनी हमारे बीच नहीं है, पर सच तो यह है कि वर्तमान की युगप्रवर्तक प्रेरणा है। उसने हमें जगा दिया है। यह बिहान दोपहरी तक नहीं पहुंची तो शायद हम उसकी कुर्बानी को कभी नमन करने के अधिकारी नहीं हो सकेंगी।
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