बना कुछ इस तरह , खुद का फ़साना है,
संग आबो-हवा, मिट्टी में कुछ मिलाना है।
बिछड़े थे यार चार, मिलना ओ भुलाना है,
बज़्म की ख़ातिर, दिल हो रहा दीवाना है।
खबर ना मंज़िल की, रस्मों को निभाना है,
सफ़र का मतलब तो, चलते ही जाना है ।
ग़म और ख़ुशी का, रिश्ता यहाँ पुराना है,
तरसती रहीं हसरतें, बस में मेरे ज़माना है।
परस्तिश तो महज़, इबादत का बहाना है,
मिटा के खुद को, हमने खुदा को जाना है ।
' रवीन्द्र '
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