नमस्कार, मैं आम आदमी हूं, डरा हुआ इस देष का आम आदमी । जो हर सुबह नींद से डर कर जागता है, दफ्तर के लिए डरा-डरा भागता है । आॅफिस में बाॅस का डर, घर में बीवी का डर, बाजार में महंगाई का डर, फुटपाथ पर भागते-भागते पहली बस या ट्रेन छुट जाने का डर ... वैसे इस डर से हमारा रिष्ता बहुत पुराना है, याद करें कि जब आप और हम बच्चे थे और पहली बार हम अपने पैरो पर खड़े हुए थे उस दिन से ही जमीन पर गिरने का डर सदा के लिए हमें पकड़ लिया था, यह डर से हमारा पहला परिचय था। फिर तो इसके आगे डरो का सिलसिला शुरू हो गया। स्क्ूल में टीचरो का डर, काॅलेज में प्रोफेसरों का डर, फेल होने का डर, असफल होने का डर, जीवन के दौड़चक्र में पीछे छूटने का डर, नौकरी न मिलने का डर, नौकरी मिल जाये तो नौकरी जाने का डर, शादी न होने का डर, शादी हो जाये तो बीवी के भाग जाने का डर या बीवी के साथ एडजेस्टमेंट न होने का डर। अगर एडजेस्टमेंट हो जाये और बच्चा न हो तो नपुंसक होने का डर, नारी को बांझ होने का डर, भाई साहब मैं क्या बताऊ डर और आम आदमी का रिष्ता उतना ही पूराना जितना की आदम और हौवा की कहानी - इसलिए गोस्वामी तुलसी दास कह गये भय बिना प्रीत नाहिं। यानि भय के बिना प्रीत नही हो सकती। पर बाबा तुलसीदास हम तो यह कहना चाहते हैं कि आम आदमी बिना भय के एक पल भी जी ले तो यह दुनियां का आठवां आष्चर्य साबित हो जाय। अरे भईया आम आदमी नींद में भी डरा-डरा सा सोता है। याद किजीए आप सभी को याद आ जायेगा जब हम बहुत बच्चे थे और हम डर कर मां के पास जब आते थे तब मां हमें अपनी गोद में छुपा लेती थी और हम बिना भय के छुप कर सो जाते थे। हमें गहरी नींद आ जाती थी। ऐसी नींद जिसमें सारे के सारे घोड़े हम बेच देते हैं। क्या भाई साहब सच कहियेगा गंगा मैया की कसम- क्या वैसी नींद जीवन में फिर आई... नहीं न चाहे कितना भी अंग्रेजी-देषी चढ़ा लो .... बेहोषी आ जायेगी परंतु वैसी नींद नहीं आयेगी। यह मां की गोद की बात है। जो किसी बाजार में या किसी दुकान पर नहीं बिकता .... चाहे टाटा, अंबानी, मित्तल, बेल गेटस हो जाओ ... सबकुछ खरीद सकते हो परंतु मां की ममता, मां की गोद नहीं खरीद सकते। सच बताये जिस दिन हम मां की गोद से अलग हुये उसी दिन यह डर हमारे दिलो दिमाग पर हावी हो गया। अब तो आलम यह है कि हम सभी समाज में एक दूसरे को डर-डर कर देखने लगे हैं। डर कर एक दूसरे पर संदेह करने लगे हैं। सम्बंधो के मंदिर में अब श्रद्धा, विष्वास के दीपक नहीं जलते डर और सन्देह के कीड़े कुलबुलाते हैं। भाई साहब अगर आपके बच्चे छोटे हो तो आपका डर दोगुना, तीनगुना बढ़ जाता है। बाहर वालो से ज्यादा नहीं घर वालों से डर होने लगता है। हर सुबह जब अखबार पढ़ने के लिए उठता हूं तो हाथ के साथ दिल आत्मा भी कांपने लगती है। मन प्रष्न करता है आज कितनी बेटी या बेटो के साथ .... । छी ... खुंखार भेड़ियों के शहर में कब तक मासुम सुरक्षित रह सकता हैं डरा हुआ आम आदमी, डरा हुआ उसका पूरा जीवन ... अपने इस एक जीवन में डर-डर कर वह हजार बार नरक की अग्नि में जलता है। फिर भी आम आदमी जीता है हर सुबह डरते हुए सूरज की तरफ देखता है। उस सूरज प्रकाष का देवता नहीं, एक दिन जीने की चुनौती देता दिखाई देता है। वह डरी हुई आंखों से सूरज को देखता है और तेजी से शाम की तरफ भागना शुरू कर देता है। यह डर का मनोविज्ञान है कि