कितनी गाँठे थी तन की, गिरहें अवचेतन मन की,
खुली आज औ' लगा यूँ, मेहरबां कोई मिल गया ।
जिस्म को तो किया छलनी, और अन्तर को खाली,
अधरों पे धरा जिसने, बस उसी की धुन बजा ली ।
मेरे खालीपन को छुपाना, था सही मकसद उसका,
दर होठों से और झरोखें, उँगलियों से दबाये उसने ।
रहे अंतस के सूनेपन में, कितने ही मधुर राग भरे,
छुआ तूने जो बदन को, भरभरा के वो सब उमड़े ।
असर नर्म स्पर्श का तेरे, या कृतज्ञता का भाव मेरा,
स्पन्दित हुआ तनो - मन, कि साँस मेरी चलने लगी ।
तेरे आने से हुई जग में, मेरे भी होने की खबर,
फूँक तेरी रूह बनके, इस जिस्म से जब गुजरी ।
त्रिभंग मुद्रा चित्त अनंत, धयान भी उसने धरा,
कमल पत्र से करों पर, भार तन मन मैंने धरा ।
मैं प्रिया, वो प्रियतम मेरा, हाथों में मुझे उठा ले,
सरगम सांसों को देकर, वो अपनी धुन में गा ले ।
'रवीन्द्र '
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY