जीता तो है ज़िन्दगी पर, बन कर रहा क्या आदमी,
ख्वाहिश जीने की लम्बी, क्यूँ करता रहा है आदमी ।
आहें भरता, दर्द पाता, मर मर के जीता है आदमी,
आरज़ू फिर भी सांसों में, साँस भरता रहा है आदमी ।
सगा कभी हबीब कभी, समझता है सब को आदमी,
हर रूह मुख्तलिफ़ यहाँ, कब किसका हुआ है आदमी ।
ओहदा पाया रुतबा पाया, फिर भी खोया है आदमी,
जुस्तजूं फिर नई जिसके लिये, लड़ता रहा है आदमी ।
कभी मुल्क़ कभी मज़हब, नाम से डर रहा है आदमी,
इल्म के इस दौर में भी, क्यूँ बेचैन फिरता है आदमी ।
ऐतबार कर प्यार करता, फिर खार खाता है आदमी,
फिर उसी सियासती को, क्यूँ करता है सजदा आदमी ।
तारीख़ के हर दौरे-वक़्त में, यूँ ही मरता रहा है आदमी,
हमेशा ग़मज़दा हो खौफ में, क्यूँ जीता रहा है आदमी ।
' रवीन्द्र '
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