उम्र ये बढ़ती है, या बची रह जाती है,
उम्र-दराज़ हो कर, ये समझ आती है ।
दौड़ चुके कितना, ख़तम कहाँ होगी,
मंज़िल दूर तलक, नज़र न आती है ।
लटकती कोने से, पड़ी पत्तों पे शबनम,
टपकने को आतुर, कोई राज बताती हैं ।
जीवन है मेहमान, कुदरत के घर में,
मिलन है ये नश्वर, यही समझाती है ।
कोई तो 'शै' है, जो मेरा साथ देगी,
अज़ब अजनबी है, नज़र न आती है ।
' रवीन्द्र '
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