Swargvibha
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पूर्णकालिक नाटक 'बैरागी मन हारा

 

युवा रंगमंच, राँची की प्रस्तुति
पूर्णकालिक नाटक
बैरागी मन हारा
परिकल्पना एवं निर्देशन: बिपिन कुमार
सहयोग - अजय मलकानी मो0 9334607188
आलेख - रविकांत मिश्रा

 

 

{मंच पर अंधेरा, बादल की गरजन, बीच-बीच में बिजली का चमकना जिसकी रोशनी में एक युवा संन्यासी पत्थर की मूर्ति की तरह स्थिर खड़ा है। मंच दायीं तरफ डाऊन राइट में एक सुन्दर युवती खड़ी है है। बिजली चमकने पर दृश्य दिखाई देता है। फिर अन्धेरे में विलीन हो जाता बारिश शोर के बीच एक नारी स्वर दूसरा पुरुष स्वर पाश्र्व से गूंजता है}
पुरुष स्वर- सत्य की माया
या माया का सत्य
सत्य में है माया
या माया में है सत्य
सत्य से माया को
या माया को सत्य से
कौन पृथक करता है।
भोग की बगिया में खड़े होकर
योग की लालसा
एक और भोग की कल्पना मात्र तो नहीं है?
नारी स्वर- यौवन कमल में लिपटी
प्रचंड ऊर्जा वाली नदी
अपने रस धारा में प्यासी
खड़ी है प्रतीक्षारत
कि वह आये वापस
अपनी मोक्ष की कल्पना से मुक्त होकर
और पी जाये उस रसधारा को
जो मेरे भीतर अब बर्फ सी जमने लगी है
पिघला दे मुझे अपने स्पर्श की अग्नि से?
पुरुष स्वर- परन्तु दो देह, दो तन के बीच
योग और भोग
माया और मोक्ष
खड़े हैं अपने तर्कतीर लेकर
एक दूसरे पर ताने
कौन है सत्य
कौन है भ्रम
सत्य की माया या
माया का सत्य {स्वर विलीन}
{बादल गर्जन बिजली का चमकना, बारिश के स्वर सब धीरे-धीरे धीमी होने लगते हैं } ‘‘मंच पर अंधेरा’’
{पट्टाक्षेप}
दृश्य-2
{गिरी महाराज धीरे-धीरे चलते हुए मंच पर आते हैं। सीढ़ियों के ऊपर बरामदे में खड़े हो जाते हैं तभी पाश्र्व से रोने की आवाज दो औरतें रोते हुए रेवती के पास आती है }
औरत-1 (निक्की)- अरे नाजो, तेरा नाज सहनेवाला चला गया। हाय सुन्दर तेरी इस बन्नी के नाज़ अब कौन उठायेगा?
औरत-2 (ताई)- इसे नहलाओ, धुलाओ, सफेद कपड़े पहनाओ। जानेवाला चला गया।
रेवती - गया। मेरा सुन्दर, चला गया? मैं तो उसके लिए दूध लेने गई थी।
औरत-1 (निक्की)-तुझे होश कहाँ था रेवती, सुन्दर के जाते ही पछाड़ खाकर गिरी तो अब जाकर उठी है।
रेवती - (रोती है) चला गया, मुझे छोड़ चला गया। क्या माँगा था मैंने? यही ना कि तू ठीक हो जाय। तू चल दिया। मुझसे बात तक नहीं की, कुछ कहा नहीं। एक बार मुझे मेरे सुन्दर का दर्शन तो करवा देते।
औरत-2 (ताई)- दर्शन करके भी क्या हो जाता? वह तो पहले से ही पता था कि 6 महीने का भी मेहमान नहीं है।
औरत-1 - आए हाय! पहले इसके साज-श्रृंगार उतारो, पत्थर लाओ, चूड़ियाँ तोड़ो। सुहाग की कोई निशानी बदन पर न रहे (दोनों एक-एक कर गहने उतारती हैं)
औरत-2 - सफेद कपड़े पहनाओ।
औरत-1- घाट पर पहना दूँगी। पहले इसे लेकर चल {रेवती को लेकर प्रस्थान}
औरत-2- होष कर रेवती, तेरा मरद गया......
{पाश्र्व से बादल गर्जन, बिजली का चमकना और इसी के साथ नारी स्वर में आलाप}
{गिरी महाराज का शरीर थोड़ा कांपता है। गहरी सांसें लेना और छोड़ना, फिर अपने को नियंत्रण करने का प्रयास, ऊँ नमः शिवाय का जाप मन ही मन करते हैं। बाहर गिरी महाराज के होंठ हिलते हैं। दो पल बाद गिरी महाराज अपने आप से बोलते हैं। }
गिरी महाराज- आह! नारी जीवन कितनी विडम्बनाओं से भरा है। नारी ही नारी को विधवा बनाने पर तुली है।
{तभी रेवती हड़बड़ाकर मंच पर आती है। अपने चारों तरफ देखती है फिर मंदिर और गिरी बाबा की तरफ देखती है। दो पल बाद}
रेवती - झूठे हो... तुम झूठे हो.... झूठे हो तुम, भगवान तुम झूठे हो...... सुनते हो, तुम झुठे हो.... अगर यही तुम्हारा सत्य है तो कान खोलकर सुन लो श्भगवानश् तुम दुनिया के सबसे बड़े झूठ हो {इतना बोल रेवती बच्चों की तरह सुबकने लगती है। तभी बड़बड़ाता हुआ संकटमोचन का बाल्टी हाथ में लिए हुए प्रवेश}
संकटमोचन - फिर नशे का रंग भंग हो गया..... राँड़ हुई औरत, नशा भंग हुआ मेरा, बूटी ने गुदगुदाना आरंभ ही किया था कि रोने-चीखने ने विराम लगा दिया। सांसारिक लोग। समय स्थान का तनिक भी ध्यान नहीं.... अरे महाराज आप यहाँ? {रेवती की तरफ देखता हुआ} ओहो समझा... इस विधवा के विलाप ने आपकी साधना को भंग कर दिया.....
