मै चाहूँ क्यों तुम्हें श्री कहना ?
जबकी मै जान चुका हूँ ,
तुम रूप बदलकर ,
कहीं और प्रारब्ध पा चुकी हो |
किसी और की शंख नाद मे ,
नीरव ध्वनी बन,
खुद को समेट ,
विलीन हो चुकी हो|
फिर भी उस उल्लाष को,
अनसुना कर ,
अपनी टूटी वीणा से,
तुम्हें,
रव रूप देना चाहता हूँ|
और चाहता हूँ,
उस संगीत को सिर्फ मै सुनू,
अनंत कल तक |
अनवरत अपनी पुर्णिमा को ,
राकापति बन,
अनिमेष निहारू|||
रवि कुमार चमन
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