Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अर्थनायक

 

 

अर्थ, अर्थ, अर्थ, पूरी रात अर्थ के बारे में सोचते हुए गुजर गई। अर्थ को पाने की दौड़ में जिंदगी से अर्थ खोता चला गया। कभी चूहा, कभी बिल्ली की तरह जीवन में दौड़ता ही रहा। जिन्दगी रेत की तरह मुठ्ठी से फिसलती चली गई। मन सूना, तन्हां रेगिस्तान के किसी टीले पर खड़ा 21वीं सदी के आसमान पर विकास के सूरज को मेरा मन देख रहा है। जो आसमान के माथे पर गर्व से मुस्कुरा रहा है। पर मुझे उसकी मुस्कुराहट में व्यंग्य के बाण चलते हुए दिखाई दे रहे हैं। हर बाण एक ही बात कहता है, देख कहां खड़ा! है तू? रेत के टीले पर? आज अर्थ से तेरा जीवन भरा है, तेरे आस-पास अर्थ चक्कर लगा रहा है, अर्थ आज तेरी शक्ति है, पर इस अर्थ से क्या तू जीवन का अर्थ खरीद सकता है? नहीं जीवन का अर्थ खरीदा नहीं जा सकता, क्योंकि जीवन का अर्थ दुनिया के किसी बाजार में नहीं बिकता। जीवन का अर्थ स्वयं में खोजना पड़ता है पर कैसे? कहां से शुरू करूं? हर दरवाजे पर मैंने अपने अर्थ के प्रतिबिम्ब को पहरेदार की तरह बैठा दिया है। वो हर बात के लिए मुझसे अर्थ मांगता है, समय का निवेष यानी अर्थ परिणाम के रूप में आना चाहिए। मुझे कुछ कहना होगा, अपने इस अर्थ महल से बाहर निकलना होगा। जो सच है उसका मुझे सामना करना होगा। जिससे मैं अबतक भागता रहा हूं .... बाबा ठीक कहते थे अजनवी शहर में आकर मैं भी स्वंय से अजनवी बन गया... मेरे भीतर जो बाबा का प्रतिबिम्ब था वो मेरे मन में कहीं अदृष्य हो गया है। कहां खो गया? कहां चला गया? वो नगाड़े का स्वर, मांदल की थाप, बांसुरी की धुन, लगता है सबकुछ वाष्प बनकर मेरे मन की मिट्टी से उड़ चुका..... हां कभी-कभी एकांत में दूर से ओते के दर्द भरे गीत बहुत धीमी स्वर में सुनाई देते हैं। जैसे ओते इस गीत को गाते-गाते बहुत थक गई हो। जैसे उसकी ऊर्जा समाप्त हो रही हो, जैसे गीत उसके मन में सोना चाहते हांे। बहुत लम्बा जगारण हुआ है। सोलह साल.... एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद मन शून्य हो जाता है। ओते का मन भी मेरे लिए शून्य हो गया होगा। परंतु फिर भी उसकी शून्यता में उसे एक संतोष होेगा। संतुष्टि इस बात की उसने वही किया जो उसके मन ने उससे कहा। मन के विपरीत ओते कभी नहीं गई। सदा नदी की धारा की तरह जीवन में बहती गई। इसलिए मुझे लगता है ओते ने सबकुछ खोकर भी जीवन-अर्थ को पा लिया। स्यवं कोे स्वीकार कर अपनी धुरी पर नृत्य कर रही होगी। दूसरी तरफ मैं धुरीहीन पिंड की तरह अपने मन के आकाष में भटक रहा हूं.... उफ! काश! समय पर मैं बाबा की बात समझ पाता तो मेरी जिंदगी कुछ और होती और उस जिंदगी में अर्थ के साथ जीवन का अर्थ भी होता परंतु उस वक्त उनकी बात सुनकर मैं कान में मोबाइल का इयर फोन डाल लेता था। कितना षिक्षित बेवकूफ आदमी था मैं ! और आज भी हूं। भौतिक साधनों में जिन्दगी के अर्थ खोजते रहा, नए अर्थ बनाता रहा, फिर उस अर्थ को दंभ के साथ भोगता रहा। परंतु सभी अर्थ कुछ दिनो बाद बांस की तरह खोखले साबित हो गये। अब साधनों में नहीं, अपने में अपने जीवन का अर्थ खोजने की कोषिष करूंगा। उम्र के इस मोड़ पर एक नई शुरूआत करूंगा। चलो रे मन वक्त की उंगली पकड़। सुबह हो चुकी है, अपनी जीवन की सुबह की तलाष करनी होगी। इस विचार के साथ मैं अपने डुप्लेक्स से निकल पड़ा, बिना कार के, बिना किसी सामान के, एक आम आदमी की तरह सड़क पर चलना शुरू कर दिया। कई वर्षों बाद सड़क पर पैदल चलना अच्छा लग रहा था, ऐसा लग रहा था कि मैं जिन्दगी के साथ-साथ चल रहा हूँ। आज जिन्दगी से तेज भागने की कोई जल्दी नहीं थी। थोड़ी देर बाद मैं उस बस अड्डे पर पहुंचा जहां आज से सोलह साल पहले एक ऐसी सुबह मैं अपने बाबा को बस पर बैठाने आया था। आज सोलह साल बाद उसी बस अड्डे से मैं अपनेे गांव के लिए बस पकड़ने के लिए आया हूँ.... ऐसा लगा जैसे कल की बात हो, मैं रूक गया था उसी दिन, उसी पल में, मेरा मन रूक गया था। वक्त गुजरता गया पर मन रूका रहा... उस यात्री की तरह जो गाड़ी पर चढ़ना चाहता था। कई बार गाड़ी भी आई, परंतु यात्री अपनी यात्रा शुरू नहीं कर पाया। पर आज यात्रा शुरू हो गई। अब जो होगा उसका मैं सामना करूंगा। बाबा और ओते का मैं अपराधी हूं और सबसे अधिक अपराधी मैं उस मासूम बच्चे का हूं जिसे मैंने अपना ख्ूान मानने से इन्कार कर दिया। आह! कितना स्वार्थी हो गया था मैंे? सचमुच स्वार्थ का नषा हमारे रिष्ते की भावना को बेहोषी की नींद सुला देता है। सोलह साल तक तो मैं सोया ही रहा। कभी-कभी जागने की कोषिष की तो वक्त ने पीछे से धक्का जोर का मारा और मैं दौड़ चक्र में दौड़ता ही चला गया। परंतु आज कोई दौड़ नहीं है.... आज बहना चाहता हूं नदी की तरह हौले-हौले, आहिस्ता-आहिस्ता। इसी चाहत के साथ बस की खिड़की वाली सीट पर बैठ गया। खिड़की से बाहर मेरी आंखे शहर की भागती दौड़ती जिन्दगी को देखती रही। कुछ पल बाद बस ने चलना शुरू कर दिया, आंखो के सामने जिन्दगी के दृष्य बदलने लगे, मैं बदलते हुए दृष्य में डूबता, उबरता, अतीत के पन्ने को पलटता, अपनी जिन्दगी के अनछुये, अनकही बातों से उलझता, उसे समझने को प्रयास करता तो कभी उसे समझाने का प्रयास करता, अन्त में थक कर खामोषी से उसे देखने लगा। वो अपना अधूरा से चेहरा लेकर मुझे अंगूठा दिखाता, मुझ पर व्यंग्य से हंसता, उसकी हसी की ऊर्जा से मेरे टीले से रेत उड़ने लगती.... मैं हारे हुए योद्धा की तरह अपनी बुनियाद को हिलता हुआ देखता। सचमुच उम्र के पचासवें वर्ष में जिन्दगी इतनी तन्हा और खोखली हो जायेगी इसकी कल्पना पहले कभी नहीं हुई। पर इन सभी बातों के लिए जिम्मेदार तो मैं ही हूं ना। जरूरत की बुनियाद पर रिष्ते बनाये तो रिष्ते जरूरत के खत्म होते ही खत्म हो गये। क्या रिष्ते हमारी सिर्फ जरूरत है? या रिष्ते हमारे जीवन का आधार है? बुनियाद है? मैं चुक गया जरूरत और बुनियाद के बीच के अन्तर को समझ नहीं पाया। चलो फिर से शुरू करते हैं, शायद मेरे जीवन को रिष्तों की बुनियाद मिल जाये। इस विचार के साथ मैंने अपनी आंखें बंद कर ली और सीट पर अपने आपको निढाल छोड़ दिया। कुछ पल बाद मेरी आंख लग गई। पर पूरी तरह सोया नहीं था और ना ही पूरी तरह जाग रहा था। नींद और होष के बीच पेंडुलम की तरह झूलने लगा। अतीत वर्तमान के दृष्य आपस में मिलकर मेरे मानस पटल पर एक कोलाज सा बनाने लगे। फिर मानस पटल पर एकदम अंधेरा सा छा गया। कुछ पल बाद फिर अंधेरे में छऊ नृत्य के मुखौटे तेजी से उभरने लगे। मैं अपने आपको मुखौटो के बीच घिरा हुआ देखे रहा था। मुखौटे मेरे चारो तरफ नाचने लगे। मांदल और नगाड़े की धुन मुझे सुनाई देने लगी। तभी अचानक बाबा मुखौटे के बीच नगाड़ा बजाते हुये दिखाई दिये। मुखौटे हवा में तेजी से नाच रहे थे बाबा नगाड़ा बजाने में व्यस्त थे तभी अचानक सभी मुखौटे कटे हुये सखुआ पेड़ के पास जाकर अदृष्य हो गये। बाबा घर के आंगन अकेले खड़े नगाड़ा बजाते रहे, एकटक सखुआ पेड़ की तरफ देखते रहे। कुछ पल बाद बाबा का नगाड़ा बजाना धीमा पड़ने लगा फिर बाबा का हाथ नगाड़ेे पर रूक गया। चारो तरफ एक भयंकर सन्नाटा सा छा गया, बाबा सन्नाटे में खड़े रहे फिर नगाड़ा गले से उतार कर जमीन पर रख देख दिये और पास रखी टांगी को उठा लिए। एक नजर टांगी की धार पर डाली और तेजी से सखुआ पेड़ के पास चले गये। टांगी सखुआ पेड़ के पास रख सखुआ पेड़ से हाथ जोड़कर बोले ‘‘बेटा मुझे माफ करना, आज एक बेटे को षिक्षित करने के लिए दूसरे बेटे की बलि चढ़ाऊंगा’’ इतना बोल बाबा टांगी उठा लिए और रोने लगे, रोते हुए बाबा पेड़ की कमर पर टांगी से प्रहार करने लगे। बाबा अपने हर प्रहार पर रोते, चीखते जैसे बाबा पेड़ पर नहीं अपने शरीर पर प्रहार कर रहें हो। परंतु बाबा के हर प्रहार पर पेड़ जोर से हंस रहा था, पेड़ का पत्ता-पत्ता हंस रहा था। इस तरह बाबा रोते, बिलखते हुए पेड़ पर प्रहार करते रहे, पेड़ हंसते-हंसते कटता रहा। फिर इस क्रम में एक पल ऐसा भी आया जब पेड़ अंतिम बार जोर से हंसा और जमीन पर सिर कटे पंछी की तरह गिर गया। कोई तड़प नहीं, कोई चीख नहीं सबकुछ शांत... और फिर अचानक मेरे मानस पटल पर अंधेरा सा छा गया। मैं बेचैन हो गया, बेचैनी से डरकर आंखे खोली, बस तेजी से सड़क पर भाग रही थी। सड़क के दोनों तरफ सुनसान पठार थे, पत्थरों का पिरामिड या पत्थरों और चट्टानों का जंगल दूर-दूर तक फैला हुआ था। कहीं-कहीं बीच में दो चार सूखे बृक्ष भी थे जो सूर्य की रोषनी में नंगे खड़े थे। फूल पत्ती और हरियाली से मुक्त, आकाष की तरफ एकटक देखते, जीवन की दुआ मांग रहे थे या मृत्यु का वरदान। जिन्दगी का यह दृष्य मुझे मेरे अन्तःमन का हिस्सा लगा। नीरस, वीरान, अर्थहीन, जीवन और मृत्यु के बीच फंसी जिन्दगी... अपनी खोज में भटकती जिन्दगी आज अपने होने का अर्थ तलाष रही थी। जैसे मेरे होने का अर्थ क्या है? मौत से पहले मर जाना और दफनाया जाना, कई वर्षों बाद या मरकर भी अपनी रोषनी में सदा जिन्दा रहना, या अपनी नजरों में जिन्दा