{संकटमोचन इतना बोल गिरी महाराज की तरफ देखता है जो अब भी कुछ बुदबुदा रहे हैं। उनके होंठ हिल रहे हैं। तभी धीरे से गिरी बाबा संकटमोचन की तरफ देखते हैं और हाथ के इशारे से पूछते हैं यह नारी कौन है?}
संकटमोचन - महाराज, यह संसारी भोगी लोग हैं कुछ भी त्यागना नहीं चाहते। सबकुछ भोगना चाहते हैं, दुःख-सुख, मान-अभिमान, यश-अपयश, काम, क्रोध, भय, सौन्दर्य, मैथुन, विरह सबकुछ... इनके जीवन का उद्देश्य है भोग ... भोग ही जीवन है.... भोग में ही भगवान है।
गिरी महाराज - संकटमोचन, मेरा प्रश्न यह है कि यह नारी कौन है?
संकटमोचन - छल, प्रपंच, षड्यंत्र की मारी यह नारी सुन्दर की पत्नी है, महाराज। अभी कुछ माह पहले शादी हुई थी, बेचारा सुन्दर दिल की बीमारी का मरीज था, उसकी मौत तो उसके विवाह से पहले ही निश्चित हो चुकी थी। नाले पार वाले शाह की इकलौती कन्या है ये। अपने ही साले मंगल पंडित ने जुगत भिड़ाई, सब जानते हुए भी दक्षिणा के लोभ में सुन्दर से ब्याह करा दिया। सुन्दर के बाप को हमने पहले ही चेताया था कि मत करो शादी। पर संसारी जीव! वंशवृद्धि का लोभ, नहीं माना। सत्रह बरस की उमर भी कोई उमर होती है महाराज। सत्यानाश हो हरामी का। भरी जवानी में रेवती विधवा हो गई।
गिरी महाराज - वासना जन्म देती है दुःख को, दुख से विवेक का नाश हो जाता है और तब आत्मा को अंधकार में भटकना पड़ता है जन्म जन्म तक....।
रेवती - तुम झूठे हो... झूठे हो तुम {रेवती को दो औरतें ले जा रही हैं, रेवती चीख रही है}
गिरी बाबा - {स्वयं से} आह! दैवी रूप! त्रिपुर सुन्दरी। साक्षात् पार्वती। स्वयं प्रभु भोले भण्डारी भी तो अपनी प्रिया के वियोेग में कहाँ-कहाँ नहीं भटके?
{प्रस्थान}
संकटमोचन - {गिरी बाबा और रेवती को जाते हुए देखकर} माया मिली न राम, दुविधा में पड़ गये सारे काम मैं चला अपने चिलमधाम.... भोग है, भोग है, अपना-अपना भोग है ..... जीवन सिर्फ भोग है {इतना बोलकर संकटमोचन मंच से प्रस्थान करता है, बाल्टी वहीं छोड़ देता है}

 

 

दृश्य-3
{सैकड़ों मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं। जैसे जलतरंग ताल के केन्द्र से निकलकर किनारे तक पहुँचती है। प्रकाश के दायरे में गिरी महाराज का प्रवेश, गम्भीर बेचैन, गहरी साँसें छोड़ते हुए}
गिरीबाबा - शिव- शिव, शिव-शिव प्रभु! क्षमा प्रभु क्षमा... {मंदिर की घंटियों का शोर विलीन हो जाता है, और पानी की बूँद गिरने का शोर टप,टप, टप रात की निस्तब्धता को तोड़ते हैं। और पाष्र्व से रेवती की आवाज गूंजती है}
पाष्र्व स्वर - तुम झूठे हो.... भगवान तुम झूठे हो....... सब कुछ झूठ है। मिथ्या है।
{ गिरी बाबा मंच पर बेचैनी से भटकने लगते हैं रेवती का सफेद साड़ी में प्रवेश}
रेवती - {गिरी महाराज की तरफ चलते हुए}- तुम झूठे हो.... तुम्हारे भगवान झूठे हैं.... सुनते हो, तुम झूठे हो।
{गिरी बाबा रेवती को अपनी तरफ आते देख झट उसकी तरफ पीठ करके खड़े हो गये। फिर धीरे से रेवती की तरफ पलटे, रेवती को अपने पास आते देखा, फिर प्रकाश के बीच आँखें बन्द किये खड़े हो गये और मन ही मन कुछ बुदबुदाने लगे} -
क्षमा प्रभु क्षमा, दुखियारी है... सदमें में है... अनजाने में अपराध हुआ, क्षमा प्रभु क्षमा....
