Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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'आरजू-ऐ- इन्कलाब'

 
  • 'आरजू-ऐ- इन्कलाब'

    दिल में इक तूफान सा उठता है, आरजू - ऐ - इन्कलाब लिये,
    रुक जाता है देख नन्हें चिरागों को, जिन्होंने अभी जलना नहीं सीखा.

 

जिस राह पे बिखरी हो नफरत , लो उससे बहुत दूर चला,
क़त्ल बेगुनाहों का है ग़र इबादत, तो मैं काफ़िर ही भला.

 

खुश हूँ बहुत छोटी सी दुनिया में , वफ़ा तेरी अगर मेरे साथ है,
मुबारक औरों को रोशनी जन्नत की, मुझे तो अंधेरों की प्यास है ।

 

  • ' यकीन '
    खुदा का नहीं, सवाल है ये तेरे मेरे यकीन का,
    यकीं है जिसमे भी, वो यक़ीनन खुदा ही तो है.

 

  • 'ज़रिया'
    न जाने कौन सा ज़रिया है ये तेरे मेरे दरमियाँ,
    कि मैंने कहा ही नहीं और तू समझ भी गया.

 

  • 'खुदकशी'
    खुदा की जो नहीं तो अपनी ही ख़िदमत कर ले,
    यूँ खुदकशी तो ना कर, खुद की बस कशी कर ले.

 

मंजूर है लड़खड़ाना मगर, कुछ कदम चलने के बाद,
फिसलना लाज़मी है तूरे वफ़ा पे, मगर चढ़ने के बाद.

 

मैं जिन्दा हूँ भी कि नहीं , कर सकते हो जिरह,
मुझे दिखते हैं मगर, कुछ मुर्दे जिन्दों कि तरह.

 

दिल फरोश हैं वो मुहब्बत नहीं करते,
नफरत नहीं तो अलग चीज़ नहीं होती.

 

  • खुदगर्ज़ी '

    कर ले वही जो हो तेरी मर्ज़ी,
    भुगतेगा मग़र खुदा की मर्ज़ी,
    लगा उसके दरबार ये अर्जी,
    खुदा-गर्ज़ बनूँ न करूँ खुदगर्ज़ी.

 

सफ़र जिंदगी का हिस्सों से बना होता है,
हर हिस्से का मगर किस्सा अलग होता है,
जो हो कर शुरू फिर ख़तम कहीं होता है,
सफ़र का ये हिस्सा भी लो ख़तम होता है.

 

कोई कह दे , इन हाकिमों से,
ना पियें लहू आवामे -जिगर का,
नादाँ नहीं पर क्यों नहीं समझते,
है भरा ज़हर इसमें सदियों का.

 

शराब मैं पीता नहीं, जाहिर है कि पिलाता भी नहीं,
फिर ना जाने आखिर क्यूँ , पैमाना भर जाते हैं लोग.

 

  • 'संगदिली'
    अफसाना ये तेरी संगदिली का,ना हम किसी से कहेंगे ,
    क्योंकि लोग तुझे तो रहमदिल और हमें बे-वफ़ा कहेंगे.

 

ज़ख्म जब सीने में कसमसायेगें,
दर्द बन के आसूँ बिखर जायेंगें ।
न पूछो किसने, ज़ख्म दिए इतने,
नक़ाब कई अपनों के उतर जायेंगें ।

 

इस इंतज़ार-ए-ज़वाब ने, कर दी है ज़िन्दगी तबाह,
ख़ता एक ख़त लिखने की, और इतनी बड़ी सज़ा ।

 

 

 

 

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