वो जो अकेला खड़ा है,
सच उसी के साथ खड़ा है ।
चेहरा उसका दमक रहा है,
तेज़ उससे टपक रहा है,
जन जनार्दन समझ रहा है,
सत्य उसके साथ खड़ा है ।
आस बुझती जिन दिलों की,
टीस बाकी जिन हृदयों की,
ज़ख्म जिसका भी हरा है,
तरफ़ उसकी आज मुड़ा है ।
लोग जुड़ते, आवाज़ बनती,
बुझते दीयों की लौ संभलती,
उम्मीद का इक ख़्वाब बुना है,
सच का नया कारवाँ बना है ।
सफ़र शुरू अब फिर हुआ है,
आम जन जग सा गया है,
परिवर्तन फिर शुरू हुआ है,
नए युग का जन्म हुआ है ।
ओह, न जाने क्या हुआ ये,
सफ़र रंज से भर सा गया है,
'सत्य' किसी से डर सा गया है,
कारवाँ से क्यूँ जुदा हुआ है ।
अज़ब फिर ये किस्सा हुआ है ,
उम्मीद का रंग उतर गया है,
सच फिर भी है साथ उसके,
वो 'बूढ़ा' जो अकेला खड़ा है ।
' रवीन्द्र '
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