खरखाई नदी के किनारे बसा मेरा गांव कुलुपटांगा, जहां एक मिट्टी खपरैल के घर में मेरा जन्म हुआ था। होष सम्भालते ही मैंने अपने आपको रंग बिरंगे मुखौटो के बीच खेलते देखा था।उन मुखौटो से मैं बातें करती थी। उसे अपने सिर पर उठा कर घर में इधर - उधर भागती थी। मुखौटा मेरे लिए खिलौना भी था और मेरे बचपन का साथी भी। बाबा और मां मुखौटा बनाने का काम करते थे। बाबा और मां के बनाये मुखौटे छऊ नृत्य करने वाले आकर ले जाते थे, बदले में बाबा के हाथ कुछ रूपये रख जाते थे। बाबा के बनाये मुखौटे हमारे घर के दिवार पर इस तरह टंगे रहते की कभी-कभी ऐसा लगता कि हमारे घर की दिवार मुखौटो की दिवार है, घर के भीतर चारों तरफ मुखौटे ही मुखौटे, इन मुखौटे में जानवर, देवता और मनुष्य के मुखौटे थे। मेरा बचपन इन मुखौटो के बीच पल रहा था, बढ़ रहा था। तभी मेरे भाई का जन्म हुआ, रात जब उसके रोने की आवाज मेरे कानों में पड़ी तब मैं गहरी नींद में सो रही थी, उसके जोर-जोर से रोनेे के कारण मेरी नींद खुल गई थी। मैं अलसाई आंखों से खाट पर उठ बैठी। सामने दरवाजे पर बाबा बैठे लम्बी सी बीड़ी पी रहे थे, दूसरे कमरे से बच्चे के रोने की आवाज लागातार आ रही थी। मैंने अपनी तोतली जुबान से बाबा से पूछा- बाबा यह कौन लो रहा है? बाबा बीड़ी का धुआं मुंह से बाहर फेंकते हुए बोले- ओते तुम्हारा भाई आया है। अब तुम्हे उसे खिलाना है, उसके साथ खेलना है । इतना सुन मैं तेजी से खाट से नीचे उतर गई थी ... और अपने भाई को देखने के लिए तेजी से उस कमरे के भीतर भागी, जहां गांव की औरतें जोर-जोर से हंस की बातें कर रही थी। मैं जब उस कमरे के भीतर पहुंची तो देखी मेरा भाई खाट में मां के बगल में सोया हुआ दूध पी रहा था... गांव की औरतों में से एक औरत दाईमनी मुझे गोद में उठाकर बोली- ओते देख तेरा भाई आया, बिल्कुल तेरे जैसा नहीं है, बिल्कुल अपनी मां पर गया है। तु तो अपने बाबा पर गई है। अब तु अकेले मुखौटो से नहीं खेल पायेगी, अब तेरा भाई भी मुखौटो से खेलेगा। मेरा मासूम भाई खाट पर किसी देवता की तरह सो रहा था। उसका चेहरा देवता वाले मुखौटो से बहुत मिलता जुलता था। मैंने झट से दिवार पर नजर डाली तो सामने एक कतार से देवता के मुखौटे लगे हुए थे। मैं तोतली जुबान में बोली - इसका चेहला तो उस देवता वाले मुखौटे से मिलता है। इस पर गांव की औरते खिल-खिलाकर हंसने लगी थी... दाईमनी मेरा माथा चुमते हुए बोली- हां ओते, तेरा भाई देवता जैसा ही है, पर तुझे इसकी देख-भाल करनी होगीं करेगी न देखभाल अपने भाई की ? मैंने सहमति से सिर हिला दी थी। एक वो रात थी आज से चैबीस साल पहले ... और आज एक रात है, बहुत कुछ बदल चुका है। घर की दिवारे खाली है, एक भी मुखौटा नहीं है। बाबा की आंखे देखना बन्द कर दी, मां इस दुनियां से चली गई। पांच वर्षाें से बाबा ने कोई मुखौटा नहीं बनाया, रिामिल मेरा भाई एक रात जंगल की तरफ भागा तो फिर वापस नहीं आया ... बाबा घर पर अकेले रहते, पड़ोस की काकी बाबा का खाना बना देती थी। मैं साल में एक बार गांव लौटती तो यह खरखाई नदी, यह पहाड़, बांस के जंगल, यह सागवान के पेड़, यह पुटुस की झाड़ी, यह पलास के फूल, यह तलाब में तैरते हंस के जोड़े सभी मुझसे यह सवाल पूछते- तुम हमारे पास आकर बार-बार क्यों वापस चली जाती हो? अब बाबा के पास रहो .... हमारे साथ रहो... अपने जल, जंगल जमीन के साथ रहो, और इस बार कुछ ऐसा ही हुआ, मैं हमेषा के लिए वापस चली आई। भूदेव दा के घर से हमेषा के लिए वापस, मेरे वापस आने में मेरी इच्छा थी। जबकि भूदेव दा चाहते थे कि मैं उसकी पत्नी मानसी और बेटा आषिष के साथ अमेरिका चलूं पर अपने बाबा को छोड़कर सात समुद्र पार जाना मेरे लिए सम्भव नहीं था। मुझे वह दिन एकबार फिर याद आ गया जब मैं पहली बार भूदेव दा के साथ अपने गांव छोड़कर कोलकोत्ता रहने जा रही थी। हुआ यूं कि भूूदेव दा हमारे गांव फोटोग्राफी करने आये थे, गांव का मुखिया चन्दू सोरेन भूदेव दा का दोस्त था। चन्दू सोरेन भूदेव दा को लेकर हमारे घर पर आया था। वे बरसात के दिन थे, बाबा का काम बिल्कुल बन्द था। भूदेव दा ने बाबा के बनाये मुखौटो की तस्वीर ली और बदले में बाबा के हाथ कुछ रूपये रख दिये, बाबा भूदेव दा से रूपये लेकर हाथ जोड़ दिये, तभी मैं और मेरा भाई रिमिल घर के भीतर से मुखौटो लगाये भागते हुए बाहर निकले। मैं मां दुर्गा का मुखौटा लगाये तेजी से आगे भाग रही थी। मेरे पीछे भैंसासुर का मुखौटा लगाये रिमिल भाग रहा था, हम दोनो शोर मचाते हुए घर के आंगन में आ गये जहां भूदेव दा बाबा और चन्दू काका के साथ खड़े थे। हमदोनों भाई-बहन छऊ नृत्य के कलाकार की तरह नाचने की नकल करने लगे। यह देख भूदेव दा फटाफट हमारी तस्वीर खीचने लगे। हमदोनों अपने खेल में मस्त थे। हमें इस बात की कोई जानकारी नहीं हुई कि भूदेव दा हमारे बचपन को हमेषा के लिए अपने कैमरे में कैद कर चुके हैं। कुछ पल तक भूदेव दा हमदोनों भाई-बहन को चुपचाप खड़े देखते रहे फिर चन्दू काका से बोले- इन बच्चों से मैं बात करना चाहता हूं, तुम अपनी भाषा में इनसे कहो कि यह थोड़ी देर के लिए खेलना बन्द करे.... चन्दू काका ने हमदोनों से ऐसा ही कहा। हमदोनों खेलना छोड़कर अपनी जगह रूक गये परंतु अभी भी हमारे चेहरे पर मुखौटे लगे हुए थे। तभी बाबा की आवाज हमें सुनाई दी। ओते रिमिल मुखौटा उतारो ... देखो तुम दोनों से बात करने कौन आये हैं? हमदोनों ने मुखौटे उतार लिए तो अपने सामने भूदेव दा को खड़ा पाया, जीन्स के पैंट और सफेद खादी के कुरते पहने आंखों पर चष्मा लगाए गले में कैमरा, कन्धों पर चमड़ा वाला बैग लटक रहा था। एक भारी भरकम चेहरे वाला व्यक्ति हमारे सामने खड़ा था। रिमिल को भूदेव दा कुछ ज्यादा अच्छा नहीं लगे क्योंकि उनके कारण हमारा खेल बीच में ही रूक गया था। वह थोड़ा गुस्से से भूदेव दा को देख रहा था। परंतु मुझे भूदेव दा महावीर कर्ण के मुखौटे जैसे लगे। बड़ी-बड़ी आंखे, लम्बा-चैड़ा शरीर और चेहरों पर बच्चों जैसी मुस्कुराहट, तभी भूदेव दा ने हम दोनों को पास बुलाया और जेब से अंग्रेजी टाॅफी निकालकर दी जो हमारे गांव की दुकान में नहीं मिलता था। हमदोनों लम्बी सी रेलगाड़ी वाली चाॅकलेट कई दिनों तक तोड़-तोड़ कर खाये और कई दिनों तक इसके रैपर को सम्भाल कर रखा। गांव के कई बच्चों ने उस चाॅकलेट के रैपर को छुकर और सुंघकर अपना जीवन धन्य कर लिया। करीब दस दिनों बाद भूदेव दा फिर वापस चन्दू काका के साथ आये, हमदोनों को वही चाॅकलेट दिये ... मेरे सिर पर हाथ रख कर बड़े प्यार से पूछे - अपनीे तस्वीर देखोगी. हमदोनों भाई-बहन झट अपनी तस्वीर देखने को राजी हो गये । तब भूदेव दा ने अपने बैग से एक लिफाफा निकाल कर उसमें से हमारी भैसासुर और दुर्गा मां वाली कुछ तस्वीर निकाली, जिसे देखकर हम बहुत हंसे, हमारी हंसी में भूदेव दा भी शामिल हो गये। फिर कुछ पल बाद हमें तस्वीर देकर बाबा के पास बरगद पेड़ के नीचे चले गये। बाबा बरगद पेड़ के नीचे चन्दू काका से बीड़ी पीते हुए कुछ बातें कर रहे थे। थोड़ी देर बाद बाबा बरगद पेड़ के नीचे से उठकर घर के भीतर आये और मां से अकेले में कुछ बातें की जिसे सुनकर मां रोने लगी। परंतु बाबा धीरे-धीरे मां को कुछ समझाने की कोषिष करते रहे। मैं घर के दरवाजे पर खड़ी यह सबकुछ देख रही थी। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। इधर मां का रोना धीरे-धीरे बन्द हो गया। वह एकटक मेरी तरफ देखने लगी। मां का अपनी तरफ एकटक देखना, मुझे अजीब-सा लग रहा था। आज तक मां मेरी तरफ एकटकी बांधकर नहीं देखी थी। वह शाम एक तरफ सूरज हमारे गांव के पहाड़ के पीछे छुप रहा था, दूसरी तरफ मेरी जिन्दगी में एक नया सूरज उगने की तैयारी कर रहा था। मुझे बताया गया कि बाबा ने भूदेव दा की बीमार पत्नी के लिए मुझे उनके साथ जाने को कहा है। कुछ महीनों की बात है पत्नी जब ठीक जायेगी तब ओते को भूदेव दा वापस गांव पहुंचा देंगे। इस काम के लिए भूदेव दा ने बाबा को दो हजार रूपये हर महीने देने का वादा किया है। बरसात के दिन अभी खत्म हुए थे घर की तंगी से मैं भी भलीभांति परिचित थी पिछले एक महीने से हमारे घर में दाल नहीं बनी थी। हम बगान से साग और सरकारी स्टोर से मिलने वाली चावल ही खा रहे थे। इस बीच हम भगवान सिंगवोगा से प्रार्थना करते रहते कि हमारे घर को बीमारी से दूर रखना। नही ंतो हम अपना इलाज नहीं करवा सकते थे। दूसरे दिन सुबह आंगन में, मां और रिमिल फफक-फफक कर रो रहे थे। रिमिल जमीन पर बैठा अपना सिर घुटने के नीचे छुपाये रोये जा रहा था। मां एक तरफ अपना आंचल मुंह में दबाये धीरे-धीरे सिसक रही थी। बाबा पत्थर की मूर्ति की तरह जड़ भूदेव दा के सामने खड़े थे। मैं अपने टीन के बक्से के साथ आंगन में सिर झुकाये खड़ी आंगन की कच्ची जमीन को पैर के अंगुठे से कुरेद रही थी। रिमिल का रोना, मां का सिसकना और बाबा की चुप्पी सबकुछ मेरे भीतर गूंजने लगे। मेरी आंखों में खारे पानी तैरने लगा, और दूसरे ही पल आंखो से आंसू टप-टप कर कच्ची जमीन पर गिरने लगे। मेरी जमीन पर आज मेरे आंसू मिल गये थे। जिस जमीन पर मैंने अपना बचपन देखा था आज उसी जमीन से मैं दूर जा रही थी। अपने जल, जंगल, जमीन से दूर अपने मां, बाबा और भाई से दूर। थोड़ी देर में यह सबकुछ.....! यह विचार मन में आते ही मैं रोते हुए चीखी .... मां... और दौड़कर मां से लिपट गई। मां भी मुझे सीने से लगा ली और रोने लगी। परंतु रोने से समस्या बदल नहीं सकती थी। समस्या तो अपनी जगह पर खड़ी होकर हमारे तरफ बिना पलक झपकाये देख रही थी। आखिर रोते-रोते मैं अपने घर से विदा हुई। भूदेव दा बड़े प्यार से मेरे सिर पर हाथ रखे, भाई रिमिल जिद करने लगा कि उसे भी ओते के साथ ले चलो, परंतु बाबा ने रिमिल को समझाया, दीदी पढ़ने जा रही है। बहुत जल्द वापस आ जायेगी तब तुम पढ़ने जाना। रिमिल रोता रहा जब गांव की कच्ची सड़क पर बस आई उसमें भूदेवदा के साथ मैं चढ़ गई। तभी रिमिल बाबा की गोद से नीचे उतर गया। तब बस आगे बढ़ गई रिमिल बस के पीछे-पीछे ओते.... ओते चीखते हुए भाग रहा था। मैं बस के पीछे लगी खिड़की से अपने भाई को अपनी तरफ भागता देख रही थी। धीरे-धीरे मेरा भाई सड़क की धूल में अदृष्य हो गया। मेरी आंखो से मेरा गांव पल-पल दूर होता जा रहा था, मेरे कान में अब भी ओते-ओते की आवाज गूंज रही थी। रिमिल मां बाबा का चेहरा बार-बार मेरी आंखो के सामने घुम रहा था। भूदेव दा खामोषी से मेरे बगल में बैठे थे। शायद उनको भी यह सबकुछ अच्छा नहीं लग रहा था। मैं धीरे से आंख उठा कर देखी तो भूदेव दा अपना चष्मा साफ करते हुए दिखे। उनकी आंखे लाल हो गई थी। पूरे रास्ते हमदोनों खामोष रहे। बस तेजी से सड़क पर भागती रही। डरी हुई सहमी हुई हिरण की तरह मैं जब कोलकत्ता भूदेव दा के घर पहंुची तो मुझे मानसी भूदेवदा की पत्नी ने प्यार भरी नजरों से देखा और अपने पास बुलाया, मैं धीरे-धीरे उनके पास गई वह चक्के वाली कुर्सी पर बैठी थी। उसके पीछे एक गोरा लड़का खड़ा था जो कुर्सी को पीछे से धक्का लगाकर कमरे में लाया था। मानसी काकी मेरे सिर पर हाथ रखते हुए बोली बेटी यह कोलकात्ता है यह तुम्हारा जंगल नहीं है और न ही घर के पास नदी बहती है. .. तुम्हे अपना मन लगाना होगा। यह मेरा बेटा आषिष है। आषिष मुझे देख कर मुस्कुरा दिया था। परंतु मैं चुपचाप रही। न जाने क्यों यह मोटा गोरा बंगाली लड़का मुझे पागल सा लगा जो इतना बड़ा होकर भी मां के हाथ से खाना खाता था और बात-बात पर मां से झगड़ा करता था। मां उसे दिन में पांच - छः बार मनाती रहती। पर आषिष अपनी जिद पर अड़ा रहता। जब तक उसका गुस्सा शांत नहीं होता तब तक वह चुपचाप रहता किसी से बात नहीं करता। पर आषिष न जाने क्यों मुझसे बातें करता। अपनी मां के बारे में पूछता मम्मी ने दवा खाई, खाना खाया। मम्मी को जूस पिलाया, क्या तुमने खाना खाया, तुम्हे अगर चाॅकलेट चाहिये तो मेरे टेवल पर रखी है ले लो। मैं चाॅकलेट जब चाहे आषिष के टेवल से ले लेती, यह देख आषिष हमेषा मुझे देख मुस्कुरा देता और बोलता तुम तो चाॅकलेट बच्चों की तरह खाती हो चुस-चुस कर। देखो चाॅकलेट बड़ो की तरह खाओ जैसे मेरे पापा खाते हैं। रैपर खोला, मुंह में डाला चबाया और पेट के भीतर। आषिष भूदेव दा की नकल करते हुए चाॅकलेट खा लेता। दिन - रात इसी तरह गुजरते गये, मैं जब भी अकेली होती मां, बाबा रिमिल की यादें आने लगती। अपने घर की दिवारों पर जो रंग-बिरंगे मुखौटे लगे हुए हैं कभी-कभी उसके सपने मुझे आते कि सभी देवता वाले मुखौटे जानवर के मुखौटे में बदल गये है और देखते-देखते सभी जानवर वाले मुखौटे जंगल में तेजी से भाग रहे हैं। बस मेरी आंखें खुल जाती। फिर मैं रात भर सोचती आखिर इस सपने का मतलब क्या है? पर बहुत सोचने के बाद मेरी समझ में कुछ नहीं आता। तब एक दिन दोपहर को मैंने अपने सपने के बारे में टूटी-फूटी बंगला भाषा में आषिष को बताया। जिसे सुनकर आषिष किसी बूढे़ व्यक्ति की तरह चेहरे पर गम्भीरता के भाव लाते हुए बोला- तुम सपना आदिवासी भाषा में देखती हो, इसलिए मुझे पहले आदिवासी भाषा सीखनी होगी। तब मैं तुम्हारे सपने का मतलब बता पाऊंगा। चलो तुम मुझे आदिवासी भाषा बोलना सिखाओ मैं तुम्हे बंगला भाषा बोलना सीखाऊंगा और यहां से सीखने-सीखाने का किस्सा शुरु हो गया। हर दोपहर को आषिष स्कूल से आकर खाना खाता फिर आदिवासी भाषा की किताब और बंगला भाषा की किताब लेकर मेरे साथ बैठ जाता। उस समय मानसी काकी बिस्तर पर सो रही होती। इस तरह मैंने बंगला भाषाा सीखी और आषिष आदिवासी भाषा सीख गया। करीब छः महीने बाद मैं आषिष से बंगला में बोलती और आषिष मुझ से आदिवासी भाषा में बातें करता। हमदोनों की बहुत अच्छी दोस्ती हो गई थी। भूदेव दा मानसी काकी और आषिष ने मुझे बहुत प्यार दिया अपना समझ कर मेरी हर छोटी -छोटी बातों का ख्याल रखा... मुझे कमी यह एहसास नहीं हुआ कि मैं दूर गांव से कोलकोत्ता लाई गई हूं। भूदेव दा जो कपड़े, चाॅकलेट आषिष के लिए लाते वह मेरे लिए लाते। हमदोनों साथ-साथ दुर्गा पूजा घूमने जाते। दुर्गा मां को देख मुझे रिमिल और अपनी लड़ाई की याद आ जाती। मुखौटा लगाये रिमिल भैंसासुर बन कर मेरे पीछे भागता और मां दुर्गा का मुखौटा लगाए मैं उससे आगे-आगे भागती। समय बीत रहा था, पूरे दो साल हो गये और मुझे वापस गांव लौटना पड़ा। गांव में सबकुछ वैसा नही था। खरखाई नदी का पानी पहले से ज्यादा गंदा हो गया था। जंगल अब भी वैसे ही थे, परंतु कुछ सागवान के पेड़ सूखकर नरकंकाल में बदल गये थे। तालाब अपनी जगह पर था पर सुख कर रेगिस्तान में बदल चुका था। राज़हंस अब गली के नाले में तैरते दिखाई दे रहे थे। मेरा घर वैसा ही था परंतु घर में मां नहीं थी। मेरे जाने के छः महीने बाद मां को बुखार हो गया था। बाबा कहते हैं बुखार दिमाग पर चढ़ गया और मां मर गईं बाबा ने मुझे खबर नहीं की क्योंकि अगर मैं वापस आ जाती तो घर का खर्च कैसे चलता? बाबा को डर था की मैं गांव वापस आकर फिर कोलकोत्ता न जाऊं तो जो दो हजार रूपये का आसरा बना हुआ था वह खत्म हो जायेगा। मैं सबकुछ बिना बताए ही समझ गई थी। आज कोलकोत्ता से वापस लौटे पांच साल हो गये थे इन पांचे सालों में अमेरिका से आषिष ने सात पत्र लिखे थे। आदिवासी भाषा में और मैंने बंगला भाषा उसके जवाब दिये थे। अब भी हर मास भूदेव दा तीन हजार रूपये मेरे बैंक एकाउंट में डाल देते है। मैंने कई बार इसके लिए मना किया परंतु भूदेव दा बोले जब आषिष को मैं तीन हजार रुपये जेब खर्च के लिए दे सकता हूं तो तुम्हे कैसे नहीं दे सकता हूं। बस मैं चुप हो जाती। भूदेवदा और मानसी काकी का प्रेम और सहयोग मेरे लिए आॅक्सीजन की तरह है। पर मैं कुछ करना चाहती थी ... बाबा मां के काम को फिर से शुरु करना चहती थी। थोड़े -थोड़े रुपये बचा कर मैंने बाबा से पूछ-पूछ कर वह सारी चीजें धीरे-धीरे खरीद ली और फिर बाबा के निर्देषन में मैंने मुखौटा बनाना शुरु किया। पहला मुखौटा जो मैंने बनाया वह नर और सिंह का था, आधा चेहरा नर का और आधा सिंह का बाबा मेरे बनाये मेरे मुखौटे को छूकर बोले चलो मुखौटा बनाना एक बार फिर से शुरु हो गया। बेटी होकर तुम मेरी इस कला को आगे ले जायेगी, बेटा तो जंगल में भटक गया है कहता है हक की लड़ाई लड़ रहा हूं, परंतु यह कौन सी हक की लड़ाई है ? जो इन्सान को जानवर की तरह जंगल में छुपने को मजबूर कर देता है। बेटी ओते बिरसा मुंडा की लड़ाई गोरे अंग्रेजों से थी, जो विदेषी थे। परंतु रिमिल की लड़ाई काले अंगे्रजों से है जो विदेषी नहीं अपने देष के हैं अपनी जाति के हैं। और सत्ता शक्ति के मालिक हैं। रिमिल भटक गया है उसका अन्त होगा परंतु इस भटकाव का अन्त नहीं होगा। अभी न जाने सत्ता के कितने सियार कितने रिमिल की बली चढ़ायेंगे? बाबा की बात सुनकर मैं यह सोचने लगी कि मेरा देवता सा दिखने वाला भाई हिंसक जानवर में कैसे बदल गया। फिर मुझे सपने की याद आ गया। यह कौन लोग है जो इन्सान को हिंसक जानवर में बदल रहे हैं। कई बार इच्छा हुई कि चन्दू काका के साथ जंगल में जाऊं और अपने भाई को वापस लेे आऊं, परंतु चन्दू काका इसके लिए तैयार नहीं हुए। पर चन्दू काका ने रिमिल तक मेरा संदेषा भेजवा दिया। दूसरी रात रिमिल घर पर आया और मुझसे मिला। मेरे हाथ में नोट की पांच गड्डी रखते हुए बोला चलो अच्छा हुआ अमीर लोगो ने तुम्हे सदा के लिए छोड़ दिया ... यह लोग ऐसे ही होते हैं हमारा उपयोग करते हैं और फेंक देते हैं कुड़ेदान में। मैं चुपचाप उसकी बातें सुनती रही। कितना बड़ा और न समझा हो गया था। मेरा भाई खुद अमिर लोगों के हाथों की कठपुतली बना जंगल-जंगल भटक रहा था। अपने इस भटकाव को उसने एक नाम भी दे रखा था उल्गुलान। उस रात वह घर पर कुछ ही देर रुका और वापस चला गया अन्धेरे में मैं उसे पूरी तरह देख भी नहीं पाइ । बस जाते-जाते बोली रिमिल वापस आ जाओ मैं और बाबा तुम्हे बहुत याद करते हैं। देखो पहाड़ से सिर टकराने से पहाड़ अपनी जगह से नहीं हटेगा हां तुम्हारा सिर जरूर लहुलुहान हो जायेगा। तुम जिनके खिलाफ लड़ना चाह रहे हो वो सभी शातिर पहाड़ है। जो तुम्हे लड़वा भी रहे हैं और मरवा भी देंगे। रिमिल यह सुन कर इतना ही बोला- ओते सेन्दरा (षिकार) खेलने वाला कभी न कभी षिकार के हाथ मारा जाता है। मेरा भी यही हाल होगा। हमलोग सभी षिकार युग में जी रहे हैं। इतना बोलकर रिमिल दौड़ता हुआ अंधेरे में गुम हो गया। मैं