रहना। विचारों का अंधड़ मेरे दिलो दिमाग को तेजी से दौड़ा रहा था और मेरे साथ दौड़ रही थी बस। सखुआ पेड़ का हंसना, बाबा का रोना, मुखौटो का नाचना, मेरा उनके बीच खड़ा रहना यह सबकुछ मुझे पुकार रहे थे। कई प्रष्न उनकी पुकार में मुझे सुनाई दे रहे थे, परंतु उन सभी प्रष्नों का उत्तर मेरे पास एक ही था मेरी खामोषी। सोलह साल की खामोषी। क्या मेरी खामोषी से कोई जीवन-गीत का जन्म होगा? या फिर मैं रह जाऊंगा सदा के लिए नागफनी सी चुभती अपनी इस खामोषी में कैद? दूसरे दिन दोपहर के बाद बस रांची-टाटा हाईवे पर उस जगह रूकी जहां मुझे उतरना था। मैं बस से नीचे उतरा अपने चारो तरफ देखा सबकुछ वैसा ही था जैसा मैं छोड़कर गया था। वही दलमा पहाड़, वही जंगल, वही जंगल के बीच गांव और वही हाईवे से पहाड़ की तरफ जाती कच्ची लम्बी पगडंडी जो जंगल में जाकर अदृष्य हो जाती है। वो आज भी उसी तरह अदृष्य हो रही थी। कुछ भी तो नहीं बदला है। इस बात पर मेरे मन ने मुझसे पूछा, क्या यहां सबकुछ बदल जाता तो तुम्हे अच्छा लगता? नहीं मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। अब मुझे लगता है कुछ चीजें हमारे जीवन में कभी नहीं बदलनी चाहिये। जैसे क्या? और मेरे दिल से आवाज आई नदी, पहाड़, झरने, खेत, खलियान, जंगल और हमारे ढोल, नगाड़े, मांदल, गीत, नृत्य, अपनी बोली। यह सुन मेरा विवेक मुझ पर ठहाका मारकर हंसने लगा और हंसते हुए बोला अरेे पलास आज तू तो बिल्कुल अपने बाबा की तरह सोच रहा है, यह सोच तेरी पहले नहीं थी। याद कर बाबा ने आज से सोलह साल पहले बस अड्डे पर क्या कहा था? हां मुझे याद है इस बात को मैं कैसे भूल सकता हूं। पिछले सोलह साल में हर दिन बार-बार बाबा के कहे शब्द मेरे दिल, दिमाग पर चोट मारते रहे ‘‘बेटा इस शहर में दौड़ते-दौड़ते मानव मानव से क्या बन जाता है’’ हां बाबा आपने ठीक ही कहा था। मानव मानव से क्या बन जाता है! आज मैं जान गया हूं मानव मानव से अति मानव बन जाता है या अति मानव बनने की चाह में दौड़ता रहता है परंतु अति मानव में जीवन का अर्थ कहां छुप जाता है? क्या अति मानव और मानव दोनों एक-दूसरे की अनुपस्थिति में जिन्दा रहते हैं? सड़क के किनारे खड़ा मैं अपने इस प्रष्न से उलझा हुआ था तभी एक ग्रामीण व्यक्ति मेरे पास आया और बड़े प्यार से बोला ‘‘जोहार’’ उसकी आवाज सुनकर मैं अपने विचारों की दुनिया से वर्तमान में आ गया और मेरे मुख से अपने-आप निकल गया... जोहार! आज सोलह साल बाद इस शब्द की ध्वनि को अपने मन में प्रतिध्वनित होता हुआ अनुभव करना मेरे लिए अद्भुत था। ऐसा लगा जैसे पल भर में मैं इस ध्वनि की गहराई में डूबता चला गया हूं। तभी उस अधेड़ व्यक्ति ने पूछा... कौन गांव जाओगे? मेरे मुख से एकदम निकल गया दुलभी! यह सुनकर वह बोला ‘‘षाम होने से पहले निकल जाओ, पहले जेसा समय अब रहा नहीं, जंगली जानवरों से कहीं ज्यादा डर नक्सलियों का है। सूट-बूट में हो, उठाकर ले जायेंगे, सबकुछ छीनकर मार देंगे। यह सुनकर भीतर से सूखे