दुल्हन की मंडी में झारखण्ड की पारो को कोई देवदास नहीं मिला, मिले तो जिस्म के खरीदार! जे जिस्म खरीदते, इस्तेमाल करते, और फिर कुछ सालों बाद उसी मंडी में पुराने हो रहे जिस्म को बेच देेते। दुल्हन की मंडी में झारखण्ड की पारो बेच दी गई ..... पारो, पारो से पंचाली बन गई। एक ही परिवार के पाँच भाईयों ने पचास हजार देकर पारो को मोल लिया था। पारो पाँच भाईयों की पत्नी बन गई थी। पाँचों भाईयों का पारो पर बराबर का हक था। आखिर पाँचों भाईयों ने दस - दस हजार रूपये देकर पचास हजार की रकम जो पूरी की थी ...... उस घर में एक कुंती भी थी, जो अंधी थी .... पहले दिन ही पारो के पैर में मोटे - मोटे चाँदी की जंजीर डाल दी थी । हमेषा कुंती के कान खड़े रहते, पायल की घंटी सुनती रहती। थोड़ी देर के लिए अगर पायल की घंटी बुढ़िया को सुनाई नहीं देती, तो बस कुंती महारानी के सूर खुल जाते ..... पंचम स्वर में चीखना शुरू कर देती .... अरे झारखण्ड की पारो ..... कल मुँही, पांच भतारी, कहाँ मर गई ...... सामने आ .... तब अगर पारो शौच में भी होती तो उसे बाहर निकल कर आना पड़ता। यह थी पारो की जिन्दगी ... जो जिन्दगी न हो कर नरक बन चुकी थी। हर रात पाँच - पाँच शराबी राक्षस मर्दों की काम पिपासा को संतुष्ट करना .... जो नरक की आग में झुलसने जैसा था। हर रात पारो अपने नारी होने पर स्वयं को धिक्कारती थी। झारखण्ड के आदिवासी समाज में पैदा होने पर अपने - आपको कोसती थी। उसके शरीर का रोम - रोम ही नहीं उसकी आत्मा भी लहूलुहान हो चुकी थी, फिर भी पारो जी रही थी। जीवन को सजा मान कर सजा काट रही थी। बस उसे इन्तजार था अपनी मौत का, मौत ही उसे इस सजा से मुक्ति दिला सकती थी। इसलिए पारो सब कुछ भूल कर मौत के इंतजार में जी रही थी। परंतु एक रात पारो का सब्र कच्चे घड़े की तरह टूट कर बिखर गया। जब वो पाँचों भाईयों को यह बातें करते हुए सुनी िकवे सभी पारो को वापस मंडी में बेच कर नई पारो अपने लिए लायेंगे। यह सुनते ही पारो के दिलो दिमाग में आग सी लग गई, नफरत और गुस्से से उसकी आत्मा उसे धिक्कारने लगी .... उसकी आत्मा ने उसके मुँह पर एक जोरदार तमाचा मारते हुए कहा ...‘‘ मर - मर कर जी रही है एक बार जीने की कोषिष में अगर मर जायेगी तो तु क्या खो देगी ... कुछ भी नहीं ..’’ यहाँ से भागने में सफल हो गई तो इस नरक से मुक्ति ... और भागते हुए मारी गई तो इस नारकीय जीवन से मुक्ति’’। बस पारो ने तय कर लिया, दूसरे दिन आधी रात के बाद पारो ने धीरे से चाँदी की पायल अपने पैर से उतार कर पोटली में बांध ली। इसके बाद पारो राजस्थान के उस गांव से भागी, उस समय उसे तीन महीने का गर्भ था। उसे कहाँ जाना था, मालूम नहीं ..... बस वह एक दिषा में भागती रही। इस समय भागना ही उसके जीवन का उ६ेष्य था। रात भर पारो भागती रही, सुबह की पहली किरण पड़ते ही पारो एक पक्की सड़क पर खड़ी थी, जहाँ उसे सवारी से लदी एक बस में पैर रखने की जगह मिल गई। बस दिल्ली आ गई, इसके साथ पारो दिल्ली पहुँच गई। दिल्ली बस अड्डे पर पहुँचने के बाद पारो ने उस चाँदी की पायल को बेच दी, जिसके जंजीर में वह पाँच साल तक कैद रही। आज उस गुलामी की जंजीर को बेच कर वह अपनी आजादी खरीदने की कोषिष कर रही थी। जो रूपये पायल बेचने से मिले, उसे झारखण्ड राँची आने की टिकट खरीद ली, ट्रेन रात में थी, दिन भर पारो स्टेषन पर डरी - डरी एक कोने में चुपचाप बैठी रही। उसे यह डर सता रहा था कि कहीं वे पाँच राक्षस उसके पीछे यहाँ न पहुँच जाये। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, ट्रेन आई और पारो डरते - डरते एक डिब्बे में चढ़ कर खिड़की के पास बैठ गई। ट्रेन जब तक नहीं खुली, तब तक पारो का दिल तेजी से धड़कता रहा, ट्रेन के खुलते ही पारो ने चैन की सांस ली और खिड़की के बाहर देखने लगी .... नये दृष्य, नये रास्ते उसका स्वागत कर रहे थे। अतीत के भयानक लम्हों से कोसों दूर पारो अपने झारखण्ड राज्य के बारे में सोच रही थी .... खास कर राँची के बारे में अपने गांव पाकुड़ के बारे में .... जहाँ उसका जन्म दमोदर नदी के बालु पर हुआ था, उसके माता-पिता उस वक्त मछली पकड़ने गए थे। इसलिए माता-पिता ने उसका नाम रखा दामुदी .... दमोदर की गोद में पैदा हुई, इसलिए उसे दामुदी नाम दिया गया। जो दुल्हन की मंडी में पारो के नाम से बदल गया .... दरअसल, राजस्थान, हरियाणा के सरहद पर मेवात जिले में दुल्हन की मंडी सजती है, जिसमें झारखण्ड की नाबालिग बेटियों की खरीद-फरोख्त होती है। यहाँ इस मंडी में झारखण्ड की बेटियों को झारखण्ड की पारो के नाम से पुकारा जाता है। टेªेन की गति तेज हो गई थी, दामुदी ने थक कर अपनी आंखें बंद कर ली। ..... रात के अंधियारे में जिन्दगी भाग रही थी, और जिन्दगी सो भी रही थी, कल सुबह के इंतजार में। सुबह के करीब दस बजे होंगे, दामुदी राँची पहुँच गई, पाँच साल बाद राँची स्टेषन को देख रही थी, जहाँ से उसे एक दिन भेजा गया था, यह बोलकर कि उसे एक घर में दाई का काम करना है, बहुत कुछ बदल गया था ..... अगर कुछ नहीं बदला था .. तो राँची स्टेषन के वे कुली और भिखारी, वे पाँच साल पहले भी वैसे ही थे ... पांच साल बाद भी वैसे ही हैं। दामुदी रेलवे स्टेषन से बाहर निकल कर पैदल मुख्य सड़क की तरफ चलने लगी। करीब पचास कदम चलने के बाद उसे सामने से एक जुलूस आता हुआ दिखाई दिया। बहुत से आदिवासी औरत, मर्द, युवक युवतियाँ हाथ में हरा झंडा लिए हवा में हाथ हिला - हिला कर नारे लगा रहे थे - इन्कलाब जिन्दाबाद, बिरसा मुण्डा जिन्दाबाद, सिदु कान्हु जिन्दाबाद, जुलूस अब दामुदी के सामने आ गया तो दामुदी सड़क के किनारे एक तरफ हट गई, पेट में तीन माह के बच्चे को लेकर दामुदी जुलूस को देखने लगी .... बहुत से लोगों के हाथ में बैनर था, जिस पर मोटे हरे रंग से लिखा हुआ था - हमारा शोषण बन्द करो, जल-जंगल जमीन पर षडयंत्र करना बन्द करो। दामुदी बिना पलक झपकाये जुलूस को देख रही थी, तभी जुलूस के आगे उसे एक चेहरा दिखा जो खादी का कुर्ता पैजामा टोपी पहने हाथ में बड़ा सा हरा झंडा लिए गर्व से सीना तान कर चल रहा था, उसका चेहरा दामुदी पहचाने में भूल नहीं कर सकती थी, यही काला चेहरा वाला इन्सान उसका दलाल खड़िया हंसदा था .... जो अब हमारे राजनैतिक आंदोलन का नेता बन इन्कलाब के नारे लगा रहा था .... जिसने दामुदी की दलाली खाई थी... और दामुदी आज उसके कारण राँची के सड़क पर तीन माह के