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शीर्षक- औरत
बारहा सहती है वो
ज़ुल्म-ओ-सितम हजारों
मगर सब्र उसका टूट कर
बिखरता नहीं कभी
घटायें गम की
जब चेहरे पे छा जायें
जब उदासियों के
बादल घिर आयें
आँसू जब भी
बरसने लग जायें
तो ज़ब्त कर लेती है
अपने दामन में उन्हें
नहीं दिखती
उसकी आँखों में
कहीं ज़रा सी भी नमी
ताकि महसूस न हो
किसी को बेबसी उसकी
समेट कर सारा
दर्द-ओ-गम
अपने आँचल में
सजा लेती है होठों पे
इक फीकी हँसी
और मंद-मंद मुस्कराती है
औरत ज़िन्दगी को यूँ ही
हर रोज बसर किये जाती है!
रश्मि विभा त्रिपाठी
बाह, जिला- आगरा, उत्तर प्रदेश
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