पत्ते की तरह कांप गया मैं। फिर साहस जुटाकर मैं अपने आप से बोला... मैं आदिवासी हूं, भला नक्सली मेरा क्या बिगाड़ लेंगे। उनकी लड़ाई तो व्यवस्था से है। चलो चल पड़ते हैं करीब एक घंटे पैदल चलना होगा यह सोचकर मैं पगडंडी पर चलने लगा। काॅलेज के दिनों में मुझे अक्सर इस पगडंडी से गुजरना पड़ता था तो जेब में माचिस और पटाखें रख लेता था। अगर हाथी और भालू रास्ते में कहीं आ जाय तो पटाखें फोड़कर उन्हें भगाया जा सकता था। इस तरह हमारी दीवाली सरकारी वन विभाग के पटाखें पर कभी भी मना ली जाती थी। आज तो पटाखें और माचिस भी नहीं है, चलोे जो होगा देखा जायेगा। इस विचार के साथ मेरे कदम पगडंडी पर तेज हो गये। सूरज डूबने ही वाला था और मैं अपने खपरैल मिट्टी के घर के पास पहुंचा, दिल जोर से धड़कने लगा। मन में भावनाओं की अनगिनत लहरें उफान मारने लगी, गला सूखने लगा, हाथ पैर में कंपन सा होने लगा। तभी मन ने कहा... पलास कैसे सामना करोगे बाबा और ओते का? क्या तुम्हारे पास उनके प्रष्नों का कोई जवाब है? तुम स्वार्थी हो, एक दिन अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए तुम बाबा, ओते और अपने होने वाले बच्चे को छोड़कर चले गये। बेटे के जन्म पर भी तुम उसे देखने नहीं आये। उल्टा तुमने बाबा से कह दिया वो बच्चा सिर्फ ओते का है। आज तुम वापस आये हो, सोलह साल बाद। क्यों आये हो? पलास आज भी तुम अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए आये हो, अपने खाली, बेरंग, खोखले जीवन में अर्थ खोजने आये हो, रिष्तों का आधार पाने आये हो, बोलो क्या यह सच नहीं है? हां ये सच है कि मैं सिर्फ अपने स्वार्थ के बारे में सोचता रहा हूं और आज भी साचता हूं। परंतु मैं ऐसा ही हूं। मैं जिस दौड़ चक्र का हिस्सा अबतक रहा, उस दौड़ में सभी लोग मेरे जैसा ही होते हैं। सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए जीना और यही जीना हमें किसी खपरैल मिट्टी के घर के पास लाकर भिखारी की तरह लाकर खड़ा कर देता है जहां से हम यह उम्मीद करते हैं कि हमें यह मिट्टी, खपरैल का घर स्वीकार कर ले। जिसे हमने कभी अस्वीकार कर दिया था। शायद हम फिर वैसा हो जायें जैसा हम वास्तव में थे। दरअसल हम भूल चुके हैं कि हमारा चेहरा वास्तव में कैसा था? मुखौटो से दूर अपना चेहरा, बिल्कुल अपना चेहरा जो हम लेकर पैदा हुये थे। तभी घर के दरवाजे से ओते बाहर निकली, सामने कंटीले बाड़ के पीछे एक शहरी आदमी को देख वह अपनी जगह ठिठक कर रूक गई, आंचल से परदा करते हुये पूछी... आप किसे खोज रहे है? मन से तुरंत आवाज आई पलास को! पर बोल नहीं पाया। कंठ से बोल नहीं फूटे, चुपचाप खड़ा ओते को देखता रहा। ओते पहले से दुबली और कमजोर हो गई थी। उसके घने काले बाल भी बीच-बीच में पकने लगे थे। परंतु उसकी आवाज में वही बात थी। कोयल सी सुरीली और पायल की खनक। आपको किससे मिलना है? ओते दूसरी बार पूछी। इस बार मेरे कंठ से बोल बड़ी मुष्किल से निकले... ओते मैं हूं पलास! मेरी आवाज सुन ओते बिजली की तरह पलटी और मेरी तरफ देखी उसे अपने आंखों पर विष्वास नहीं हो रहा था। वो आष्चर्य से बड़ी-बड़ी आंखे कर एकटक मेरी तरफ देख रही थी। दो पल बाद उसका शरीर जोर से कांपने लगा उसके मन में भावनाओं का सुनामी तेजी से उठा, उसका शरीर हवा में लहराते हुये तेजी से दो कदम आगे बढ़ा और लड़खड़ाते हुये पास खडे़ नीम के पेड़ का सहारा लिया। अगर ओते सहारा नहीं लेती तो जमीन पर गिर जाती। वो नीम के पेड़ को पकड़कर हांफने लगी जैसे वो मीलों दौड़ कर आई हो। उसके बाद ओते फफक-फफक कर रोने लगी, रोते हुये नीम पेड़ से लिपट गई। यह देख मैं तेजी से उसकी तरफ भागा, उसके बिल्कुल पास जाकर ठहर गया। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, कि मैं क्या बोलूं? सिर्फ इतना ही बोल पाया ओते! और ओते मेरे तरफ पलटी, उसका चेहरा आसुंओं से भींग चुका था। उसका रोम-रोम आसुंओं में डूबा हुआ था। मेरी आंखे ओते की भींगी हुई आंखों से जा मिली। उसकी आंखों में दुःख, अकेलापन, खुषी, षिकायत की सभी लहरें आपस में टकरा रही थी। यह देख मेरे अवचेतन में दबा मेरा अपराध-बोध मेरे हृदय पर जोर-जोरे से मुक्का मारने लगा, मेरा रोम-रोम मुझे धिक्कारने लगा। इस पल मुझे स्यवं से नफरत सी होने लगी। मेरी आत्मा जोर से चीखी, हत्यारा है तू! तूने ओते की भावना की हत्या की, उसके विष्वास और प्रेम की हत्या की, उसके र्निदोष मन की हत्या की। अब तू ओते से माफी मांग कर उससे नफरत करने का हक मत छीन। तेरी यही सजा है कि ओते तुझसे जीवन भर नफरत करती रहे। कुछ देर हम ऐसे ही एक-दूसरे के सामने खड़े रहे, एक-दूसरे को देखतेे रहे, एक-दूसरे के बीच सिसकती खामोषी को सुनते रहे। फिर ओते के कांपते हाथ मेरी तरफ बढ़े, मैंने उसके हाथ को बीच में ही थाम लिया। ओते मेरे हाथ का सहारा लेकर आगे बढ़ने लगी, मैं ओते के साथ-साथ चलते हुये घर के भीतर कदम रखा। अपने घर में, मिट्टी और खपरैल के घर में, जहां मेरा जन्म हुआ था.... जहां मैं बचपन से जवान हुआ था, जहां मेरा और ओते का प्रेम पला था, जहां हमारा मिलन हुआ था। घर बिल्कुल वैसा ही था लालटेन की फिकी रोषनी में मैं अपने घर की यादो में खोने लगा। वही चूल्हा, ढेकी, बांस की टोकरी, हसिया, टांगी, अरे यह दिवाल पर शेर और हिरण के मुखौटे ! और यह तस्वीर किसकी है? जिसमें एक अधेड़ आदमी चष्मा लगाये ओते औरे एक बच्चे के साथ खड़ा है। मैं प्रष्न करने ही वाला था कि ओते बोली.... ये कमलदेव है, यह सिंगी है, मेरा बेटा.... जिसे तुमने अपनाने से... खैर! छोड़ो पुरानी बातें... तुम बताओ आज इतने सालों बाद घर की याद कैसे आई? बाबा कहां हैं? मैं प्रष्न से बचते हुये दूसरा प्रष्न कर दिया। हलांकि प्रष्न करते समय मैं एक बार भीतर से कांप गया। मेरी बात सुन ओते दीया थाली में रखते हुये बोली.... चलो बाबा के पास। इतना ओते मेरा हाथ पकड़कर घर से बाहर ले आई उस जगह पर जहां सखुआ का कटा हुआ पेड़ था। बाबा वहां आराम से सोये हुये थे। चिरनिंद्रा