{रेवती गिरी बाबा के पास पहुँच कर }
रेवती - देख संन्यासी, देख, अपनी आँखें खोल। मंदिर में बने संगमरमर की नारी मूर्तियाँ जीवित हो उठी हैं, वे सभी जीना चाहती हैं, वे सभी हक माँग रही हैं, अपने नारी होने का हक... आँखें खोल संन्यासी, नारी का सम्मान कर, नारी का सामना कर ... जीवन में जो परम सौन्दर्य है उससे आँखें मिला...।
{गिरी बाबा ने झट अपनी आँखें खोल दीं, सामने देखा तो रेवती खड़ी थी, पाश्र्व से मंदिर की घंटियों का स्वर तेजी से बढ़ते हुए। प्रकाश सिर्फ गिरी बाबा और रेवती पर, गिरी बाबा झटके से हाथ बढ़ाकर रेवती को छूना चाहते हैं। तभी प्रकाश अंधकार में बदल जाता है}
{रेवती मंच से गायब हो जाती है। प्रकाश के दायरे में गिरी महाराज हाथ बढ़ाकर अकेले खड़े हैं। मंदिर की घंटियों का स्वर समाप्त।
गिरी बाबा - {चीखते हैं} - तुम झूठे हो भगवान, तुम झूठे हो भगवान, झूठे हो तुम भगवान {और हाँफने लगते हैं, इसके साथ ही गिरी बाबा जमीन पर गिर जाते हैं} गौरीनंदन, कैलाशपति, भोले भंडारी क्षमा करो प्रभु क्षमा..........।
{तभी मुकद्दम का प्रवेश। हाथ में लालटेन लेकर दौड़ता हुआ आता है। सामने मंदिर के बरामदे में गिरी बाबा को चित्त गिरा हुआ देख एकदम से चीखता है}
मुकद्दम - दौड़ो-दौड़ा... जल्दी आओ, देखो गिरी बाबा को क्या हो गया?
{ओमकार और संकटमोचन भागते हुए मंच पर आते हैं}
ओमकार - क्या हुआ गिरी बाबा को... {पैर पकड़कर मलने लगता है}
संकटमोचन - अरे गिरी बाबा तो पसीने से नहाये हुए हैं।
मुकद्दम - मैंने गिरी बाबा की पुकार सुनी ..... तुम हो भगवान तुम हो? और फिर जमीन पर गिरने की आवाज...
ओमकार - {रोते हुए } महाराज, हमें छोड़कर मत जाना, सारा गाँव यतीम हो जायेगा। {जोर-जोर से अपना सिर गिरीबाबा के पैर पर पटकने लगता है}
{संकटमोचन पास रखी बाल्टी उठाकर नदी की तरफ भागा और एक बाल्टी पानी लेकर वापस आया। पानी गिरी बाबा के सिर पर डाल दिया। गिरी बाबा हड़बड़ाकर आँखें खोल उठकर जमीन पर बैठ गए, चारों तरफ देखते हुए}
गिरी बाबा - कहाँ है वह? {सभी इस प्रश्न पर एक दूसरे का मुख देखने लगते हैं। }
मुकद्दम - महाराज क्या हुआ? {गिरी बाबा चैंक गये, चैंक कर अपने आसपास देखा और फिर बोले...}
गिरी महाराज -कुछ नहीं। गौरीनंदन क्षमा... क्षमा प्रभु क्षमा..... {इतना बोल चुपचाप अपने स्थान से उठते हैं और धीरे-धीरे चलते हुए मंच से प्रस्थान कर जाते हैं। उनके प्रस्थान करते ही ओमकार खुशी से चीखता है।}
ओमकार - ब्रह्मकाल, भगवान शिव ने गिरी महाराज को साक्षात् दर्शन दिये... भगवान शिव की जय हो... जय गौरीनंदन, कैलाशपति की जय हो।
संकटमोचन - अरे नहीं, नहीं। यह सब मेरी गलती के कारण हुआ। लगता है रात मैंने भांगवाला दूध महाराज को पीने दे दिया था जिसके कारण....
ओमकार - चुप कर नशेड़ी, याद तो तुझे कुछ रहता नहीं। बाबा ने रात दूध पीया ही नहीं। जब मैं गिलास लेने गया तो दूध गिलास से भरा हुआ था जिसे बाबा ने बिना पीये वापस कर दिया।
मुकद्दम - ओमकार तू सच कहता है। हमारे महाराज को शिव दर्शन हुआ है। ऐसे तपस्वी बाल ब्रह्मचारी, चैबीस घंटे तपस्या में लीन रहनेवाले, हमारे महाराज को भगवान शिव दर्शन नहीं देंगे तो किसे देंगे?
ओमकार - अद्भुत मुकद्दम चाचा अद्भुत है। गाँव के भाग्य जग गये। यहाँ की भूमि पवित्र हो गई, उत्सव का आयोजन हो। गाँव-गाँव तक यह शुभ समाचार दिया जाय। भगवान शिव हमारे मंदिर में पधारे, महाराज को दर्शन दिया, महाराज नीलकंठ भगवान के तेज से जमीन पर गिर गये और जब उठे तो पहला प्रश्न किया कहाँ है वह?
मुकद्दम - यानी कहाँ है अपने भोले भण्डारी भगवान शिव, बोलो भोले भंडारी की जय, भोले भंडारी की जय।
{ओमकार जयकार करता है और मंच से दोनों का प्रस्थान, संकटमोचन चुपचाप खड़ा सिर खुजला रहा है}
{पाश्र्व से - जय भोले भंडारी, ऊँ नमः शिवाय, हर हर महादेव, जय अवतारी गिरीबाबा, शंख, घंटा, झाल, करताल और नगाड़े का स्वर} तेज फिर धीमा.......
दृश्य-4
{घोड़े की टाप जो तेजी से नजदीक आते हुए। इसी के साथ रेवती का मंच पर भयभीत हिरणी की तरह प्रवेश। मंच पर इधर-उधर बेचैनी भय से भागती हुई। तभी घोड़े का रुकना और इसी के साथ जोर की हिनहिनाहट। रेवती डरकर एक कोने में दुबक जाती है। पाश्र्व से देवराज अपनी शराबी कड़कती आवाज मंे बोलते हुए मंच पर प्रवेष करता है }
देवराज - बुआ वो बुआ
बुआ - {आते हुए} अरे देव....... आ बेटा आ
देवराज - देख बुआ देख तुम्हारा बेटा देवराज हिरण का शिकार कर लौटा है, कहाँ मर गये तुम्हारे सारे नौकर... कितनी बार कहा है जब मैं आऊँ तो मेरे सामने सिर झुकाकर एक लाइन में खड़े रहें..... और वह नहीं दिख रही है, कहाँ छुपा रखा है तुमने उसे?
