तपिश -ए- आफ़ताब से, इतना भी ना डरा करो,
इलज़ाम खुद तुम पर है, धरती पर ना धरा करो ।
जलो और उड़ते चलो, देखो कि गगन मुंतज़िर है,
जुगनुओं की माफ़िक, महज़ रात में ना उड़ा करो ।
फिर नया ख़्वाब देखो, ख़्वाब से नज़ारे बदलते हैं,
ज़िक्र है परवाज़-ए-ग़ैर का, तुम ग़ौर ना करा करो ।
अरमान हैं पतंगों जैसे, जले अगन तो निकलते हैं,
कुछ जले शमा-ए-रूह, लाड़ उन का ना करा करो ।
महताब रोशन हुआ है, किसी आफ़ताब के नूर से,
रोशन हो तुमसे जहां, तुम आफ़ताब सा जला करो ।
' रवीन्द्र '
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