Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मां का आंचल-

 

बचपन में तेरे आंचल में सोया,
लोरी सुनाई जब भी रोया।
चलता था घुटनो पर जब,
बजती थी तेरी ताली तब।
हल्की सी आवाज पर मेरी,
न्योछावर कर देती थी खुशी।
चलने की कोशिश में गिरा।
जब पैर अपनी खड़ा हुआ।
झट से उठाकर सीने से लगाना,
हाथों से अपने खाना खिलाना
हाथ दिखाकर पास बुलाना,
आंख मिचौली खेल खिलाना।
फरमाहिश पूरी की मेरी,
ख्वाहिशों का गला घोट करके
जिद को मेरी किया है पूरा,
पिता से बगावत करके।
जिंदगी की उलझन में मां,
तुझसे तो मैं दूर हुआ
पास आने को चाहूं कितना,
ये दिल कितना मजबूर हुआ।
याद में तेरी तड़प रहा हूं,
तेरा आंचल मांग रहा हूं।
नींद नही है आती मुझको,
लोरी सुनना चाह रहा हूं।
गलती करता था जब कोई
पापा से मैं पिटता था
आंचल का कोना पकड़कर,
तेरे पीछे मैं छ्पिता था।
अदा नही कर पाऊंगा मैं,
तेरे दिए इस कर्ज को,
निभाऊंगा लेकिन इतना मैं,
बेटे के तो हर फर्ज को।
तुझसे बिछड़कर लगता है,
भीड़ मे तनहा हूं खोया,
बचपन में तेरे आंचल में सोया,
लोरी सुनाई जब भी रोया।
बहुत सताया है मैने तुझको,
नन्हा सा था जब शैतान
तेरी हर सफलता के पीछे,
तेरा जुड़ा हुआ है नाम।
गर्व से करता हूं मैं तो,
संसार की सारी मांओं को सलाम।

 

 


रवि विनोद श्रीवास्तव

 

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