आये तेरे क़दमों में , शोहरत तेरी सितमगर,
जान जायेगी अब कहाँ, इस जिस्म से बिछड़ कर ।
हस्सास दिल भी है कहीं, पत्थरों के चौबारों में,
दीवार की सुनो कभी, मशरुफ़ तुम निकल कर ।
दौर कभी मुश्किल नहीं, मगर मुसलसल है सफ़र,
लौट कर आते सभी, निकल गये जो बिखर कर ।
अल्फ़ाज़ धुले हों अश्क़ से, ख़याल तुम रखना जवां,
रूह से निकलेगें तब , ये कलाम और निखर कर ।
गुरबत के इस दौर में, नसीब बस एक तेरा यकीं,
फासला करके देख ले, कह सके न वो सुखनवर ।
आसां नहीं होता 'रवि' , खुद खुदी को तोड़ना,
रेत की मानिन्द रहना, ना और फ़िर फ़िकर कर ।
' रवीन्द्र '
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