ख़लिश औ' खिजां ख़त्म हुई, सामने मौसम-ए-बहार है,
खास है ख़म-ए-इंसानियत, समझो तो बहार-ए-आम है ।
' रवीन्द्र '
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ख़लिश औ' खिजां ख़त्म हुई, सामने मौसम-ए-बहार है,
खास है ख़म-ए-इंसानियत, समझो तो बहार-ए-आम है ।
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