डरा हुआ आदमी तेजी से भागता है, बहुत अकड़ कर चलता है, खामोष गम्भीर बना रहता है। कुछ बोलने से पहले चारो तरफ बार-बार देखता है उतना ही बोलता है जितना बोलने पर उसकी सुरक्षा बरकरार रह सके। आंदोलन हो तो वह भीड़ का हिस्सा बनता है. भीड़ बन कर नारे लगाता है ... पंरतु एक अकेला होते ही गंूगा हो जाता है। यह आम आदमी दरअसल गांधी जी के तीन बंदर है जो डर कर कुछ नहीं देखते, कुछ नहीं सुनते, कुछ नहीं बोलते- बस डरे हुए दर्षक बनकर जमा होते रहते हैं। भीड़ बनकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते रहते हैं। लाल, हरे, पीले, नीले झंडे की नीचे। भाई साहब फुटपाथ पर चलते-चलते आप जिस आदमी से अनजाने में ही टकरा जाते हैं दरअसल वह कोई और नहीं आपका अपना ही प्रतिबिम्ब है जो अपने परिवार की रोटी लेने तेजी से भाग रहा है। डर आम आदमी को छोटा बना दिया है... उसके जीवन को संकुचित कर दिया है। इस छोटेपन या संकुचित जीवन का मैं भी षिकार हो गया हूं .... भैया मैं तो अपनी बाईक तीस की स्पीड में भी चलाने से डरता हूं। पता नहीं ब्रेक मारू और ब्रेक फेल हो जाये .... आखिर गाड़ी चलाते समय ब्रेक फेल होने का डर तो बना ही रहता है। वैसे आम आदमी के जीवन में ब्रेक नहीं होता ... उसके जीवन का ब्रेक तो दो लोगो के पास होता होता है पूंजीपति बाबा के पास और राजपुरूष दादा के पास, गैस का दाम बढ़ जाता है, आम आदमी के रसोई गाड़ी में ब्रेक लग जाता है, स्कूल में बच्चों की फीस बढ़ जाती है तो आम आदमी की बाईक में ब्रेक लग जाता है, बेचारा महीने में पंद्रह दिन साइकिल चलाने लगता है। पेट्रोल, डीजल के दाम ज्वार भाटा की तरह उपर-नीचे होता रहता है। आम आदमी ज्वार भाटा में झूला झूलते रहता है। आम आदमी हर पांच साल में सरकार चुनता है और हर रोज सरकार से महंगाई का गिफ्ट पाता है। बेचारा आम आदमी बीच चैराहे पर ठगा खड़ा रह जाता है। उसकी समझ में कुछ नहीं आता कि वह कहां जाये? किसकी बात पर विष्वास करे .. डर उसके दिमाग पर हावी रहता है। वह डर के साथ समझौता कर लेता है ... और अपने जीवन की शाम तरफ तेजी से भागने लगता है, उसके हिस्से में उसे मिलता है बचपन तीन प्रतिषत, जवानी दो प्रतिषत और पंचानवे प्रतिषत बुड़ापा। जिसे डर कर वह मौत तक जीता है। कहने को हम स्वतंत्र हो गये हैं, हमें आजादी मिल गई है परंतु भाईयों-बहनों हम अपने ही देष में गुलाम हैं, डर की गुलाम में जी रहे हैं, मैं तो अपने देष का एक डरा हुआ नागरिक हूं। पुलिस वालों से मुझे बहुत डर लगता है, रास्ते में सड़क पर जहां भी पुलिस वालों को देखता हूं मन ही मन हनुमान चालिसा पढ़ना शुरू कर देता हूं, गाड़ी की स्पीड कम कर देता हूं। कई बार पुलिस वालो ने मेरी बाईक रोकी, मेरे शरीर , मेरी आत्मा की तलाषी ली, उफ .. उनका वह हिंसक स्पर्ष से मन में भय और घृणा दोनों उफान मारने लगता है। कुछ पल के लिए मैं भूल जाता हूं कि मैं मानव हूं ... ऐसा लगता है की मैं एक पशु हूं जिसके हिंसक अपराधी होने की जांच चल रही है। अंततः जांच पूरी हुई मुझे उपर से नीचे घूरते हुए छोड़ दिया गया। पता नहीं इन पुलिस वालों को कब समझ में आयेगा कि आम आदमी, आम आदमी होता हैं और अपराधी अपराधी होता है जो पुलिस वालों से एक कदम आगे चलता है । अब भईया मुझे डर लगता है डाॅक्टरों से, जब भी रास्ते पर डाॅक्टर या अस्पताल को देखता हूं महामृत्युंजय