गर्भ के साथ खड़ी थी। दामुदी का मन घृणा और क्रोध से कंठ तक भर गया, उसका जी चाह रहा था कि खड़िया हंसदा के मुँह पर उल्टी कर दे, और अपने भीतर के सारे जहर को उस पर उगल दे। इसके साथ उसका मन कर रहा था कि अपने आदिवासी भाई - बहनों को चीख - चीख कर बतायें कि जिस नेता को तुम अपना मानते हो, उसके उपर विष्वास करते हो वो पंच मुंखी शोषण करता है। उसके अदृष्य पांच मुँख हैं, जिससे वह हमारा भक्षण करता है। दामुदी अपनी सोच में डूबी हुई थी तभी जुलूस खड़िया हंसदा के पीछे - पीछे दामुदी को पीछे छोड़कर आगे निकल गया, बेचारी दामुदी घृणा और क्रोध के कारण सड़क पर थूक दी। और कुछ देर तक सड़क पर खड़ी जुुलूस को जाते हुए देखती रही। उसकी आंखों में आंसू तैरने लगे, यह आंसू उसके बेवसी भोलेपन और उन अमानवीय यातना के थे जो दामुदी ने सहे थे। दामुदी अपने साड़ी के आँचल से आंसू पोंछते हुए जुलूस के विपरीत दिषा की तरफ चलने लगी। दामुदी जैसे - जैसे आगे बढ़ रही थी, उसकी आंखों के सामने माॅल, मल्टीपैलक्स, बिग बाजार की बड़ी - बड़ी बिल्डिंगें आने लगी। दामुदी आंखें फाड़ - फाड़ कर सिर घुमा - घुमा कर सड़क के दोनों ओर बारी - बारी से देख रही थी। तभी उसका ध्यान सामने रोते हुए बच्चे पर पड़ा .... जो एक ठेले के पास खड़ा रो रहा था, उसका मालिक मोटा सा आदमी अभी - अभी दो चाटे उसके गाल पर मारा था। उस बच्चे की गलती इतनी ही थी कि उसने आलू टिक्की का चाट की प्लेट जमीन पर गिरा दि थी, जिसे अब सड़क के आवारा कुत्ते खाने पर एक दूसरे पर भौंक रहे थे। दामुदी ने देखा .... वह संवला सलोना लड़का मार खाने के बाद फिर काम पे लग गया था। अब वह ग्राहक की जूठी प्लेटें धो रहा था। दामुदी उस लड़के को देखते हुए ठेले से आगे निकल गई, उसके दिल में उस संावले लड़के के प्रति सहानुभूति उभर आई, बेचारा संवाला बच्चा काली किस्मत लेकर पैदा हुआ है .... या उसकी किस्मत पर व्यवस्था ने कालिख पोत दी है। दामुदी का मन सोचने लगा आखिर ठेले या लाईन होटल में काम करने वाले लड़के सांवले या काले रंग के ही क्यों होते हैं? आखिर हमारी जाति के लोग अपने ही राज्य में इतने लाचार और बेवस होकर क्यों जीते हैं ? बहुत कुछ तेजी से बदल रहा है, विकास कर रहा है और इसके साथ बदल रही है, हमारी जिन्दगी, दिन पर दिन पहले से अधिक काली और भयानक। आखिर मैं भी तो उस काली भयानक जिन्दगी का हिस्सा हूँ, जिसे यह भी नहीं मालूम है कि वह कहाँ जा रही है? सचमुच मैं कहाँ जा रही हूँ ? क्या मैं वहाँ जा रही हूँ जहाँ से एक दिन मुझे दुल्हन के मंडी में बेच दिया गया था, अब मेरा वहाँ कौन है ? बाबा महुआ पी - पी कर मर गए होंगे और माँ अगर जिन्दा भी होगी तो किस हाल में होगी। मुझे इस हाल में देखकर पहचानेगी या नहीं, अगर नहीं पहचानेगी फिर भी मुझे एक बार वहाँ जाना चाहिए। कम से कम उस खड़िया हंसदा से मिलूँगी, जिसने मेरी दलाली खाई थी। नौकरी देने के बहाने मुझे दुल्हन के मंडी में पहुँचा दिया था। यह सोचते - सोचते दामुदी टेकर अड्डे पर पहुँच गई और एक टेकर में बैठ गई। टेकर कुछ देर बाद चल पड़ी। करीब एक घंटे बाद टेकर दामोदर पुल के पास पाकुड़ गांव के पास रूकी, तो दामुदी को एक और झटका