Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

बन्द पिंजरे में

 

Rashmi Vibha tripathi 

2:58 PM (3 hours ago)




to me 

बन्द पिंजरे में

वो बेतहाशा घबराई
साँस हर लम्हे में
हजारों मर्तबा छटपटाई
हर पल
इसी उम्मीद में जीती रही
कि कभी तो
यक़ीनन रिहाई मिलेगी
ज्यूँ ही आहट हुई
लगा कि खोलने आया है
कोई जंजीर पाँव से
अब कोई
इस कैद से बाहर निकालेगा
मगर आहटें सुनते सुनते
उम्र बीत गयी सलाखों में
आख़िरकार इक दिन
दम तोड़ दिया ख़्वाहिशों ने
फ़िर
कुछ देर बाद
खोला गया वही दरवाज़ा
कि जिसके खुलने की आस
मुंजमिद निगाहों को हर पल रही
अफसोस
अब उन आँखों की दस्तरस से
बहुत दूर जा चुकी है आजादी
पाँव जंजीरों में जकड़े हुए
उस चौखट की
ज़ानिब बढ़ नहीं सकते
गुलामी की दहलीज
अब पार कर नहीं सकते
वो हसरत
रिहाई की पूरी न हो सकी
ज़िन्दगी
कभी आजाद
जीते जी न हो सकी
दो गज़ ज़मीं में दफ़न हो गया
इक अरमान खुल के जीने का!

रश्मि विभा त्रिपाठी
आगरा, उत्तर प्रदेश 


Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