ख्य़ाल था कि जी सकूँगा पुर-सुकूं, बदल सके ग़र ये दुनिया,
वक़्त बदला, तसव्वुर बदला, लगती ख़ूबसूरत वही दुनिया ।
' रवीन्द्र '
Powered by Froala Editor
ख्य़ाल था कि जी सकूँगा पुर-सुकूं, बदल सके ग़र ये दुनिया,
वक़्त बदला, तसव्वुर बदला, लगती ख़ूबसूरत वही दुनिया ।
' रवीन्द्र '
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY