कभी सारण्डा के जंगलों में बीच दोपहर में भी सूरज की रौशनी जमीन तक नहीं पहुँच पाती थी। परंतु आज माघे पूर्णिमा का चाँद वृक्षों के बीच से साफ दिखाई दे रहा है। चाँद की चाँदनी सारंडा की सर ज़मीं पर चारों तरफ बिखरी हुई है। सौ जंगलों का एक जंगल सारंडा, आज अकेला हो गया है। कहते हैं हाल के वर्षों में करीब एक हजार हेक्टेयर का जंगल सारंडा के शरीर से काट कर अलग कर दिया गया है। अब तो यों लगता है जैसे सारण्डा का यह हिस्सा विधवा की माँग की तरह सूना, श्मशान की तरह भयानक और मरुस्थल सा विरान है। इसके बाकी हिस्सों पर जो हरियाली है, उस पर लाल रंग ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है। अब शेरों की दहाड़ की जगह जंगल के सन्नाटे में गूंजती है धमाकों की आवाज। दम तोड़ कर जमीन पर गिरते हंै आदिमानव के वंशज। बारूद की गन्ध ने सारंडा के वायुमंडल में अपना अहम स्थान बना लिया है। अब तो सारंडा के वृक्षों ने भी बारूद की गंध के साथ जीना सीख लिया है।
परंतु पाँच साल बाद दामुदा को सारंडा में जीना किसी कारावास में जीने जैसा लगता है। उसका मन बार-बार उससे कहता है, सारंडा एक कारावास है और इस कारावास से न तो कोई रास्ता हमारे गाँव तक जाता है और न ही उलगुलान के उत्कर्ष की तरफ जाता है। बस हम कोल्हु के बैल की तरह सारंडा के जंगल में गोल-गोल घूम रहे हैं। जल जंगल जमीन की समस्या हमारे सामने अनाथ बच्चों सी बैठी टुकर-टुकर देख रही है। हम सभी तमाशा देख रहे हैं, या तमाशा कर रहे हैं। उलगुलान का तमाशा, हमारे प्रजातंत्र का तमाशा, हमारे सरकारी या गैर सरकारी योजनाओं का तमाशा... अपने विचारों में उलझा दामुदा गहरी सांस छोड़ते हुए चाँद पर से अपनी नजरें हटा कर अपनी चारों ओर गिद्ध दृष्टि से देखता है।
माघे पूर्णिमा की आधी रात में उसके लाल साथी अपने-अपने टेंट में कम्बल के भीतर दुबके हुए हैं। उनके कई साथियों के खर्राटों की सामुहिक ध्वनि से जंगल का मौन लगातार भंग हो रहा है। दामुदा आज रात का प्रहरी है और माघे पूर्णिमा के चाँद के साथ वह अकेला जाग रहा है। बिल्कुल चाॅक-चैबन्द। ज़रा सी ध्वनि हुई नहीं, दामुदा के हाथ गन पर कस जाते हैं और फायर करने को तैयार हो जाता है। लेकिन इस नीरव रात में कहीं कुछ नहीं है। दामु दा पुनः अपने विचारों में खो जाता है। वह चलकर सामने के चट्टान पर बैठना ही चाहता था कि तभी उसने देखा- बायें तरफ वाली टेंट से एक साया चोरों की तरह निकलकर उसकी तरफ धीरे-धीरे बिना कोई आवाज किये बढ़ रहा है। दामु दा के दिल की धड़कन तेज हो गई। ठंड में भी उसका गला सूखने लगा। शरीर में बिजली सी सरसराहट होने लगी। दामु दा समझ चुका था, यह कोई और नहीं उसकी निर्मला है। जो आधी रात तक उससे मिलने के लिए जागती रही होगी। तभी निर्मला दामु दा के करीब आ गई और दामुदा के सीने से लग गई। दामु दा को ऐसा लगा कि उसकी सांसों में, रंगों में महुआ की पहली धार तेजी से उतरती चली गई है..... पल भर में ही दामु दा अपनी निर्मला में डूब चुका था। दो शरीर, दो मन और दो आत्मा माघे पूर्णिमा की इस रात सारंडा के जंगल में एक होकर धड़कने लगे थे। समय के पार, उलगुलान की आग से कोसों दूर यह लम्हा जो एक होकर उन दोनों के बीच ठहर गया था, उसमें सिर्फ चाहत थी, उन दोनों की चाहत, दो इन्सानों की चाहत। जिस लम्हे के हृदय में प्रेम अपना पंख पसार चुका था और दिमाग से लाल रंग विदा ले चुका था। अद्भुत पल थे, हाथ में बन्दूक, जंगल का सन्नाटा, चांदनी रात, हृदय में चहकता प्रेम का पंक्षी जो सारंडा के जंगल से उड़ कर दूर निकल जाना चाहता था। इस भयानक और हिंसात्मक संसार से दूर एक ऐसे समाज में, जिसका सपना कभी हमारे धरती आबा बिरसा मुंडा ने देखा था। जल, जंगल, जमीन, जोरू के साथ सम्मानपूर्वक जीना। अपने को जल, जंगल, जमीन का हिस्सा मान कर जीना। सम्पूर्ण प्रकृति के साथ प्रकृतिमित्र बन कर जीना। प्रकृति का सिर्फ दोहन करने वाले शोषणकत्र्ता बन कर जीना बिरसा मुंडा की दृष्टि में अपराध था।
