Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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तीर

 

दलित पहाड़ी की वो शाम, सिर्फ एक शाम नहीं थी। मेरी जिन्दगी की एक ऐसी शाम थी, जो मेरे मानस में उसी तरह जम गई जैसे ठंड के मौसम में पानी नदी में जम जाता है। मेरे भीतर की बहती हुई नदी जम गई। क्या भुला पाऊंगा अपने भीतर जमी इस नदी को? कुछ ही पल लगे थे और सबकुछ बदल गया था। मां का स्तन मेरे मुंह से छूट गया, स्नेह ममता की छांव मेरे आंखों के सामने दम तोड़ने लगी। एक तीर हवा को तेजी से चीरता सर-सर की ध्वनि करता हुआ मेरी मां की गर्दन के आर-पार हो गया। कंठ से चीख की ज्वाला मुखी की तरह उठी और दलित पहाड़ के घने जंगल में दूर-दूर तक फैलती चली गई। इसके साथ रक्त का फव्वारा मां कीे गर्दन से उसी तरह फूटा जैसे बीच से पानी का पाइप फटने से फव्वारा हवा में उछाल मारता है। मां जल-बिन मछली की तरह जमीन पर तड़प रही थी। उसका शरीर बार-बार दर्द से हवा में ऊपर उछलता और फिर जमीन पर गिरता। जिन्दगी और मौत के बीच मेरी मां संघर्ष कर रही थी। अपने ही रक्त की बारिष में स्नान करते हुए दर्द से मुक्ति पाने के लिए उनका संघर्ष जारी था। मैं पास की झाड़ी में छुपा डर और आष्चर्य से सबकुछ देख रहा था। बेबस, लाचार दलित पहाड़ी का एक छोटा सा जीव जिसके मुंह से अभी-अभी मानव निर्मित तीर ने उसकी मां स्तन सदा के लिए छीन लिया और बदले में रक्त की बारिष से मेरी आंखें भर गई। दम तोड़ने से पहले आखिरी बार मां मेरी तरफ देखी। दर्द और करूणा के आंसू मां की आंखों में बह रही थी, जिसमें अब भी मुझे मेरे हिस्से का प्रेम दम तोड़ता हुआ दिखाई दे रहा था। इसके साथ एक प्रष्न मां की आंखों में शूल बनकर दिखाई दिया। क्या कभी सेंदरा युग (षिकार युग) का अंत होगा? इसी शूल प्रष्न के साथ मां का शरीर अंतिम बार जोर से हिला और बर्फ की तरह सदा के लिए जम गया। तभी तीन दिषाओं से आदिवासियों का तीन झुंड पागल सियारो की तरह प्रकट हुआ, मद मस्त हाथी की तरह झूमते खुषी से चिल्लाते ढोल नगाड़े पीटते मां के शरीर के पास आकर बेताल की नाचने लगे। मां का शरीर का मुआयना किया और उनमें से एक चीखा, मादा हिरण है, चलो जल्दी करो नही ंतो वन विभाग के लोग आ जायेंगे। ये सुन बाकि लोगों ने तेजी से मां के पैर को रस्सी से बांध दिए। मां के चारो पैरांे के बीच एक लम्बा बांस डालकर दो आदिवासी मेरी मां को कंधो उठा लिया। जैसे कहार दुल्हन की डोली उठाता है। परंतु वो मेरी मां की अर्थी थी। मां का शरीर बांस पर उलटा लटका हुआ था, गर्दन नीचे की तरफ हाथी सूंड़ की तरह झूल रही थी। तीर अब भी मां की गर्दन के आर-पार रक्त में डूबा रक्त से लाल अपने लक्ष्य भेदन की सफलता पर गर्व कर रहा था, जिसने एक मां को अपने बेटे से और बेटे को अपनी मां से सदा के लिए अलग कर दिया। इन्सान ऐसी चीजें बनाता ही क्यों है जो रिष्तों की गर्दन भेदकर रिष्तों की हत्या कर देता है? मैं दर्द से चीख-चीख कर रोना चाहता था। मां - मां पुकार कर मां को मौत की नींद से वापस बुलाना चाहता था। मां के पीछे-पीछे भागना चाहता था। परंतु मौत के भय से मैं खामोष रह गया। परंतु मेरी उस खामोषी में नफरत मेरे कंठ तक भर गई थी। आखिर मेरी मां ने इन आदिवासियों का क्या बिगाड़ा था? जो अपने सेन्दरा पर्व के नाम पर मेरी मां की हत्या कर दी। किसी को अनाथ करना किसी की हत्या करने से बढ़ कर होता है। अनाथ जीवन भर मरता है, पल-पल, हर-पल। हे मारंगबुरू (देवता) ये कैसा नियम है पर्व का, मजा मानव ले और अनाथ होने का दंष हम झेले। क्या तुम्हारा लिखित नियम है या मानव द्वारा लिखित नियम है? मैं अपने प्रष्न में उलझा अपनी मां को दूर जाते देख रहा था। आदिवासी मेरी मां कोे कंधो पर लादे पहाड़ से नीचे उतर रहे थे। मैंने मन ही मन मां की अंतिम विदाई दी और बोला मां मुझे माफ कर देना, मैंे तुम्हारे पीछे-पीछे नहीं आ सका, पर मां सदा तुम मेरे साथ रहोगी। मेरी शक्ति बनकर, प्रेम और शांति बनकर, और सदा मेरे मन में घृणा रहेगी इन आदिवासियों के प्रति जो अब भी अहिंसक नहीं हो पाये है। तभी चारों तरफ से जंगल में तेजी सेे सरसराहट हुई, पलक झपकते ही वन विभाग के रक्षक हाथ में बंदूक लेकर, मेरे चारों तरफ खड़े़े थे। सभी ध्यान से चारों तरफ देख रहे थे। मैं डर कर झाड़ीे में दुबक गया। कहीं यह वन रक्षक मेरी हत्या कर आरोप सेंदरा करने वालेे आदिवासियों पर न लगा दे। आखिर हिरण शावक का मांस किस मांसाहारीे को अच्छा नहीं लगेगा। तभी एक बूढ़ा वन रक्षक चीखा ‘यह देखो खून.... लगता है किसी हिरण का षिकार हुआ है। यह मादा हिरण के पैरों के निषान है और यह लीद इस बात की पुष्टि करता है कि आज सेंदरा पर्व केे नाम पर आदिवासियों ने वन कानून को तोड़ा और हिरण का षिकार कर ले गये। खोजो आस-पास ध्यान से खोजो, शायद कोई हिरण का बच्चा डर कर छुपा हो। सभी ध्यान से झाड़ियों में खोजने लगे। यह देख मेरी उपर की सांस उपर और नीचेे की सांस नीचे ठहर गई। मैंे झाड़ी में दम साधे बैठा रहा तभी एक युवा वन रक्षक ने बूढ़े वन रक्षक से प्रष्न किया, बाबा जब षिकार न करने का कानून बन चुका है। तोे फिर षिकार करने की परम्परा कैसे जीवित है? बाबा मेरी तरफ झाड़ी के पास आते हुए बोले सिंगारी, कानून देष की किताब में लिखा हुआ है और परम्परा लोगों के खून में बहती है। इसलिए हर वर्ष सेन्दरा पर्व में कानून की हार होती है और परम्परा की जीत। बाबा आखिर वो दिन कब आयेगा जब हमारे देष के लोगांे में खून का कानून बहने लगेगा। बेटा, सिंगारी दिल्ली अभी दूर है। फिलहाल तो अलिखित कानून पर देष चल रहा है। अरे यह देखो! बाबा एकाएक चीखे, सभी का ध्यान बाबा के तरफ गया। बाबा सभी को हाथ के इषारे से दिखाते हुए बोले.... यह देखोे छोटा-सा हिरण शावक, कैसे डर कर झाड़ी में छुपा बैठा है। यह सुन सभी ने चारों तरफ से झाड़ी को घेर लिया। यह देख मैं समझ गया कि मेरा इनके हाथ से निकलना असंभव है। बेहतर मेरे लिए यही होगा कि अपनी जगह पर चुपचाप बैठा रहूं। मैं अपनी जगह पर चुपचाप बैठा रह, तभी दो हाथ मेरे तरफ बढे़ जोे बाबा के हाथ थे मेरी तरफ बढ़े और मुझे दबोच लिया गया। डर के मारे मुझे पैखाना, पेषाब दोनों हो गया। मेरी हालात देख बाबा बोले बेचारा सचमुच बहुत डरा हुआ है, चलो इसे हम अपने साथ ले चलें। इतना बोल बाबा ने बड़े स्नेह के साथ मुझे अपने सीने से लगा लिया। बाबा के सीने से लगकर मेरा डर कुछ कम हो गया... मुझे लगने लगा कि यह हाथ मारने वाला नहीं बचाने वाले हाथ है। स्पर्ष की अपनी भाषा होती है जिसे लिखा या पढ़ा नहीं जा सकता सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। बाबा के सीने में मैं चुपचाप चिपका हुआ था, सभी वन रक्षक मुझे बार-बार देख रहे थे। कोई मेरे सिर पर स्नेह करता, कोई पीठ थपथपाता, कोई मेरे कानों को छूता मैं आष्चर्य सेे सभी को बारी-बारी से देख रहा था, सोच रहा था यह कैसो मानव हैे और वो कैसे मानव थे? जिन्होंने मेरी मां की मौत पर ढोल, नगाड़ेे बजाये, नृत्य किया... उनके शरीर को उठाये ऐसे खुषीे से चीख रहे थे.... जैसे बहुत बड़े योद्धा हो जिन्होने बहुत बड़ी जंग जीत ली हो।
बाबा मुझे अपने सीने से लगाये आगे-आगे चल रहे थे। पीछे-पीछे बाकि वन रक्षक कतार में चल रहे थे। अन्धेरा घिरने लगा था, सभी के कदम तेज हो गये। कुछ समय बाद मैं उनके छोटे से घर के बाहर बरामदे में था। बाबा खाट पर बैठे मुझे गोद में बैठाये पुचकार रहे थे। तभी एक बारह-तेरह साल की सांवली सी लड़की भागती-भागती आई और बोली ‘बाबा सुना है आप मेरे लिए हिरण का बच्चा लेकर आये.. अरे क्या यही वह बच्चा है.... बाबा बच्चा मैं लूंगी.... मुझे दो .... इतना बोल लड़की झट से हाथ बढ़ाकर बच्चा बाबा की गोद से ले ली और हवा में उपर उठाकर ध्यान से देखते हुए बोली .. बाबा इसका नाम काला रखेंगे देखो इसका रंग कितना काला है बाबा अब तक चुपचाप अपनी बेटी को देख रहे थे। वह बड़ेे प्यार से बोले कोयली यह बहुत भूखा और डरा हुआ है, जाओ बोतल में दूध ले आओ। यह सुन कोयली बोली अभी लाती हूं, बाबा .... पर यह डरा हुआ क्यों है? बेटा इसकी मां कोे हमारे आदिवासी भाईयों नेे सेन्धरा कर दिया। बाबा दुखी होकर बोले। यह सुन कोयली भी उदास होे गई, उसके हाथ जो काला को उछाल रहे थे एकदम सेे हवा में रूक गये उसने बड़े प्यार से काला को देखा, फिर उसेे अपने सीनेे से लगाते हुए बोली .... बाबा दुखी होने की कोई बात नहीं है आज से मैं काला की मां हूं, मैं इसकी देखभाल करूंगी। इतना प्यार और संकल्प देख बाबा का मन उल्लास से भर गया, चेहरे पर मुस्कुराहट खिल गई। बाबा मन ही नही मन बोले हे मारंगबुरू, धन्यवाद जो तुमने मुझे बेटी दी... बेटा होेता तो मां और ममता के महत्व को समझ नहीं पाता। बेटी में मां संास लेती है देखोे न एक हिरण शावक को पल भर में अपना लिया। उसे अपना बच्चा और स्वयं बच्चे की मां बन गई। मैं कोयली के सीनेे से लगा बाबा के मन में विचार को अनुभव कर रहा था। तभी बाहर से किसी ने आवाज दी, गोरा हांसदा.... वो गोरा हांसदा रेंजर साहब आफिस में बुला रहे हैं। यह सुन कोयली झट घर के भीतर लेकर मुझे आ गई। मेरे लिए कटोरे में दूूध निकालने लगी, फिर कटोरे के दूध में चीनी मिलाकर उसे एक बोतल में डाल दिया, फिर बोतल मेरे मुंह से लगाते हुए बोली... देख काला पूरा दूध तुझे पीना है नही ंतो मैं तुझेे पीटू, पीटू करूंगी ... यह बोतल उस समय की है जब मैंे तुम्हारी तरह छोटी थी और बाबा मुझे इसी बोतल में दूध पिलाते थे। अब रोज मैं तुझे इसी बोतल में दूध पिलाउंगी .... मैं दूध पी रहा था... कोयली सिर पर प्यार सेे धीरे-धीरे हाथ फेर रही थी। अनाथ होने का डर धीरे-धीरे मेरे मन से दूर भागता जा रहा था ... पर मां की याद आ गई, मां के स्तन से दूध पीना और मां का चाट-चाट कर मुझे पर ममता जताना और तभी मानव निर्मित तीर ने पल भर में सबकुछ बदल दिया... सचमुच मानव के अविष्कार में बहुत शक्ति है ... पर शक्ति का उपयोग सृष्टि के लिए, या विनाष के लिए? क्या मानव यह समझ पाया है? मानव निर्मित बोतल से दूध पीते-पीते न जाने कब मुझेे नींद आ गई और मैंे कोयली की गोद में सो गया।
दूसरे दिन सुबह उठा तो दिन के उजाले में सबकुछ मेरे लिए नया था। जंगल के बीच मानव निर्मित घर, पक्के घर, छोटे-छोटे घर और छोटे घरो के बीच में एक बड़ा सा घर, इस तरह दिख रहा था जैसेे छोटे - छोटे जानवरो के बीच एक विषाल हाथी खड़ा हो जैसे हाथी राजा हो और छोटे-छोटे जानवर उसकी प्रजा। उसी तरह यह बड़ा घर सभी छोटे घरों का राजा है। मैं एक छोेेटे से घर के बरामदेे में खड़ा उस बड़े घर की तरफ देख रहा था और सोचने लगा इस घर में बड़े-बड़े हाथी जैसे लोग रहते होंगे। उनका पेट भी बहुत बड़ा होगा जो हाथियों की तरह बहुत सा चारा खाते होगें। एक दिन मैं बड़े घर के भीतर जाउंगा और बड़े घर में बड़े लोग से मिलूंगा। वे लोग क्या मुझे देख कर खुष होंगे? तुम जाग गये! कोयली बरामदे में आते ही बोली, उसके हाथ में वही दूध का बोतल था .... मेरी तरफ बोतल दिखाते बड़ी समझदार मां की तरह बाली ... देखो काला यह दूध पिलाकर मैंे स्कूल पढ़ने चली जाउंगी। फिर तुझे बाबा बीच-बीच में आ कर दूध पिला देंगे। तुम बाबा को बिल्कुल तंग मत करना ... दोपहर तक मैं स्कूल से वापस आ जाऊंगी.... फिर तुम्हारेे साथ खेलूंगी ... ठीक है ना... चलो दूध पी लो.. इतना बोल कोयली दूध की बोतल मेरे मुख से लगा दी... मेरे सिर को प्यार सेे सहलाने लगी...... मैं आज्ञाकारी बच्चेे की तरह दूध पीनेे लगा। यहां जंगल जैसा डर नहीं था, षिकारी जानवारों का डर जंगल में हमेषा बना रहता है और खास कर मेरे जैसे हिरण शावक तोे षिकारियों की पहली पसंद है। यहां इस मानव निर्मित संसार में षिकारी नहीं रहते होंगे। काष, जंगल में ऐसा हो पाता तो कितना अच्छा होता। मैं दूध पी लिया कोयली मेरा माथा चुम कर बोली अच्छा काला बाय.. स्कूल से आकर मिलूंगी। फिर कोयली अपना बस्ता कन्धा पर उठाये बरामदे से बाहर निकल गई। मैं कोयली को जाते हुए देखता रहा जब तक वह मुझे दिखाई देती रही। इस तरह समय बीतने लगे। मै वन विभाग में निर्भय होकर घुमने लगा, सभी लोग मुझे बहुत पसंद करने लगे थे। मैं किसी भी छोटे घर में बिना किसी रोक-टोक के आ जा सकता था। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी मुझे कुछ ना कुछ खिलाते रहते थे। इस बीच मैं कभी बड़े घर में नहीं जा पाया क्योंकि उस घर के चारों तरफ कांटेदार तार लगे हुयेे थे, एक गेट था, वहां एक आदमी हाथ में लोहे की लाठी लेकर खड़ा रहता था। मैं उस लोहे की लाठीे को देखकर सोचता रहता था कि मानव इस लोहे की लाठी से षिकार करता होगा, पर यहां तोे इतने दिन बीत गये किसी को किसी का षिकार करते हुए नहीं देखा ... फिर यह लाठी का क्या काम? यह प्रष्न मेरे दिमाग में घूमता रहा, समय तेजी से गुजरता रहा, मैं हिरण शावक से युवा हिरण हो गया... अब तो मैं कोयली के साथ मंदिर जाता, जंगल में थोड़ी दूर घूमने भी चला जाता, न जाने क्यों मुझे घने जंगल से डर लगने लगा था। ऐसा लगता था जैसे घने जंगल में जाते ही मेरा सेंदरा हो जायेगा। इसलिए कोयली के साथ मैं कभी बहुत दूर तक जंगल में नहीं जाता जबकि कोयली चाहती कि मैं जंगल के भीतर निर्भय होकर जाऊं। उसने कई बार कोषिष की परंतु, मै उलटे पांव जंगल से भाग कर वन विभाग के तरफ आ गया। तब कोयली मुझे समझाते हुए बोली ... देख काला तुझे जंगल में जाना चाहिये जंगल ही तेरा घर है, वहां तेरे और भी साथी है उनसे तुम्हे दोस्ती करनी चाहिये, पर शाम होने से पहले तुम्हे मेरे पास वापस भी आ जाना होगा। पर कोयली की बात मेरे समझ से परे थी .... मै किसी भी सूरत में जंगल नहीं जा सकता था। परंतु कोयली हार मानने वाली नहीं थी, वह रोज मुझे थोड़ी दूर जंगल में ले जाकर छोड़ देती और फिर वहां से वापस भाग जाती, तब मैं भी कोयली के पीछे-पीछे भागता वापस घर आ जाता। हमारा यह खेल हर दिन जारी था। तभी एक शाम धड़-धड़, गड़-गड़ की आवाज होने लगी... मैने देखा बड़े घर के गेट पर मानव निर्मित लोहे की गाड़ी एक के बाद एक तेजी से घुसने लगी। फिर गाड़ी से सफेद कपड़े पहने, सफेद टोपी लगाये, मोटे-मोटे, गेडे की तरह मानव उतरे और बड़े घर के भीतर तेजी से चले गये। कुछ देर बाद रेंजर साहब भागते हुए बाबा के पास आये और बोले गोरा हांसदा, गोरा हांसदा.... जल्दी करो सभी वन रक्षक को जमा करो, जितने भी पशु हमारे नर्सरी में है उसकी गिनती ठीक सेे करो, देखो कहीं कोई भाग तो नहीं गया। मंत्री जी अभी तुरन्त सबकुछ देखना चाहते हैं। गोरा हांसदा इतना सुन तीर की तरह बाहर की तरफ भागा.... मैं बरामदे में खड़ा सबकुछ देख रहा था। कुछ समय बाद बड़े घर के बाग में सभी वन रक्षक रेंजर के साथ एक कतार में खडे थे। मंत्री जी बड़े घर के दरवाजे से बाहर निकलें सभी पर एक नज़र डाली फिर, बोले .... हमने सुना है, कि दलित पहाड़ी पर हर साल सेंदरा हो रहा है और हम सभी सेन्दरा रोक नहीं पा रहे हैं... बड़े शर्म