लगा, उसे अपनी आंखों पर विष्वास नहीं हुआ, वह आष्चर्य से देखती रही। सड़क के किनारे जहाँ उसका घर था, वहाँ एक आलिषान बिल्डिंग सीना ताने सिर गर्व से ऊँचा किये खड़ा था। दामुदी आष्चर्य से बिल्डिंग को उपर से नीचे देख रही थी। उसे अच्छी तरह से याद था कि मिट्टी और फूस का घर इसी जगह पर था, जहाँ उसका बचपन बीता था, वह जवान हुई थी। ठीक दामोदर पुलिया बगल वाले जमीन पर उसका पुष्तैनी घर था, फिर यह बिल्डिंग यहाँ तो मेरा घर कहाँ गया ? यह सोच कर दामुदी का सिर घूमने लगा, वह धीरे से जमीन पर बैठ गई और बोतल से पानी निकाल कर पानी की छिेटें अपने मुँह पर मारी, तो उसका सिर चक्कर देना कुछ कम हो गया, तभी दामुदी का मन जोर से हँसा और हँसते हुए बोला दामुदी देख आज तू अपने जमीन पर अपने होने की निषानी खोज रही है - अब यह झारखण्ड तुम्हारा नहीं रह गया, तुमसे तुम्हारा झारखण्ड छीन लिया गया, तुम अपनी ही जमीन पर अजनबी हो गई। फिर भी एक बार मैं इस बिल्डिंग के पास जाऊंगी, अपनी जमीन की मिट्टी को नजदीक से देखूँगी, जहाँ बचपन से जवान हुई, यह संकल्प के साथ दामुदी जमीन से उठी और बिल्डिंग के गेट के पास गई ... जहाँ भीतर बड़ी - बड़ी चमचम करती कारें खड़ी थी। गेट पे बूढ़ा चैकीदार खड़ा था, जिसने दामुदी को डांटते हुए बोला - कहाँ जा रही हो, यहाँ भीख मांगना मना है। आवाज सुन कर दामुदी गौर से चैकीदार को देखी और भीतर ही भीतर फक - फक कर रोने लगी ..... रोते - रोते बोली बाबा मैं भिखारिन नहीं हूँ, आपकी बेटी दामुदी हूँ। बूढ़ा चैकीदार यह सुन कर अपनी जगह पहले तो पत्थर की मूर्ति की तरह शांत खड़ा हो गया, एकटक दामुदी को देखने लगा, उसकी बेटी दामुदी दमोदर नदी की तरह सूख कर कंकाल हो गई थी। शरीर में सिर्फ पेट ही फुला हुआ था, बाकी सब सुखे वृक्ष की तरह जीवनहीन हो चुका था। यह देखकर बाबा का शरीर जोर से कांपने लगा, कांपते हुए हाथ बड़ा कर दामुदी को अपने पास आने का इषारा किया ....दामुदी दौड़ कर अपने बाबा के सीने से लग गई। बुढ़ा कांपता शरीर धीरे - धीरे शांत हो गया। तब बाबा ने दामुदी का चेहरा अपने हाथ में लेते हुए भींगे स्वर में कांपते हुए बोले - बेटी मुझे माफ कर देना ..... तुम्हारी माँ मरते वक्त बोली थी, मुझे मौत तब तक नहीं आयेगी, जब तक मैं तुमसे माफी न माँग लूँ। मैंने खड़िया हंसदा से बहुत बार तुम्हारे बारे में पूछा, उसने हर बार टका सा जवाब दे दिया, तेरी बेटी वहाँ से भाग गई है, मुझे उसके बारे में कुछ नहीं पता। पर आज उससे पुछूँगा ..... उसके पाप का एहसास उसे दिलाऊंगा, चल बेटी धर चल, इस बिल्डिंग के पीछे हमारा छोटा सा घर है। बाबा तो हमारी जमीन पर यह बिल्डिंग किसकी है ? खड़िया हंसदा का, हड़िया, महुआ पिला कर मेरी जमीन मात्र पांच हजार रूपये में लिखा ली ..... आज मैं अपनी जमीन पर बनी बिल्डिंग का सिर्फ चैकीदार हूँ ..... कल मर जाऊंगा कोई नया चैकीदार आ जायेगा चल घर चल । दामुदी अपने बाबा के साथ - साथ चलने लगी। आज दामुदी वावस अपने दमोदर नदी के पास आ गई थी, परंतु दामुदी भी दमोदर की नदी की तरह घायल, लहुलुहान, और प्रदूषित हो गई थी।
रविकांत मिश्रा
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