दरवाजे पर खड़ी अन्धेरे को एकटक देखती रही। आज इस अंधेरे में कई बचपन के दृष्य उभर रहे थे। मेरी गोद में खेला रिमिल, मेरे साथ नदी में डूबकियां लगाता रिमिल मेरे पीछे-पीछे खेतों के बीच भागता रिमिल, भैंसासुर बनकर मेरे पीछे भागता रिमिल। आज किसके पीछे भाग रहा है? शायद अपनी मौत के पीछे। परंतु उसकी मौत.... हुआ यूं कि आषिष अमेरिका से कोलकोत्ता आया और कोलकोत्ता से हमारे गांव मुझसे मिलने आ रहा था। उसके आने की सूचना पाकर मैं खुषी से पागल हो गई थी। परंतु मुझे चन्दू काका ने सूचना दी कि जब वह आषिष कोे रेलवे स्टेषन से लेकर वापस गांव आ रहा था, तभी बीच रास्ते में रिमिल और उसके साथी ने आषिष का अपहरण कर लिया और मुझसे कह दिया कि जबतक इसका बाप पचास लाख रुपया नहीं देगा तबतक हम इस नहीं छोड़ेंगे। इतना सुनने के बाद मैं एक पल भी घर पर ठहर न सकी। चन्दू काका को साथ लेकर जंगल, पठार, नदी, नाले को पार करते हुए उस स्थान पर पहुंची जहां रिमिल अपने साथियों के साथ कैम्प कर रहा था। मुझे अपने सामने देखते ही रिमिल गुस्से से चीखा - ओते तुम्हे यहां आने की क्या जरूरत थी? और चन्दू काका तुम ओते को यहां लेकर क्यों आए? आषिष कहां है? मैंने रिमिल के प्रष्न पर प्रष्न दाग दिया। गुस्सा और नफरत से मेरा मन रिमिल के प्रति भर चुका था। जिस परिवार ने हमारा भरण-पोषण किया, हमें इतना सम्मान और प्यार दिया और आज भी अपनी बेटी की तरह मुझे प्यार करता है उसी परिवार के बेटे पर रिमिल ने हमला किया। क्या यही उल्गुलान है? क्या हमारे पूर्वज बिरसा मुंडा, सिद्धो कान्हू ने हमें उल्गुलान का मतलब यही सिखाया है? मैं दोबारा चीखी - रिमिल आषिष कहां है? मेरी चीख सुनकर आषिष एक टेन्ट से खुद बाहर निकला। मुझे देखते ही बोला ओते तुम चिन्ता मत करो इनको जितना रुपया चाहिये पापा दे देंगे, तुम वापस चली जाओ। हां मैं वापस चली जाऊंगी पर अकेले नहीं तुम्हे अपने साथ लेकर, चलो मेरे साथ, मैं दौड़कर आषिष के पास गई और उसका हाथ पकड़कर वापस जाने के लिए मुड़ी। तभी रिमिल सामने से बन्दुक लेकर आ गया। वह एकटक मेरी तरफ देख रहा था, उसकी आंखो में नफरत और गुस्सा साफ दिखाई पड़ रहा था। मैंने बिना कुछ बोले अपने छोटे से बैग से नोट की वो बंडल निकाली जो रिमिल ने मुझे घर पर आकर दिये। उसे रिमिल को वापस देते हुए बोली लो अपने इस रुपये को एक रुपया भी तुम्हारी इस पाप की कमाई से खर्च नहीं की हूं। रिमिल एकटक मेरी तरफ देख रहा था। उसका ध्यान एक पल के लिए रुपये पर गया फिर मेरी तरफ देखने लगा। मुझे गुस्सा आ गया मैं रिमिल के गाल पर तीन-चार थप्पड़ मारते हुए बोली तु देवता के रुप में पैदा हो कर देवता के रुप में ही मर जाता, तो आज मुझे तुम्हारा यह जानवर वाला चेहरा नहीं देखना पड़ता। रिमिल मार खाने के बाद भी चुप रहा। मैं आषिष को लेकर आगे निकल गई, अभी चार-पांच कदम चली होगी तभी रिमिल पीछे से चीखा, ओते रूक जाओ, गोरे बाबू को यहीं छोड़ दो ... नहीं तो... वोल्ट कसने की आवाज आई, बन्दुक तन गई मैं तेजी से रिमिल के पास