बुआ - किसे बेटा, सबकुछ तो तुम्हारे सामने है।
देवराज - कहाँ है रेवती? सुन्दर की बहू... उसे कहो मेरे बूट खोले....
बुआ - चलो बेटा, बैठ जाओ, रेवती तुम्हारी छोटी भाभी है... उसके सामने शराब पीकर छिः-छिः!...
देवराज - छिः...छिः! क्या बुआ, हम ठाकुरों के लिए शराब और खून पानी के समान है..... हम बहा देते हैं या पी जाते हैं। बोलो रेवती को मेरे लिए मांस पकाये और मेरी सेवा में लग जाये।
बुआ - चुप हो जा बेटा, कहीं तुम्हारे फूफा ने सुन लिया तो मेरा बोरिया बिस्तर गोल हो जायेगा।
देवराज - तब ठीक ही होगा, बुआ, तुम चलो मेरी हवेली पर रेवती भी मेरी हवेली पर रहेगी... खूब ऐष करेगी वहाँ। यहाँ तेरा बूढ़ा बड़ा खतरनाक है। यहाँ इस घर में बूढ़ा फूफा उस रेवती को भरी जवानी में बुढ़िया कर देगा। कहाँ है रेवती? क्ष्बाहर जाता हैद्व
बुआ - {इधर-उधर देखकर} भाभी ने भी मुआ एक ही पूत जना, वो भी षराबी। अब क्या करूँ ? कहीं रेवती इसके सामने न पड़ जाए। देवराज के फूफा भी षहर गये हैं, {पुकारकर} ऐ मनसू। मनसू कहाँ मर गया ? {जाती है}
{मंच पर भयभीत रेवती आती है.. यह सुनकर सुबकने लगती है और अपने आप से बोलती है }
रेवती - छत टपकने वाली ही हो... तो भी छत तो होती है। सुन्दर बीमार था, तो भी मेरा मर्द था। उसके जाते ही मैं बिना चैखट का घर बन गई हूँ..... जिसमें देवराज जबर्दस्ती घुसने के लिए पागल हो चुका है। यह घर अब मेरी इज्जत की रखवाली नहीं कर सकता। पर अब मैं कहाँ जाऊँ? कहीं और जा भी नहीं सकती। उस पीपल के पेड़ के साथ साल भर बँध चुकी हूँ, रोज सुबह-शाम उसमें सुन्दर के नाम की नेती देनी है। हे मर्द जात! क्या तुम अपनेसमाज में एक विधवा को जीने नहीं दोगे?
{तभी देवराज का प्रवेश। शिकारी के ड्रेस चेहरे पर शेर का मुखौटा लगाये जोर से चीखते हुए हुंकार भरते हुए मंच पर आता है} रेवती देवराज को देख डरकर चीखती है और भागती है। देवराज उसे पकड़ने के लिए दौड़ता है।
{एक शिकार नृत्य रेवती और देवराज के बीच शुरू हो जाता है। बाघ और हिरण के बीच नृत्य शुरू हो जाता है। पाश्र्व से संगीत शुरू होता है। जिस पर रेवती भयभीत हिरणी की तरह भाग रही है। मुखौटा लगाये देवराज उसे पकड़ने की कोशिश करता है। अन्त में रेवती मंच से भागने में सफल हो जाती है। देवराज अकेला मंच पर खड़ा गुस्से से चीखता है। उसकी चीख के साथ ही मंच पर अंधेरा हो जाता है}
दृश्य-5
{मंच पर सन्नाटा, रात्रि का समय । संकटमोचन सीढ़ी पर बैठकर गांजा पी रहा है। लम्बा दम लगाने के बाद ढेर सारा धुआँ मुँह से हवा में छोड़ता है और मंदिर की तरफ मुँह करके बोलता है}
संकटमोचन - हे भोले भंडारी, मुझ पर कृपा करो, भांग तो इस रसोइया ओमकार से किचकिच मेें उतर गई। अब यह चिलम रात पर चढ़ी रही.......... जय शंकर भोलेनाथ .... {चिलम का कश लगाता है फिर ढेर सारा साथ धुआँ हवा में फेंकता है और बोलता है...}
हे महादेव, आप किसी विधि इस रसोइया ओमकार को समझाइए कि बिना मलाई, बिना रबड़ी के भाँग गांजा चढ़ती है किसी को...... अगर मान ले किसी को चढ़ भी जाती होगी... परन्तु आपके भक्त संकटमोचन को नही चढ़ती। अगर मैं महाराज श्री गिरि बाबा के दूध से मलाई निकालकर खा लेता हूँ.... तो इसमें रसोइया ओमकार को बुरा नहीं मानना चाहिये.... अरे जब महाराज गिरि बाबा स्वयं बुरा नहीं मानते.. तो फिर इस रसोइया को बुरा मानने की क्या जरूरत है। अब देखिए, रुकिये प्रभु, जरा चिलम लगा लूँ फिर बात करता हूँ। जय जय शंकर कैलाशपति।
{चिलम का कश लगाकर फिर ढेर सारा धुआँ हवा मंे। मंदिर की तरफ देखते हुए संकटमोचन कुछ बोलना चाहता है। तभी ओमकार का मंच पर प्रवेश...}
ओमकार - {अपने गमछे से हाथ पोंछता हुआ} संकटमोचन महाराज गिरी बाबा ने दूध पा लिया... {संकटमोचन बुरा सा मुँह बनाते हुए अपने आप से बोलता है।}
संकटमोचन - लगता है चिलम भी उतर जायेगी। {फिर ओमकार की तरफ देखता और जोर से बोलता है} महाराज ने आज दूध नहीं पिया।
ओमकार - तो फिर क्या हुआ?