की बात है .... हमें किसी भी हाल में सेंदरा रोकना ही पड़ेगा.... वन और वन जीव को बचाना हम सभी का परम कर्तव्य है.... मंत्री जी बोलते रहे, मैं बरामदे में खड़ा अपने आपको नहीं रोक नहीं पाया, बहुत दिनों से इच्छा थी कि बड़े घर के भीतर जाऊं, तो मैं टहलता हुआ बड़े घर के भीतर चला गया और टहलता टहलता बाबा के पास जाकर खड़ा हो गया। मंत्री जी बोलने में व्यस्त थे, बोलते-बोलते अचानक उनका ध्यान मेरी तरफ गया.... वह उल्लास से चीखे..... अरे यह हिरण कहां से आया? रेंजर सावधान होकर बोला, महोदय, इस हिरण को अपने हेड वन रक्षक गोरा हांसदा ने बचाया है और पिछले तीन सालों से पाल रहा है। इसकी मां की हत्या आदिवासियों ने कर दी थी। यह सुन मंत्री जी खुष होकर बोले ... गुड गोरा हांसदा... तुम जैसे आदिवासी पर मुझे गर्व है, तुम बहुत अच्छा काम कर रहे हो। तुम्हारी तस्वीर अखबारों में छपनी चाहिये.... जाओ भीतर बैठे पत्रकार और फोटोग्राफर को बुला लाओ। तुरंत एक आदमी आज्ञाकारी कुत्ते की तरह भीतर भागा और वापस लौटा दो व्यक्ति के साथ... जिसने एक गले में छोटा सा ढ़ोलनुमा कुछ लटक रहा था। उस व्यक्ति ने मेरे और बाबा की तस्वीर ली। मंत्री जी ने मेरे पीठ और गले पर हाथ फिराया। मेरे सारे शरीर में सिरहन सी दौड़ गई.... पल भर में ही पसीने से नहा गया। स्पर्ष की अपनी भाषा होती है, संकेत होता है। उनके स्पर्ष में एक संकेत था। मंत्री जी रेंजर सेे कुछ बात करने लगे। थोड़ी देर में मंत्री जी वापस बड़े घर के भीतर चले गये और हम बाबा के साथ छोटेे से घर में। कोयली बरामदे में खड़ी सब देख रही थी। वह षिकायत करते हुए बोली .... बाबा इसकी मां मैं हूं और फोटो आपने खिचवा ली.... यह ठीक नहीं किया ... मुझे भी काला के साथ फोटो खिचवानी है। तभी रेंजर साहब भागते हुए आये और बोले गोरा हांसदा ... मंत्री जी ने तुम्हे एक हजार रूपये ईनाम के तौर पर दिये हैं, यह लोे एक हजार रूपये.... रेंजर साहब ने अपनी कमीज की जेब से पांच-पांच सौ के दो नोट निकाल कर गोरा हांसदा की तरफ बढ़ा दिया। गोरा हांसदा नोट की तरफ देखा फिर एक नजर कोयली के तरफ देखा, जैसे कुछ पूछ रहा हो क्या इनाम ले लेना चाहिये? कोयली कुछ नहीं बोली अपनी नजरें नीची कर ली। न जाने क्यों उसका दिल जोर से धड़कने लगा था। गोरा हांसदा समझ गया कि कोयली को इनाम पसंद नही है, परंतु मंत्री जी की बात को गोरा हांसदा टाल भी कैसे सकता था? आखिर उसकी औकात ही क्या थी? वह साधारण सा वन रक्षक ही तो था। न चाहते हुए भी गोरा हांसदा ने रूपये हाथ में ले लिया। यह देख कोयली गुस्से से पैरे पटकते हुए घर के भीतर चली गई। जैसे उसकी ममता को ठोस लगी हो, और यह सब सच भी था ... कोयली के लिए काला उसका बच्चा था और वह काले के लिए मां, अब मां बेटे के बीच यह मंत्री जी का ईनाम का घुस जाना उसे कुछ ठीक नहीं लगा। इधर रेंजर साहब गोरा हांसदा के करीब जाकर धीरे से बोले .... गोरा देखो मुझे गलत मत समझना, पर मैंे मजबूर हूं .... मंत्री जी चाहते हैं कि तुम काला को छोड़ दो .... बदले में अगर तुम्हे और रूपये चाहिए तो मंत्री जी वह भी देगें, परंतु काला अब तुम्हारे पास नहीं रह सकता। यह मंत्री जी का आदेष है। यह सुनते ही गोरा हांसदा के माथे पर बल पड़ गया, उसने तुरंत रूपये रेंजर साहब के मुंह पर फेंक दिया और गुस्से से बोला... काला हमारा बच्चा है.. और हम आदिवासी अपने बच्चों का सौदा नहीं करते। फिर अचानक मंत्री जी के मन में काला के लिए इतना प्रेम क्यों उफान मारने लगा? कारण क्या है? रेंजर साहब बताओ? गोरा के तेवर वाले प्रष्न सुनकर रेंजर साहब सकपका गये। एक दो पल उन्हें अपने आपको सम्भालने में लगा फिर एकदम चेहरे पर अफसर वाला रोब लाते हुए बोला ... देखो गोरा हांसदा मैं तुम्हारा अफसर हूं .... मेरा आदेष मानना तुम्हारा काम है ... काला वन विभाग की सम्पत्ति है, इसे तुम वन विभाग कोे सौंप दो। यह सुन गोरा हांसदा हल्का सा मुस्कुराया और फिर बोला... सचमुच साहब आप हमारे अफसर हैं, पर मुझसे आप उम्र में छोटे हैं .... मेरी जिन्दगी में आप जैसे बहुत से अफसर आए और चले गये... सबकी मन की बात गोरा हांसदा बिना उसके बोले समझ लेता है। परंतु आज मैं आपके मुंह से सुनना चाहता हूं कि सच क्या है? सच सुनने के बाद हो सकता है कि मैं आपकी और मंत्री जी कि कोई मदद कर सकूं। तो सुनो ... गोरा, रेंजर साहब अपने तेवर में बोले। मंत्री जी को हिरण का मांस खाना है। वो भी काला हिरण का। अब तुम यह बताओ कि हिरण तुम चुपचाप दोगे कि मंत्री के संतरी लोगों कोे बुलवाना पड़ेगा। यह सुन मैं सकते में आ गया। बरामदे में खड़ा मैं एकटक बाबा के तरफ देख रहा था, हलांकि यह बाते मैं उसी समय समझ गया था जब मंत्री जी ने मेरे गर्दन को स्पर्ष किया था। घर के भीतर कोयली गुस्से से कांप रही थी... उसने कांपते हाथ से टार्च जलाई और न जाने क्या खोजने लगी। बाबा का चेहरा गम्भीरता से डूबा हुआ था। वह रेंजर साहब को जोरदार सैल्यूट मार बोले ... जय हिन्द साहब... मुझे पांच मिनट का समय दें... पर आप यहीं रहियेगा... मैं वर्दी बदल कर आता हूं, इतना बोल गोरा हांसदा कमरे के भीतर चला गया। रेंजर साहब सिगरेट निकाल कर चैन से पीने लगे, जैसे उन्होंने कोई बहुत बड़़ी समस्या हल कर ली है। तभी घर के भीतर से एक साथ कोयली और गोरा दोनों बाहर बरामदे में आये बिजली के बल्ब में दोनो का बदला हुआ चेहरा देख रेंजर साहब के तोते उड़ गये ... उनके मुंह से इतना ही निकला ... गोरा हांसदा... यह क्या है? गोरा हांसदा तीर धनुष रेंजर साहब की तरफ तानते हुए बोला साहब ...