तू तो सही, और न खता मेरी,
रिश्ते में क्यूँ खटास आती है,
महबूब न होना रुसवा मुझसे,
दिल से मेरे अरदास आती है ।
कभी गज़ल तो, नगमा कभी,
लफ़्ज़ों में निकल याद आती है,
महबूब न होना रुसवा मुझसे,
दिल से मेरे अरदास आती है ।
शोहरत तेरी अक़ीदत भी तेरी,
लेकर बशर कायनात आती है,
महबूब न होना रुसवा मुझसे,
दिल से मेरे अरदास आती है ।
है इनायत तेरी औ' रहमत भी,
क्यूँ गुनाहों की बारात आती है,
महबूब न होना रुसवा मुझसे,
दिल से मेरे अरदास आती है ।
बात नज़रों की या नज़ारों की,
सब बातों में तेरी बात आती है,
महबूब न होना रुसवा मुझसे,
दिल से मेरे अरदास आती है ।
' रवीन्द्र '
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