ख़ार के गुलशन से , खुश बू नहीं आती,
सदायें मुहब्बत की, इस तरफ़ नहीं आतीं ।
मालिक नहीं कोई , ना कोई माली ही,
बहार भूल कर भी, इस तरफ़ नहीं आती ।
याद आती है कभी , वक़्त -ए -मुसीबत में,
लौट कर वफ़ा तेरी, इस तरफ़ नहीं आती ।
आज़ाद तो हुए हो, मुल्क की फिक्र कर लो,
गुलामी यूँ ही सदा , इस तरफ़ नहीं आती ।
' रवीन्द्र '
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