संकटमोचन - होना क्या था.... दूध तो दूध था उसे इस नदी के जल में प्रवाहित थोड़े ही कर देता.... इसलिए मैं गटागट पी गया।
ओमकार - अरे दूध रबड़ी, मलाई भला तुम कैसे छोड़ सकते हो, एक नम्बर के तर माल चोर हो। मौका हाथ आया नहीं कि तर माल तुम्हारे इस पेट में {संकटमोचन परेशान होते हुए}
संकटमोचन - देखो ओमकार तुमसे किचकिच में ही भांग पहलंे ही उतर चुकी है। अब मेरे चिलम की माँ-बहन मत करो...... जाओ मुझे अकेला छोड़ दो।
ओमकार - ठीक है पर इतना तो बता दो कि महाराज पिछले कई दिनों से दूध क्यों नहीं पी रहे हैं?
संकटमोचन - {चिड़चिड़ाते हुए} अरे, मैं क्या जानूँ, योगी महात्मा तपस्वी के मन की बात, नहीं दूध पी रहे हैं तो नहीं पी रहे हैं....मुझे माफ करो बाबा, और मेरी तपस्या में विघ्न मत डालो.. {चिलम ओमकार को दिखाते हुए बोलता है}
ओमकार - {गुस्से से} हूँ.... तपस्या और वो भी चिलम की तपस्या, महाराज दूध नहीं पी रहे हैं उसकी तुम्हें कोई चिन्ता नहीं है.... पड़ी है अपनी चिलम तपस्या की। {संकटमोचन गुस्से से बोलता है}
संकटमोचन - जय शंकर कैलाशपति, बच्चे की रक्षा कर श्मशानपति {चिलम का दम लगाता है, धुआँ ओमकार की तरफ फेंकता है} ओमकार गुस्से और चिढ़ के कारण वहाँ से भागता है। भागते-भागते बोलता है।
ओमकार - मठ बोझ कहीं का.... मर!
संकटमोचन - अरे ओमकार मर तो सभी रहे हैं.... कोई भगवान के लिए कोई भगवान के भोग के लिए... मैं भोग का तपस्वी हूँ... परन्तु तुम भोग और भगवान के बीच में खड़ा रहता है, त्रिशंकु कहीं का, न खाता है और न खाने देता....... हे भोलेनाथ भंडारी, इसका कुछ करो.. प्रभु........
सारी चिलम उतर गई, फिर से मेहनत करनी होगी। सीढ़ी से उठता है। लड़खड़ाते हुए प्रस्थान कर जाता है।}
दृश्य-6
{ चांदनी रात, पाश्र्व से तेज हवाओं का शोर मंच के एक भाग में रेवती प्रकट होती है। उसकी सांसें तेज चल रही हैं। रेवती अपनी उखड़ी हुई सांसों के साथ बोलती है।}
रेवती (स्वागत) - अब नहीं, तो कभी नहीं
मोह जिन्दगी से जाता नहीं
पर जब जिन्दगी नरक बन जाये?
साँस लेना अपराध
धड़कनों के धक धक से
नफरत होने लगे
तब अंधेरी गुफा में
छलांग लगाना ही एकमात्र
विकल्प शेष रह जाता है।
विधवा कहलाने का दुःख विधवा होने से बड़ा होता है। नहीं।
मैं किसी पर बोझ नहीं बनँूगी।
{मंदिर की तरफ देखते हुए} भगवान संहार क्या अकेले तुम ही कर सकते हो? हूँ...... संहार तो कोई भी कर सकता है.... मुझे रोको, मुझे बचाओ तो जानूँ कि तुम हो........मृत्यु मेरी देह तुझे समर्पित है........ लो मुझे गोद में लो।
{इतना बोल रेवती मंच पर दौड़ लगाती है एक तरफ से दूसरी तरफ, पाश्र्व से नदी के जल में गिरने की आवाज और सबकुछ शान्त}
{मंच पर गिरी बाबा का तेजी से प्रवेश, रुककर नदी की तरफ देखते हैं और फिर उसी दिशा में भागते हैं जिधर रेवती गई रहती है। दो पल बाद नदी के जल में छलांग लगाने की आवाज इसके साथ नदी के जल में तैरने की आवाज, गहरी साँसे लेने की आवाज, फिर गिरी बाबा रेवती को कंधे पर उठाये मंच पर आते हैं। रेवती के केशों से पानी चू रहा है। गिरी बाबा रेवती को धीरे से अपने कंधे से उतारकर जमीन पर चित्त लिटाते हैं }
{गिरी बाबा रेवती का चेहरा देख उठ खड़े होते हैं। रेवती का अस्फुट स्वर निकलता है। अपना चेहरा दूसरी तरफ कर कुछ सोचते हैं। फिर रेवती के पास बैठकर उसके शरीर को पलट देते हैं और अपने हाथ से उसका पीठ दबाने लगते हैं जिससे रेवती का मुख खुल जाता है। पानी उसके मुख से निकलता है। गिरी बाबा रेवती को पलटकर चित्त लिटा देते हैं। उसके चेहरे को हाथ बढ़ाकर स्पर्श करते हैं। }
{पाश्र्व से आलाप नारी स्वर में}
{गिरी बाबा रेवती की तरफ झुकने लगते हैं। उसके शरीर के उभार को देख वह झट अपनी आँखें बन्द कर चेहरा ऊपर की तरफ कर लेते हैं। फिर दो पल बाद अपनी आँखें खोल रेवती को प्रेममय नेत्रों से देखते हैं। और झटके से खड़े हो जाते हैं। रेवती गिरी बाबा के चरणों के पास लेटी है। गिरी बाबा पत्थर की मूर्ति की तरह खड़े हैं। }
