साँसों में बसे वो कैसे, हर साँस पे इख़्तियार है,
मेरे घर का वो मालिक, मुझ पे भी इख़्तियार है ।
बिखरा है रूप उसका, कायनात के हर जिस्म में,
मेरी ही आँखों को क्यूँ , रहता उसका इंतज़ार है ।
मिला नज़राना उस का, हर किताब-ए-मज़हब में,
दिखा नहीं नफरत में वो, इश्क़ में वो बे-शुमार है ।
आ जाये एक बार नज़र, तो दिल में उसे बसा लूँ ,
दर्द-ए-दिल पाने के लिये, ये दिल हुआ बेकरार है ।
सिर्फ़ मैं ही पा लूँ उसको, ये तो मुमकिन ही नहीं,
वो आशिक़-ए-हरेक शै, हर शै को उससे प्यार है ।
' रवीन्द्र '
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