में लीन। कब्र कोे सीमेंट से ऊंचा कर दिया गया था। ओते कब्र पर दीया जलाकर बोली... देखो बाबा आज सोलह साल बाद झारखण्ड का पलास झारखंड के जंगल में वापस लौटा है। इतना बोलते-बोलते कब्र पर सिर रखकर रोने लगी। यह देख मेरी आत्मा सूखे पत्ते की तरह मेरे शरीर के भीतर कांपने लगी। दिल, दिमाग दोनों एक साथ चीखा, देख पलास तेरा दर्पण टूट चुका है, तू जिसका प्रतिबिम्ब था वो इस कब्र में सदा के लिए सो चुका है। तेरी सफलता असफलता से कोसो दूर। अब तू कभी अपने बाबा से नहीं मिल पायेगा। इस विचार ने मुझे तोड़ दिया, मैं कब्र का सहारा लेकर घुटनों के बल जमीन पर बैठ गया सिर बाबा की कब्र पर रख दिया। इसके बाद बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोने लगा। एक तरफ ओते रो रही थी दूसरी तरफ मैं, हमदोनों बहुत देर तक रोते-सुबकते रहे। तभी एक कोमल हाथ का स्पर्ष मैंने अपने सिर पर महसूस किया, यह हाथ ओते का था। इस स्पर्ष को भला मैं कैसे भूल सकता था। उसके स्पर्ष में वही बात थी। प्रेम और वात्सल्य की धारा दोनों एक साथ बह रही थी। मेरे मन की बंजर जमीन पर कई वर्षों बाद घनघोर बारिष शुरू हो गई। मेरा रोम-रोम बारिष की बूंदों में भीगने लगा। मेरे हृदय की सूखी नदी में भावनाओं और उम्मीद के अंकुर फूटने लगे। मैं ओते के साथ इस पल में एकाकार होता गया। तभी मन से आवाज आई कितना अंतर है, स्पर्ष में, संबंधों में, एक नारी से दूसरी नारी में, एक संबंध वो भी था जिसके होने ना होने का अर्थ मुझे कभी अनुभव नहीं हुआ। सोलह साल साथ रहने के बाद मेरी पत्नी और बेटा अवसर मिलते ही अमेरिका चले गये। दूसरी तरफ ओते है, सोलह साल बाद भी उसके हृदय में मेरे लिए वही भावना है। मैं ओते के साथ अपनी भावना की नदी में डूबता जा रहा था। तभी ओते की आवाज ने मुझे नदी से बाहर निकालकर सूखी रेत पर उछाल दिया। उसके प्रष्न में मुझे हजारों हथौड़े की चोट सुनाई दी। पलास तुमने यह नहीं पूछा कि उस तस्वीर में कमल बाबू कौन हैं? ये सुन मुझे करंट सा लगा, दो पल के लिए खामोष रह गया। फिर धीरे से अपनी जगह से उठा और ओते की तरफ देखने लगा। दीये की रोषनी में ओते का चेहरा पत्थर की तरह सख्त था। वो मेरी तरफ देखते हुये बोली... कमल बाबू शहर से यहां आते हैं, हमारे लिए, हमारे जंगल के लिए, हमारी संस्कृति के लिए, हमारे पशुओं के लिए। वह जल, जंगल, जानवरों को बचाने का काम कर रहेे हैं। जब भी आते हैं हमारे यहां रूकते हैं। मेरे और उनके बीच एक रिष्ता है... जैसे जंगल और मानव के बीच होता है। उन्हें सिंगी से बहुत प्यार है और सिंगीे भी उन्हें बहुत चाहता है। आज सिंगी छऊ नृत्य करने शहरों में जा पाता है तो उसके पीछे कमल बाबू का हाथ है। यह सुनकर मेरे भीतर मन में एक शून्य-सा भर गया। मैं क्या सोच रहा था? और क्या सच था? बिल्कुल मेरी सोच से उल्टा। तभी ओते बोली.... पलास इतने वर्षों बाद आज भी तुम्हारी आंखो में इतनी हलचल क्यों है? बेचैनी क्यों है? मुझे लगता है कि तुम अब भी अपने मन