Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बोझ

 

 

 

एक हलके से झटके के साथ ट्रेन रुक गयी । यह एक छोटा सा कस्बाई स्टेशन था जहाँ मुझे सरकारी काम के सिलसिले में आना पड़ा था । नई और अंजान जगह थी, अतः सावधान रहने की नसीहत थी । साथ में अधिक सामान न था । कुछ संस्कारों का प्रभाव था तो कुछ पुराने अनुभवों का, जिसमें कुली को दी जाने वाली रकम को ले कर अक्सर होने वाली बहस मुख्य थी, जिसके कारण मैं कुली की सेवाएँ लेना नापसंद करता था । फिर इतने कम सामान के लिए तो कुली करना एकदम गैर ज़रूरी था ।

 

ट्रेन से नीचे कदम रखते ही अचानक एक बूढ़ा व्यक्ति मेरे सामने था । सफ़ेद पुराना कुर्ता , पायजामा और अँगोछा जिसे उसने गोलाकार बना कर सिर पर रखा हुआ था । लम्बी सी दाढ़ी, जिसके सारे बाल सफ़ेद थे, उसके मुसलमान होने की तसदीक कर रही थी । मेरे वक़ार में इज़ाफा करते हुऐ उसने बड़े अदब से कहा, हुजूर लाइये, सामान मैं ले लेता हूँ । उन दिनों उस तरह के छोटे कस्बों में रेलवे प्लेटफार्म से रिक्शा तक छोड़ने के लिये, कुली लोग अमूमन बीस रुपया लेते थे । उसे टालने की गर्ज़ से, मैंने निहायत रूखे लहज़े से कहा, ' दस रूपये मिलेंगे और बाहर रिक्शे में सामान रखवाना पड़ेगा ' । बगैर कुछ कहे, उसने सूटकेस मेरे हाथ से लिया और सिर पर चढ़ा लिया, बैग हाथ से ले कर कन्धे पर लटकाया और तेजी से आगे चलने लगा ।


गाड़ी प्लेटफार्म नंबर - 3 पर थी और मुख्य द्वार प्लेटफार्म नंबर - 1 की तरफ था । पैदल ऊपरी पुल पर चढ़ते हुये मैं विचार-मग्न था, अकारण ही ये आफ़त गले पड़ गयी । अब बाहर जाते ही इस से झिक-झिक करनी पड़ेगी । कौन सा मुश्किल काम था जो खुद नहीं कर सकता था । शायद, उसकी सफ़ेद दाढ़ी और बूढ़ी आँखों में कुछ जादू था, जो मैं सम्मोहित हो गया था । मेरी नज़र लगातार उसका पीछा कर रही थी । सच कहूँ तो उसका नहीं, उसके सिर पर रक्खे अपने सूटकेस का । सुने -सुनाये अनुभवों के आधार पर मुझे लगता था कि नयी जगहों पर, कुली जैसे दिखने वाले लोग, अक्सर अन्जान यात्रियों का सामान ले कर चम्पत हो जाते हैं । जिस तरह से उसने, बिना जिरह किये मेरा सामान सर पर उठाया था, यह सम्भावना काफ़ी प्रबल थी ।


प्लेटफार्म नंबर - 1 पर उतर कर, मुख्य द्वार की ओर न जा कर अचानक, वह तेजी से बायीं तरफ़ मुड़ गया । जो बात मेरे ख्यालों में पल रही थी, अब साकार रूप ले रही थी । मैं चीख कर उसे रुकने के लिए कहने ही वाला था कि, मेरी नज़र पार्सल कार्यालय के बोर्ड पर पड़ी । दर असल, यह एक शॉर्टकट था । पाबन्दी के बा-वजूद कुली लोग, पार्सल कार्यालय में सामान की आवाजाही के लिए खुले रास्ते को आम रास्ता समझना, अपना हक़ समझते हैं ।


कुछ ही देर में वह एक रिक्शे के सामने था । मेरा सामान रिक्शा में रख कर उसने त-अज्जुज के साथ पूछा, ' बाबूजी, कहाँ जाना है ' । मगर मैंने रिक्शे वाले से सीधी बात करना ही ठीक समझा । रिक्शे का किराया तय करके, जेब से दस रूपये का नोट निकाला । बूढ़ा कुली शान्त भाव से खड़ा अपने हवास दुरुस्त कर रहा था । झक-झक की संभावना को टालने के इरादे से, अपने चेहरे पर कठोर भाव लाकर मैंने कहा , ' यह लो , तुम्हारी मजदूरी ' ।


नोट मेरे हाथ से ले कर बड़े अदब के साथ उसने माथे से लगाया और एक गहरी साँस ले कर बोला, ' खुदा आपका और आपके बच्चों का भला करे ' ।


वो, जा चुका था लेकिन मैं अवाक् था । उसने मेरा सामान सिर पर उठाया था और अब मैं उसकी दुआ के बोझ को दिल पर महसूस कर रहा था ।

 

 

' रवीन्द्र '

 

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