उल्गुलान आदिवासियों का उल्गुलान ... अब मैने वर्दी बदल लीे है, अपनी संथाली धोती और गमछा में आ गया हूं। अब आप मेरे अफसर नहीं हैं और न मैं आपका सेवक, आप हमारे रास्ते से हट जायें... हम काला को ले कर जंगल में जा रहे हैं। बजा बेटी नगाड़ा, बजा... उल्गुलान का नगाड़ा ष्षुरू होे गया... इन काले अंग्रेजों के खिलाफ उल्गुलान.... कोयली नगाड़ा बजाने लगी। नगाड़े का स्वर सुनकर सभी क्वाटरों में रहने वाले तेजी से बाहर निकले, सभी के हाथ में पारम्परिक हथियार थे। सभी गोरा हांसदा के तरफ आ कर खड़े हो गये। तब कोयली ने नगाड़ा बजाना बंद कर दिया। तब गोरा हांसदा बोले ... अबुआ जमीन, अबुआ जंगल, अबुआ जानवर की रक्षा पहले हमारे पूर्वज करते थे। अब हम लोग कर रहे हैं। ठीक है साल में एक बार हमारे कुछ आदिवासी भाई सेंदरा करते हैं, वो गलत है। परंतु क्या कोई हमारा नेता, मंत्री, अफसर हमारे पशुओं को, हमारे भावनाओं को, हमारे रिष्तों को सेंदरा करना चाहेगा तो क्या हम चुप रहेंगे। सभी लोग चीखे नहीं.... नहीं। तो दोस्तों आज काला का मांस मंत्री जीे को खाना है इसलिए अलिखित कानून के तहत मंत्री जी और रेंजर साहब काला का सेंदरा करना चाहते है। क्या भाईयों, हम काला को सेंदरा करने के लिए दे दें? इस बार ज्यादा गुस्से से लोग चीखे नहीं... नहीं..। रेंजर साहब चुपचाप सिर झुकाये खड़ेे थे। तभी मंत्री जी शोरगुल सुनकर अपने चमचों के साथ बाहर निकले। शराब में डूबी उनकी आंखें स्थिति को तुरंत भांप लिया। गोरा हांसदा के पास आए और हाथ जोड़कर बोले मुझे माफ कर दो.... मैं तुम्हारी भावना को समझ नहीं पाया... तुम सचमुच वीर आदिवासी हो, जो अपने जल, जंगल, जमीन के लिए लड़ रहे हो? इन्सान होकर पशु के लिए इतना प्रेम .... मैं आज तुम्हारे सामने स्वयं को छोटा महसूस कर रहा हूं .... रेन्जर साहब गोरा से हमलोगो को यह सीखने की जरूरत है कि अपने जल, जंगल, जमीन की रक्षा कैसे करनी है। जाओ तुम सभी अपने-अपने घर जाओ, पर कोई भी अपनी जगह से हिला तक नहीं... सब गुस्से से हथियार तान खड़े रहे। यह देख मंत्री जी बोलें ... ठीक है मैं अपने घर चलता हूं ...अपने राजभवन। इतना बोल मंत्री जी धीरे-धीरे चूहों की तरह चलते हुए अपने चमचों के साथ गाड़ी में बैठ आधी रात को वन विभाग के गेस्ट हाऊस से निकल लिए। उनकी गाड़ी को जाता देख गोरा हांसदा खुषी से चीखा... उल्गुलान जिन्दाबाद .... सभी जोष से नारा लगाये... उल्गुलान जिन्दाबाद ....। रेन्जर साहब यह सुन वापस अपने घर की तरफ चल दिए। इधर काला को कोयली गलेे से लगा कर रोने लगी। उसे रोता देख गोरा हांसदा बोला .... बेटी काला को वापस जंगल जाना होगा .... यहां से जंगल में ज्यादा सुरक्षित रहेगा ... जंगल में सिर्फ भूखे जानवर षिकार करते हैं, परंतु यहां इस जंगल में षिकार शौक है। और यह शौक इस व्यवस्था का स्वभााव है, संस्कार है, कभी भी किसी भी पल किसी का षिकार हो सकता है। हममे से कोई सुरक्षित नहीं है इस मानव निर्मित जंगल में, काला को वापस अपने जंगल में जाना होगा। बाबा की बात सुन न चाहते हुए भी मैं उनसे सहमत हो गया ..... मेरा जीवन जंगल मे ही है। ऐसा जंगल जिसे मानव ने नहीं कुदरत ने अपने हाथों से बनाया है जिसका एक ही चेहरा है, जंगल का चेहरा .... अपना जंगल का चेहरा .....।

 


रविकांत मिश्रा

 

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