तीरगी से निकली, दिले- बेकसी में घर हो गयी,
ज़िक्र हुआ कूचों में, बे-ख़ता तेरी नज़र हो गयी ।
महफ़िलें ग़ुरबत की, सब शरीके- शब हो गयीं,
अंजुमने- दीद में फिर, किसी की बशर हो गयी ।
बात इत्तेफ़ाक की , मजबूरी मगर अब हो गयी,
उतरती नहीं सरसे, मुहब्बत क्या अजब हो गयी ।
खफ़ा हो न जाये, फ़िक्र ये ज़रुरी अब हो गयी,
मेहरबानियाँ इश्क़ की, डगर मुक़द्दस हो गयी ।
खुदा खैर करे, पता नहीं क्या क़यामत हो गयी,
छुपाना कुफ्र था, बयाँ जो ये हक़ीक़त हो गयी ।
' रवीन्द्र '
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