{आलाप बाबा के खड़े होने के साथ रुक जाता है} {गिरी बाबा चुपचाप खड़े हैं}
गिरी बाबा - कैसा अद्भुत वो क्षण था
कैसा अद्भुत यह क्षण है
कभी शिव पार्वती की देह को अपने
कंधे पर उठाये इसी तरह गये होंगे,
उस क्षण ऐसा प्रतीत हुआ
यह नारी शरीर मुझ से अलग नहीं
मेरे शरीर का ही विस्तार है
उसके कपाल से बहता यह रक्त
मेरे हृदय पर अपना श्रृंगार कर गया
इस रात्रि में मेरे शरीर मेरे वस्त्र पर
रक्त पिंड की तरह चमक उठे
‘सितारे’ जैसे आकाश के शरीर पर
चमकते हैं तारे
बैरागी मन के आंगन में
आज उतर गई है चाँदनी
मन के सरोवर में
उठने लगी तरंगें,
हवा के पैरों में
बजने लगी है घुँघरू
सन्नाटे गुनगुनाने लगे हैं
गीत मेरे कानों में गाने लगे हैं
जीवन का यह कैसा क्षण?
‘‘सत्य की माया है या माया का सत्य है’’
गिरी बाबा - {नींद से जागते हुए} - नहीं यह भोग है भ्रम है यह भोगी संसारी लोग हैं.... इनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य है भोग... परन्तु... परन्तु.... मैं वैरागी हूँ, संन्यासी हूँ...... विस्मरण हो गया था, सबकुछ। अब स्मरण होने लगा। मैं वैरागी, संन्यासी। सिर्फ मोक्ष की कामना करता हूँ भोग की नहीं..... {बिना रेवती की तरफ देखे बोले}
गिरी बाबा - शीघ्र ही उस नारी को यहाँ से भेज दूँगा....... रात के अंधियारे में सबकुछ मौन रह जायेगा।
{तभी रेवती कराहते हुए उठकर बैठती है। सामने गिरी महाराज को देख चीखना चाहती है तभी गिरी महाराज गम्भीरता से फुसफुसाते हैं।}
गिरी महाराज- नहीं मौन रहो, खामोश रहो, बाहर सब लोग सो रहे है, जग जाएँगे। हम इस मठ के महंत हैं, तुम डूब गई थी......
रेवती:- {आश्चर्य और घबराहट से} मैं मरी नहीं? बचा ली गई? निर्बल, असहाय विधवा के जीवन का क्या अर्थ? नर्क में जाने से अच्छा प्राण त्यागना है..... क्यों बचाया आपने? आप क्यों नहीं सोये थे महंत जी? {रोने लगती है }
गिरी बाबा - {गहरी नजरों से देख, मधुर स्वर में} भगवान की यही इच्छा मानो, मृत्यु तुम्हारे भाग्य में नहीं है। चैरासी लाख योनि में मनुष्य योनि में जन्म लेना अनमोल है। भय के कारणा इसे त्याग देना तो कायरता है.... पलायन है। सद्कर्म करो.... जीवन के प्रति अपने कत्र्तव्य का पालन करो। परमार्थ के लिए कर्म करो फिर देखो जीवन आनंद से पूर्ण होगा... तुम्हें बचा तो लिया, पर अब क्या होगा? तुम अगर स्वस्थ हो गई हो, तो वापस घर चली जाओ। सारा गाँव सो रहा है। किसी को कानोंकान खबर न होगी।
{रेवती घर का नाम सुनकर रोने लगी। रोते-रोते बोली-}
रेवती - क्यों आपने मुझे बचाया। वापस उस नरक में भेजने के लिए?
गिरी बाबा - मुझेे ज्ञात है संकटमोचन को गाँव की सब खबर होती है। मैं देवराज के करतूतों को जानता हूँ। तुम्हारी सास उसे अपना दत्तकपुत्र मानती है। परन्तु तुम निश्चिंत होकर घर जाओ। देवराज अब कभी तुम्हारे सामने नहीं आयेगा।
रेवती - सच महन्त जी, क्या यह सम्भव है? { अपने स्थान पर खड़ी होती है।}
गिरी बाबा - हाँ, यह सम्भव है रेवती। {अभी गिरी बाबा का इतना बोलना हुआ ही था कि रेवती दौड़कर गिरीबाबा के सीने से लिपट गई। गिरी बाबा की समझ में कुछ नहीं आया। उसने रेेवती को अपनी बाँहों में भर लिया}
{पाश्र्व से आलाप}
गिरी बाबा - {झटके से अलग होते हैं। स्वयं से-} रात्रि आधी बीत चुकी है.... कुछ करना होगा नहीं तो भोर के उजाले में ग्रामीण समाज, मठ के लोग क्या कहेंगे? {इधर-उधर देखकर जैसे कुछ याद आया हो } मुकद्दम चाचा {दबे स्वर में आवाज देते हैं } मुकद्दम चाचाऽऽ मुकद्दम चाचाऽऽ {आहट होती है बाबा सतर्क होते हैं और दूसरी दिशा में आवाज देते हैं }
गिरी बाबा - मुकद्दम चाचाऽऽ
मुकद्दम (बाहर से)- कौन है? {अन्दर आकर}
मुकद्दम - महाराज, महाराज ! {गिरी महाराज रेवती की तरफ पीठ किये खड़े हो जाते हैं।}
{मुकद्दम का मंच पर प्रवेश। सामने रेवती को देख बोलता है-}
मुकद्दम - बेटी, इतनी रात गये तुम यहाँ? महाराज....
{रेवती बीच में बोलते हुए}
रेवती - चाचा, देवराज और अपनी सास से तंग आकर मैं प्राण त्यागने नदी में कूद गई थी.... परन्तु महाराज ने मुझे बचा लिया।
मुकद्दम - महाराज, आपने नारी को स्पर्श किया होगा?
गिरी महाराज- {थोड़ा सकपकाते हुए} चाचा क्या बिना स्पर्श किये किसी नारी को नदी में डूबने से बचाया जा सकता है?
मुकद्दम - महाराज, आप इस मठ के सर्वेसर्वा हैं। आपने मानव धर्म का पालन किया है, परन्तु मठ और गाँव के लोग आपकी इस भावना को नहीं समझ पायेंगे। आपको असत्य का सहारा लेना होगा।
रेवती - महन्त जी असत्य का सहारा क्यों लेंगे?
मुकद्दम - बेटी, तुम्हारे सम्मान और अपनी गरिमा के लिए असत्य बोलना ही होगा।
गिरी महाराज- मुकद्दम चाचा ठीक ही कहते हैं। आप बतायें इस सत्य को छुपाने के लिए हमें क्या करना होगा?
मुकद्दम - रेवती को आपने नहीं, मैंने बचाया है... और इसे इसके घर तक मैं छोड़ने जाऊँगा।
रेवती - महन्त जी, उस नरक में वापस मैं नहीं जाना चाहती।
मुकद्दम - बेटी, धैर्य रखो, हमंे सबकुछ पता है। अब तुम्हें वहाँ कोई दिक्कत नहीं होगी।
रेवती - चाचा... भगवान ने मेरी जान बचाई है, अब मुझे भगवान के चरणों में रहने दो....
गिरी बाबा - रेवती फिलहाल तुम्हें अपने घर जाना होगा। बाद में हम तुम्हें बुलवा लेंगे।
मुकद्दम - जी महाराज, रेवती को हम रसोईघर की जिम्मेदारी दे सकते हैं। इसके आ जाने से मेरी बहरी पत्नी का जीवन सुखमय हो जायेगा।
गिरी बाबा - चाचा जायें रेवती को छोड़ आयें।
मुकद्दम - जाता हूँ... परन्तु पहले एक चादर लेकर आता हूँ। {प्रस्थान}
{ गिरी बाबा रेवती की तरफ पीठ किये खड़े रहे। रेवती धीरे-धीरे चलकर गिरी बाबा के पीछे पहुँच गई। गिरी बाबा सांस रोके अपनी जगह पत्थर की मूर्ति की तरह खड़े रहे। रेवती गिरी बाबा के सामने घुटनों के बल बैठ गई और गिरी बाबा के दोनों पैर पकड़कर बोली-}
रेवती - महन्त जी, आपने ही मुझे यह जीवन दिया है, अब अपना यह जीवन आपको अर्पित करती हूँ।
{गिरी बाबा असमंजस में रेवती की तरफ देखते हैं। तभी बाहर आहट होती है। गिरी बाबा अपना पैर रेवती से अलग कर थोड़ी दूर पर खड़े हो जाते हैं। तभी मुकद्दम चाचा का प्रवेश}
मुकद्दम - लो बेटी चादर, अपने ऊपर डाल लो, खून के दाग छुप जायेगंे।
गिरी महाराज- {एकटक रेवती को देखते हुए} जाओ रेवती
{रेवती गिरी महाराज के पास आती है। झुककर उनके चरण स्पर्श करती है, गिरी बाबा का हाथ रेवती के सिर को स्पर्श करता है, दोनों की आँखें चार होती हैं।}
{रेवती एक झटके से उठती है और वहाँ से जाने लगती है। जाते-जाते रेवती एक बार पलटकर गिरी बाबा की तरफ देखती है। गिरी बाबा पत्थर की मूर्ति की तरह अपनी जगह खड़े हैं। रेवती जैसे ही मंच से जाती है, गिरी बाबा उसे पुकारने के लिए अपना हाथ आगे करते है। आधी आवाज उनके मुख से निकलती है, आधी भीतर मुख में रह जाती है}
गिरी बाबा - रे...व...ती... आह! कितना माधुर्य है इस नाम में।
{पटाक्षेप}

 



दृश्य-7
{नन्दी और चन्द्रमा का प्रवेश। घंटी की टन टन और बांसुरी का कर्णपिय स्वर}
चन्द्रमा - {नन्दी से} मित्र यह जगत अति रहस्यमय और विस्मय से भरा हुआ है।
नन्दी - कैसे मित्र?
चन्द्रमा - सत्य की माया या माया का सत्य इन दोनों में सत्य क्या है?
नन्दी - मित्र उलझन है रहस्य है, मेरी बुद्धि से परे है।
चन्द्रमा - मित्र हमारे गिरी महाराज का जो सत्य है उसे वह बोलने का साहस नहीं कर सकते। परन्तु माया का जो सत्य है उसे असत्य कह भी नहीं सकते।
नन्दी - क्यों मित्र, ऐसा क्यों?
