मुहल्ले के घीसू काका के दाह-संस्कार में शामिल होकर वो दोनों लौट रहे थे-
''घीसू काका, कितने रहमदिल नेक इंसान थे।''
''कभी किसी का बुरा नहीं किया।''
''जिसके लिये जो मदद बनी, दिल खोलकर की।''
''हाँ तभी तो कहता हूँ क्या लेकर आये हो इस दुनिया में और क्या लेकर जाओगे? सब कुछ यहीं धरा रह जायेगा।''
''ये बात तो तू ठीक कह रहा है। सिर्फ नेकी और अच्छे काम ही साथ जाते हैं, पर कोई समझें तब न!''
दोनों भारी मन से घर को लौट रहे थे... तभी रास्ते में एक लेडीज पर्स पर दोनों की निगाहें एक साथ पड़ी...एक साथ टूट पड े पर्स पर...पल भर में पर्स का पोस्टमार्टम कर डाला... सोने की चैन, दो हीरे की अंगूठियाँ, कुछ रूपये...आदर्शवादी जीवन की सौगंध खा रहे दोनों की नियत बदल गई और आपसी बँटवारे के तहत् पाई-पाई का हिसाब कर घीसू काका की आत्मा को दुहाई देते घर पहुँच पाते कि पुलिस ने पर्स चोरी के इल्जाम में दोनों को धर दबोचा और हवालात में बंद कर दिया।
आदर्शवादिता काफूर हो गयी थी और वे अब घीसू काका की आत्मा को आशीष/शांति देने की बजाय कोसने लगे थे-कि न घीसू काका के अंतिम संस्कार में शामिल होने जाते और न हवालात के दर्शन करने पडते।
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