पहंुची और उसका गन पकड़ लिया, दूसरे ही पल हमदोनों भाई-बहन में भैंसासुर और मां दुर्गा वाला युद्ध शुरु हो गया। रिमिल बार-बार अपना गन छुडवाने के लिए कोषिष कर रहा था और भैंसासुर की तरह चीखते हुए बोल रहा था ओते बन्दुक छोड़ दो... बन्दुक छोड़ दो पर मैं बन्दुक रिमिल से छीनने की कोषिष करती रही और तभी न जाने कैसे गोली चल गई और गोली रिमिल की गर्दन को आर-पार कर गई। रिमिल भयानक चीख के साथ जमीन पर गिरा, मछली की तरह दो पल तड़पा और दम तोड़ दिया। मैं पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ी देखती रह गई। दो पल पहले जिस भाई से मैं लड़ रही थी वह मेर भाई जमीन पर खून से लथपत पड़ा हुआ था उसकी आंखें अब भी मुझे एकटक देख रही थी। रिमिल के साथी सभी बड़े अष्चर्य से सब अपनी जगह खड़े थे। किसी को समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि यह भाई-बहन के झगड़े में क्या हो गया। चन्दू काका और आषिष तेजी से मेरे पास आये मेरे कन्धे को छुआ और मैं बेहोष हो गई। तीन दिन बाद मैं होष में आई तो अपने आपको अस्पताल के बेड पर पाया। चन्दू और आषिष पास बैठे थे। होष में आते ही मैं दहाड़ मारकर रोने लगी, मेरा भाई रिमिल मैंने तुम्हे नहीं मारा, मैं तुम्हे मारना नहीं चाहती थी। डाॅक्टर ने मुझे रोता देख मुझे बेहोषी का इन्जक्षन लगा कर सुला दिया। कुछ समय बाद आषिष मुझे लेकर मेरे घर पर आ गया। मैं पहले से बेहतर हो गई थी। परंतु मन बार-बार अपराध बोध से ग्रसित हो जाता । रिमिल की आंखे, उसका खून से लथपत शरीर आंखों के सामने उभर आता। बाबा को रिमिल की मौत पर कुछ ज्यादा ही सदमा लग गया था वे बिल्कुल चुप हो गये थे। आषिष कुछ दिनों तक गांव में रहा। मेरा मनोबल बढ़ाता रहा, मुझे हर तरह से यह एहसास करवाता रहा कि जो हुआ उसमें तुम्हारा दोष नहीं है मैं भी धीरे-धीरे पहले से समान्य होने लगी। जिन्दगी बड़ी जिद्दी नदी के समान होती है, जो हमेषा पीछे से धक्का मारती है और हमारा अतित पीछे छुटता चला जाता है। करीब चार महीने बाद एक शाम आषिष नदी के किनारे टहलते हुए मुझसे बोला - ओते चलो मेरे साथ बाबा को भीे अपने साथ ले चलो। कोलकोत्ता में हमसब साथ रहेंगे। अब तो मां भी नहीं है मेरे पापा और मुझे तुम्हारा साथ भी मिल जायेगा। तुम जानती मां के बाद अगर मैंने किसी को चाहा है तो तुम हो। पहली बार जीवन में आषिष ने अपना दिल खोलकर मेरे सामने रख दिया था। आषिष की बातें आज इतना साफ-साफ सुन कर मेरा दिल ज़ोर से धड़कने लगा। जी चाहा आषिष के साथ चल दूं, परंतु फिर भी चुप रही, कारण मेरा जंगल, गांव और मुखौटा, यह सबकुछ छुट जायेगा। फिर रिमिल की यादें भी तो इस घर में बसी है उसे भला मैं और बाबा कैसे छोड़कर जा सकते थे। इसलिए मैं इतना हीे बोली आषिष तुम जाओ परंतु मैं तुम्हारे आने का इन्तजार हमेषा करती रहूंगी। तुम आते रहना... हमारी जिन्दगी ऐसी ही चलती रहेगी। मिलना और बिछुड़ना और अपनी यादों में साथ जीना।
रविकांत मिश्रा
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