ग़ैर है गुनहगार, जो इस दिल में रहता है,
क्या है इसका गुनाह, जो ये दर्द सहता है ।
यादों पर इस का, क्या कोई इख़्तियार है,
ये कारवां तो यूँ ही, बस बहता ही रहता है ।
ख़्वाहिशें, आरज़ू और हसरतें सब रहती है,
और मिन्नत के सिवाय, कुछ ना करता है ।
बेरोज़गारी गुनाह है, इबादत का इल्म नहीं,
ज़ुस्तज़ू में किसी की, ये फ़रियाद करता है ।
दिल की गुज़ारिश है, अब तो तन्हाई मिले,
ग़ैर की जरुरत क्या, खुद से गिला करता है ।
' रवीन्द्र '
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