का जप मन ही मन शुरू कर देता हूं। साधारण सर्दी, खांसी, जुकाम को यह लोग टी. वी., कैंसर, स्वाइनफ्लु और न जाने क्या-क्या बना देते हैं। ऐसे-ऐसे टेस्ट करवाते हेैं जिसका नाम आम आदमी पहले कभी नही सुना होता है। बेचारा आम आदमी अपनी बाॅडी का टेस्ट करा - करा कर मेडिकल फिल्ड का टेस्ट प्लेयर बन जाता है। पहले जिस खांसी, जुकाम का उपचार दादी नानी घर पर ही कर देती थी वो अब घर पर सम्भव नहीं हो पाता क्योंकि नई-नई बीमारी के बारे में सुन कर सारा परिवार डरा-डरा सा जीता है। आज से बीस-पच्चीस साल पहले मोहल्ले में किसी-किसी नारी को बच्चा आॅपरेषन करके होता था तो वो एक ब्रेकिंग न्यूज उस मोहल्ले का होता था। परंतु अब तो पूरे मोहल्ले में बच्चा बिना आॅपरेषन के हो जाये तो वो एक ब्रेकिंग न्यूज बनता हैं, कारण बहुत से हो सकते हैं, परंतु एक कारण साफ है डरा हुआ आदमी को डाॅक्टर की भाषा और डरा देती है। बेचारा क्या करे मां और बच्चा दोनों को जिन्दा और स्वस्थ देखना चाहता है। आॅपरेषन थियेटर के बाहर महामृत्युंजय का जप करता रहता है। भीतर डाॅक्टर आॅपरेषन कर देता है। डरा हुआ आम आदमी अपनी मेहनत की कमाई देकर जच्चा और बच्चा दोनों को घर ले आता है। तीसरा व्यक्ति समाज का बाबा लोग है- इनसे मुझे बहुत डर लगता है, इनको देखने के बाद कोई मंत्र दिल से निकलता ही नहीं ही नहीं ... यह लोग अगले-पिछले जन्मो का इतिहास, भूगोल निकालने लगते हैं। पाप और पुण्य, लोभ और डर का तीर चलाकर आम आदमी की जेब से रूपया निकाल लेते हैं। भारत जैसे गरीब देष में यह बाबाओं का समुह आम जनता पर अतिरिक्त बोझ है और इस बोझ को आम आदमी चुपचाप अपने कन्धे पर उठाये हुए जी रहा है। जिस पर प्रष्न करने से आम आदमी डरता है। पता नहीं कितने पाप और अभिषाप आम आदमी ने पीछले जन्म में बटोरे होंगे कि इस जन्म में वह आम आदमी के रूप में जन्म लिया है। अब भूलकर भी धर्म और धार्मिक नेता के विरूद्ध आम आदमी कुछ नहीं बोलना चाहता .... वह अपना यह जन्म सुधारने में लगा हुआ है। भाईयों और बहनों अब एक चीज और है जिससे मुझे बहुत डर लगता है, वो है विज्ञापन, टीवी पर दिन रात नाचता-गाता, चीखता-चिल्लाता विज्ञापन, आपके घर के बजट से खेलता-कूदता, नोचता-पीटता विज्ञापन, कुछ विज्ञापन को छोड़ भी दिया जाये तो करीब-करीब अधिकतर विज्ञापन हमें डराते रहते हैं। यह नहीं करोगे तो पीछे रह जाओगे, यह नहीं पीयोगे तो जीत की तैयारी कैसे करोगे। जीवन के बाद तुमने क्या सोचा है। तुम्हारे घरो की दिवारे चीख रही है, कुछ मांग रही है तुम देते क्यों नही ? क्या तुम्हे तुम्हारे बाईक के इंजन की रोने की आवाज सुनाई नहीं पड़ती ? बस हम तो डर कर टी. वी. चैनल बदल देते हैं। पर विज्ञापन पीछा नहीं छोड़ता, बच्चो के मुंह, बीवी के मुंह कुद-कुद कर बाहर निकलता है और सारे घर में बिना संगीत के बजने लगता है। बेचारा आम आदमी, डरा-डरा अपने घर में छुपता फिरता है। बीवी और बच्चों से नजरे चुराता भागता रहता है, दरअसल इस देष में आजादी के 68 साल बाद भी आम आदमी को अधिकार नहीं है कि वह बीमार पडे़, सेहत ठीक करने के लिए हिल स्टेषन घुमने जाये, बच्चों को अंग्रेजी मेडियम में पढ़ाये, उसे आधिकार प्राप्त है कि वह खामोष रहे, समझौता करे और डर-डर कर अपनी बची हुई जिन्दगी जीयें...।
रविकांत मिश्रा
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