दामु मैं तुम्हारे और प्रकृति के साथ अपनी पूरी जिन्दगी प्यार से जीना चाहती हूँ... बोलो क्या तुम मेरा साथ दोगे ? निर्मला दामुदा के सीने से सिर उठा कर उसके कान में धीरे से फुसफुसाई। निर्मला की प्यार भरी फुसफुसाहट सुन दामुदा ने अपनी आंखें खोल चांद की रौशनी में निर्मला की साँवली सलोनी सूरत को देखा। निर्मला का चेहरा अपनी लावण्यता के साथ दमक रहा था, उसकी आंखों में दामु दा के लिए भावनाएँ उफान मार रही थीं। उसके होठों पर बस एक ही प्रश्न आ कर ठहर सा गया था.... बताओ दामुदा तुम मेरा साथ मरते दम तक दोगे न? बताओ हमारी भावना, हमारे सपनों को उड़ने और विस्तार पाने के लिए मुक्त आकाश मिलेगा न? हम इस सारंडा रूपी जंगल के कारावास से बाहर निकल पायेंगे न? या हमारी जिन्दगी इस सारंडा के जंगल में ही दम तोड़ देगी ? और इसके साथ ही सब कुछ खत्म हो जायेगा, सारंडा के जमीन में दफन हो जायेगा।
तभी दामुदा निर्मला के कान में फुसफुसाया.... निम्मो तुम जानती हो, संगठन के सामने अपने प्यार का इज़हार करना, यानि नसबन्दी, हमारी सपने, हमारे विचारों की नसबन्दी, हमारे भविष्य, हमारी स्वातंत्रता की नसबन्दी। हमारे शरीर, हमारी कोमल भावनाओं की नसबन्दी। इसके बाद हम प्रेमी तो रहेंगे, परंतु बांझ प्रेमी बन कर जीना होगा हमें.... जिसकी जमीन बंजर होगी और आसमान बादलों से सुनसान होगा। निम्मो संगठन को बोझा ढोने वाले बैल चाहिए..... हम जैसे प्रेमी संगठन के लिए बोझ बन जाते हैं। उन्हें तो उनके आदेश पर चलने वाले यंत्र मानव चाहिए, इसलिए संगठन में प्रेम को नहीं सिर्फ वासना को स्वीकार किया जाता है। फिर पते की बात यह भी है कि संगठन में सभी अगर प्रेम करने लगेंगे तो संगठन का काम कैसे चलेगा? तब हो चुका उलगुलान। सवाल यह है दामू कि नसबन्दी के बाहर, इस भयानक जंगल से दूर हमारी जिन्दगी है या नहीं...... अगर जिन्दगी है तो क्या हम इस भयानक जंगल से निकलने का साहस रखते हैं। वापस अपनी पुरानी जिन्दगी में जीने का हौसला रखते हैं... निम्मो मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं अपने प्यार का साथ दूँ या अपने उलगुलान का, अगर मैं यहाँ से जाता हूँ, तो फिर इस उलगुलान का क्या होगा? ...हो चुका उल्गुलान तुम भी इस बात को समझ रहे हो और मैं भी समझ रही हूँ। तुम्हीं कहते थे न कि बिना व्यापक जन समर्थन के कोई भी उलगुलान सफल नहीं हो सकता। तुम्हीं बताओ हम मुट्ठी भर लोगों को आम जन समूह का कितना समर्थन प्राप्त है। दामू! आम लोग हमलोगों से घृणा करते हैं। हमें लेवी लेने वाला गुण्डा समझते हैं..... विकास की राह में हमें सबसे बड़ा रोड़ा मानते हैं। जब हममें से कोई पुलिस की गोली खाकर मारता है तो आम आदमी हमारी मौत के लिए कोई जुलूस नहीं निकलता, श्रद्धांजलि या शोक सभा नहीं करता। उल्टे खुशियाँ मानाता है। चलो धरती का बोझ थोड़ा हल्का हो गया। क्या यही नहीं है हमारा जन समर्थन, जिसके बल पर हम अपने जमीन पर उलगुलान कर रहे हैं?
