बर्क़ की बस्ती कहीं , बिन तेरे शहर में,
जल रहा ज़िगर यहीं, बिन तेरे शहर में ।
मौज़ सी उठती रही, हर कूचे या गली,
लगता अब दिल नहीं, बिन तेरे शहर में ।
रास्ते खुदगर्ज़ हैं, हर एक फ़िरदौस के,
डराती हर ड़गर नई , बिन तेरे शहर में ।
नादां हैं ख़्वाहिशें, न इश्क़ का है निशां,
आग है बुझती नहीं, बिन तेरे शहर में ।
और ना अरमां मेरे, एक हसरत है यही,
रु-ब-रु हो रूह कहीं, बिन तेरे शहर में ।
ख़ामोशी है बंदगी, इनायत ये शोर की,
वीरानी नज़राना सही, बिन तेरे शहर में ।
ख़्याल पुसोज़ नहीं, ग़ज़ल ये बनी नहीं,
तसव्वुर तक उठा नहीं, बिन तेरे शहर में ।
' रवीन्द्र '
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