की गुफा में जुगनू की तरह भटक रहे हो जैसे तुम कुछ खोज रहे हो और तुम यह भी नहीं जानते कि तुम्हे क्या चाहिये? अर्थ, अपने जीवन का अर्थ, मेरे होने का अर्थ, मैं क्यों हूं? मेरे पास दुनियां की सारी चीजें परंतु मैंने वो क्या चीज खो दी है? वो क्या चीज है? जिससे ‘जीवन’ जीवन सा लगता है। शायद तुम्हारे पास वो चीज है और क्या मैं तुमसे वो चीज पा सकूंगा? यह सुनकर ओते मुस्कुरा दी उसकी मुस्कुराहट में व्यंग्य का एक बाण था जोे सीधा मेरे मन में उतर गया। वो मुस्कुरा कर बोली... पलास तुम आज भी यहां कुछ पाने ही आये हो, देखो, अपने चारों तरफ देखो जंगल, पहाड़, नदी ये सब कुछ भी पाने की अभिलाषा में नहीं जी रहे हैं। ये सभी जी रहे हैं हमारे लिए, इनके जीवन का अर्थ इनके जीने में। फिर पलास जीवन में अर्थ खोजने से नहीं मिलता है.... जीवन खोज लो अैार उसे जीना शुरू कर दो, अर्थ महकने लगेगा उसी तरह जैसे महुआ अपने पकने पर महकने लगता है। इतना बोलकर ओते घर भीतर चली गई और मैं अकेला खड़ा रह गया। कब्र के बगल में वही कटा हुआ सखुआ का पेड़ था मैं धीरे-धीरे चलते हुये सखुआ के पेड़ के पास पहुंच गया। जो जमीन से अब भी तीन फीट उपर सिर उठाकर खड़ा था। सूखा, नीरस, नंगा, मेरे हाथ उसके नंगे शरीर को स्पर्ष करने लगे, मुझे ऐसा लगा मैं स्वयं को ही स्पर्ष कर रहा हूं। खुरदरा किसी पत्थर की तरह सख्त उसका शरीर था। उसे स्पर्ष करना ऐसा लग रहा था कि भीतर से मैं भी ऐसा ही हो गया हूं। खुरदरा, नीरस, नंगा अपनी नजरों में, खड़ा हूं अपनी आत्मा के सामने अर्थ-नायक के रूप में। मेरे हाथ सूखे वृक्ष को स्पर्ष करते-करते ठहर गये, नजर आसमान की तरफ उठ गई किसी याचक की तरह मुझे लगा लाखों तारे आसमान से एक साथ घूरने लगे। मैने झट अपनी आंखे बंद कर ली तभी जंगल के सन्नाटे में नगाड़ा बजने लगा, मांदल की थाप और बांसुरी की धुन में जंगल ने डूबना शुरू कर दिया, यह सुन घर के भीतर से ओते गीत गाने लगी। आज उसकी आवाज में दर्द के साथ उल्लास भी था। मैं आंखें बंद किये सुनता रहा, सोलह वर्ष बाद यह संगीत मेरे भीतर महुआ रस की तरह धीरे-धीरे उतरने लगा था। मैं धीरे-धीरे ओते के गीत में डूबने लगा, एकाकार होने लगा, कुछ पल बाद इतना एकाकार हो गया कि जैसे मुझे लगा ये गीत ओते नहीं मैं गा रहा हूं। गीत की ध्वनियां मेरे हृदय से फूट रही है। मेरे आंखों से खारा पानी रिसने लगा, मेरे भीतर की बर्फ उस खारे पानी में पिघलने लगी, उसके साथ मेरे मन दर्पण पर एक चेहरा धीरे-धीरे साफ होने लगा। कुछ पल बाद मैं उस चेहरे को पहचान पाया यह जंगली पलास का चेहरा था। ओते और बाबा के पलास का चेहरा था। वर्षों बाद मैं जीने लगा अपने आपको, अपनी जमीन को, जंगल, नदी, हवा और रोषनी को। तब मुझे लगा कि अंधेरी गुफा से जुगनू को बाहर निकलने का रास्ता मिल रहा है। रास्ते छोटे हों या लम्बे इसी रास्ते पर चलना है मुझे जीवन भर।

 

 


रविकांत मिश्रा

 

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