शाम गहराने लगी थी। उसके माथे पर थकान स्पष्ट झलकने लगी थी- वह निरन्तर हथौड़ा चला-चलाकर कुंदाली की धार बनाने में व्यस्त था।
तभी निहारी ने हथौडे से कहा कि तू कितना निर्दयी है मेरे सीने में इतनी बार प्रहार करता है कि मेरा सीना तो धक-धक कर रह जाता है, तुझे एक बार भी दया नहीं आती। अरे तू कितना कठोर है, तू क्या जाने पीडा-कष्ट क्या होता है, तेरे ऊपर कोई इस तरह पूरी ताकत से प्रहार करता तो तुझे दर्द का एहसास होता?
अच्छा तू ही बता तू इतनी शाम से चुपचाप जमीन पर पसरी रहती है और रामू काका कितने प्यार से मेरी परवरिश करते हैं और तेरे ऊपर रखकर ही वे किसानों, मजदूरों के लिये खुरपी, कुंदाली में धार बनाते हैं, ठोक-ठोक कर-निहारी (कुप्पे) से हथौडे ने पूछा।
''भला तुमने कभी सोचा है यदि मैं ही नहीं रहूँ तो तुम्हारा भला लुहार काका के घर में क्या काम? पडी रहेगी किसी अनजान-वीराने में, उल्टे कोई राह चलते तुझसे टकराकर गिर ही जायेगा तो बगैर गाली दिये आगे बढेगा नहीं...''
निहारी को अपनी भलू का अहसास हो गया था, उसने तुरन्त अपनी गलती स्वीकारते हुये कहा-हां हथौडे भइया! तुम ठीक ही कह रहे हो श्रम का फल मीठा होता है। भला लुहार काका और हथौडे भइया तुम्हारे बिना मेरा क्या अस्तित्व?
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