Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अक्स

 

सामने खड़ी वो मुस्कराती रही,
कभी हँसाती कभी रुलाती रही,
छुआ मुझको जब भी चाहत हुई,
टुकड़ों में मुझसे वो टकराती रही।

 

नज़र चुराई मैंने, तो घुमाती रही,
जो मिलाई तो, ख़बर जाती रही,
मिली एक बार में, जिस लिबास,
नज़र फिर उस लिबास आती नहीं ।

 

माजी कहे कि, मैं कलाम उसका,
तस्वीरे क़ायनात भरा रंग उसका,
है खौफ़ जदा , हर शख्स उससे ,
हर लम्हा-ए-वक़्त, गुलाम उसका ।

 

बिखरे ख्वाब तो हुई साफ़ नज़र ,
खिला कर खोई खिजां का मंजर ,
हर तरफ वही अब आती नज़र,
उसी का राज है इधर और उधर ।

 

मिले जो तुम मौला ये आई समझ ,
सोच तसव्वुर ही है आईना अजब,
नज़ारा कराता जिसमें लम्हा वक़्त,
अक्स तदबीर का है तक़दीर फ़ख्त ।

 

 

' रवीन्द्र '

 

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