इतना बोल कर निर्मला दामुदा के सीने से अलग हो गई। सर्द चांदनी रात में दो साये आस-पास खड़े अपनी जिन्दगी की उलझनों में उलझे हुए थे। उनके चारों ओर ऊँचे ऊँचे साल वृक्ष इन दोनों को खामोशी से देख रहे थे। आसमान में बड़ा सा चांद भी इनको देख कर मंद-मंद मुस्कुरा रहा था और मन ही मन अपने आप से बोल रहा था- प्रेम हो जाना अपने आप में उलगुलान है। अब बदलाव निश्चित है। प्रेम से ही हृदय परिवर्तित होगा, हिंसा से नहीं।
‘‘तो क्या तुम्हारा मतलब है कि हमें वापस लौट जाना चाहिए?’’ दामुदा निर्मला के करीब जाकर धीरे से फुसफुसाया।
हाँ दामू हमें वापस लौट जाना चाहिए। हमारा भविष्य सारंडा के जंगल में नहीं, झारखण्ड के खेत, खलिहान, हाट, गांव में है। नदी, तलाब और झरनों में है। हमें इनको विकसित करना है, सुरक्षित करना है। हमारे प्राकृतिक संसाधन ही हमारी सबसे बड़ी पूँजी हंै। हमें अपने पूँजी का दोहन नहीं, विकास करना है।
अगर वहीं वापस लौटना है तो वहां से भाग कर हम सारंडा के जंगल में क्यों आ गये थे ? क्या वापस लौट जाने पर हमारा शोषण उसी तरह नहीं होगा, जिस तरह पहले हुआ करता था। आखिर इस उलगुलान का क्या मतलब रह जायेगा ? हम तो जहां पहले खड़े थे... वहीं पांच साल बाद अपने आप को खड़ा देखेंगे.... वही भय, भूख भ्रष्टाचार के बीच अपने को चारा बना कर खड़े रहना। न कुछ बोलना, न कुछ देखना, न कुछ सुनना.... बस गाँधी जी के तीन बन्दरों की तरह जीना...... नहीं निर्मला नहीं। यह नहीं हो सकता। सारंडा के जंगल में जो एक बार आ जाता है वो सारंडा के जंगल के बाहर चाह कर भी नहीं जा सकता, हमें यहीं जीना है, इस जंगल में अंधकार बन कर। रौशनी के लिए लड़ना है। सारंडा हमारे लिए एक कारावास है, जिसे हमने खुद चुना है। तुम चाहो तो इस कारावास से वापस लौट जाओ.... मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगा।
इतना बोलकर दामुदा अपनी उखड़ी हुई सांसे सहज करने लगा। निर्मला एकटक दामुदा को देख रही थी, उसके भीतर उफान मार रहे द्वंद के सागर को देख रही थी, उसका वश चले तो वह अभी दामुदा को लेकर सारंडा के जंगल से दूर चली जाये। वह जानती थी कि दामुदा वापस जाना चाहता है, पर वह व्यवस्था पर विश्वास नहीं कर पा रहा है। उसे भरोसा है एक दिन वह जरूर विश्वास करेगा और उस दिन वह अपने दामुदा के साथ वापस अपने खेत, खलिहान, गांव लौट जायेगी..... उस दिन जिन्दगी धारा के विपरीत नहीं, धारा के संग-संग बहेगी। सारंडा का कारावास खत्म हो जायेगा। इन दोनों की बातों में रात गुजर चुकी थी, सारंडा के जंगल से चांद अदृश्य हो रहा था। पौ फटने वाली थी।
निर्मला दामुदा के करीब आ गई। उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। हौले से खींचकर उसे घाटी के पास ले आई। सामने दूर दूर तक फैले जंगल के समुद्र के पार क्षितिज पर पहाड़ों की शृंखला दिखने लगी थी। निम्मो ने दामू के कंधे पर सिर रख दिया और उसके चेहरे को पूरब की ओर घुमा दिया। दामू ने देखा सूरज निकलने ही वाला था।
रविकांत मिश्रा
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