चन्द्रमा - क्योंकि माया का सत्य भगवान के सत्य से ऊपर होता है। तभी तो भगवान को माया रूपी बादल छुपा लेते हैं।
नन्दी - यानी सचमुच हमारे महाराज को भगवान शिव ने दर्शन दिये हैं।
चन्द्रमा - और इसी सत्य का अनुसरण आज गाँव का गाँव कर रहा है। नदी की शक्ल में लोग गाँव से निकलते और मठ में आकर समंदर बन जाते हैं। एक आम इन्सान में लोग भगवान के दर्शन कर रहे हैं।
नन्दी - सत्य की माया या माया का सत्य।
{पाश्र्व से - हर हर महादेव, ऊँ नमः शिवाय, जय भोले भंडारी, जय गिरी महाराज अवतारी}
{मंदिरों की घंटी, शंख, नगाड़े झाल, करताल का स्वर}
{मंच पर गिरी बाबा का प्रवेश, धीरे-धीरे चलते हुए नदी के किनारे आते हैं और खड़े हो जाते हैं। नदी का जल किनारे से टकराकर शोर कर रहा है। नन्दी और चन्द्रमा पत्थर की मूर्ति की तरह अंधेरे में खड़े हैं। गिरी बाबा अपने आप से बोलते हैं}
गिरी बाबा - भोलेनाथ ये कैसी परीक्षा है प्रभु? मैं ब्रह्मचारी सत्य की माया या माया का सत्य.... भेद नहीं कर पा रहा हूँ। पाप क्या है... पुण्य क्या है? किसी की प्राणरक्षा करना क्या पाप है? उसे पुनः मृत्यु की ओर ढकेलना क्या पुण्य है? हमारे देवालय.... हमारे धर्मग्रन्थ क्या इतने असहाय हैं प्रभु कि अबला वंचित स्त्रियों, दलितों की रक्षा नहीं कर सकते?.... {गहरा निःस्वास} कमल पर बूँद नहीं ठहरती। तपस्वी के मन में विष नहीं ठहरता। फिर हर क्षण मुझे क्यों दिखाई देता है....
चन्द्रमा - वो चाँदनी रात
वो सुगन्धित बयार
वो नदी तट पर
जल बिन मछली की तरह तड़पता
वो संगमरमरी बदन
नन्दी - जो उतर गई
शास्त्र के पन्नों में
शब्द, श्लोक, विलीन हो जाते हैं
उभर कर बार-बार आता है
वही दृश्य मेरे मानसपटल पर,
वो चाँदनी में डूबी संगमरमरी बदन,
वो नयनों से पुकारती कामिनी कमल
चन्द्रमा - मेरे शास्त्र श्लोक कमंडल, माला,
मंत्र, ध्यान, समाधि सब तिरोहित हो जाते हैं
नन्दी - शेष रह जाता है
तृष्णाआंे का ज्वारभाटा
जिसकी लहरों पर
मेरी चेतना डोलती है, डूबती है,
उभरती है द्वन्द्व के भंवर से युद्ध करती है।
गिरीबाबा - आह! मेरी तपस्या,
मुझे लौटना होगा
शीघ्र ही लौटना होगा।
धार्मिक स्थापनाएँ बची रहें....
गिरी बाबा - पर कैसे?
परमात्मा तो जीवन में प्रवेश से
उपलब्ध होता है,
जीवन से भागने से नहीं....
सबकुछ बिखर जाने के बाद
इस राह पर कदम रखने के बाद
क्या लौटना सम्भव है?
शायद! भागना होगा
तेज, वायु की गति से भी तेज
वो मौन, वो एकान्त, वो श्याम शिलाखण्ड
वो बोधिवृक्ष की छाया
जहाँ कोई शब्द,
जहाँ कोई दृश्य कोई स्मृति न उभरे
पर क्या स्मृतियों का अतिक्रमण कर पाऊँगा?
क्या स्वयं से दूर जाना सम्भव हो पायेगा।
मोक्ष और माया के बीच
मन जीतेगा या मन हारेगा?
{रेवती के चिन्हों को मिटाना चाहता है }
स्मृतियाँ से दूर हो जाओ
मुझ से दूर हो जाओ
मुझे अपने कारावास से मुक्त कर दो
दूर हो जाओ, दूर हो जाओ
असतो मा सद्गमय - हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो प्रजापति .....
{अंधकार}

 

 



दृश्य-8
मुकद्दम चाचा - शिव शिव शिव, महाराज, कल रात रेवती अपने ससुराल से भागकर मठ में आ गई।
{महाराज गम्भीर भाव से मुकद्दम की ओर देखते हैं और फिर प्रश्न करते हैं। }
महाराज - रेवती वापस क्यों आ गई? क्या उसे नहीं पता है कि यह संन्यासियों का मठ है। यहाँ उसका कोई भविष्य नहीं है। उसे वापस भेजने का प्रबन्ध करें।
मुकद्दम चाचा- महाराज, मैंने रेवती को अपनी बेटी मान लिया, भला मैं उसे मठ से जाने के लिए कैसे कह सकता हूँ। फिर महाराज बेचारी विधवा है। ऊपर से देवराज उसकी इज्जत लूटना चाहता है। कल रात देवराज शराब पीकर उसके कमरे में घुस आया था। बेचारी बड़ी मुश्किल से अपनी इज्जत बचा कर मेरी शरण में आई है। अब भला मैं उसे वापस उस नरक मंे कैसे भेज सकता हूँ।
महाराज - (थोड़ी बेचैनी से) - आप मुझे धर्मसंकट में डाल रहे हैं, फिर भी चाचा अगर आपने उसे अपना पुत्री मान लिया है तो फिर मैं आपसे उसे वापस भेजने के लिए कैसे कह सकता हूँ।
मुकद्दम चाचा- यानी महारा

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