अल्फाज़ों का मतलब भी, बस वही तो समझती है,
बंदगी है वो शायरी, जो लबे - रूह से निकलती है ।
क्यों करूँ गिला जो ये, दुनिया मुझपे यूँ हंसती है,
मजहब तो है रूह का, दिल में सभी के बसती है ।
इतना भी हमें इल्म नहीं, ना दे दर्द तो दिल नहीं,
गर्द होती है सफ़ा, रूह जो कभी दामन फटकती है ।
बन्दे को करती आगाह और दिलों को साफ़ रखती है,
बंदगी खुदा की वो नेमत, जो रूह को पाक करती है ।
बड़ी उम्मीद से थामा है, दामन इस बंदगी का 'रवि',
सुना है राह रूहे-पाक की, इस गली से निकलती है ।
' रवीन्द्र '
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