जागी जो हसरतें, नूरे- हक़ीक़त में,
खोई थी ख़्वाबों में, वो बहार गयी ।
ख़त्म जद्दो-जहद, दिलो- ज़हन की,
जीता फिर ज़ेहन, दिल की हार हुई ।
रोज़ फिर रहा, परेशां तेरे दुनिया में,
मोहलत मिली लम्हों की, बेकार हुई ।
ख़्वाहिश, जहाँ -ओ- जुनूँ , दोनों की,
परस्तिश अहले-करम, तेरी बेदार हुई।
भुला सकें हम, नाशाद हर अफ़साना,
फ़रियाद, फिर वही , तेरे दरबार गई ।
' रवीन्द्र '
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