Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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गिरह

 

फिर एक बार,
मिली नई धूप,
वही सम्मोहन,
औ' वही रुप ।

 

 

चाहत है मुक्ति,
पर भटकती खूब,
गुज़रती बशर,
हैं कितने लूप ।

 

 

एक से दूसरा,
तिमिर का सिरा,
गांठ बंधे औ',
जीवन कुरुप ।

 

 

किसकी चाहत,
और कितनी धूप,
रिश्ते औ' नाते,
इनमें ना डूब ।

 

 

प्रत्येक सिरा,
बहि प्रयास किया,
विमुख है दिशा,
खुले ना गिरहा ।

 

 

हो अन्तर्वलोकन,
औ' समर्पण तद्रूप,
तब खुले मनस की,
'रवि' गिरह अनूप ।

 

 

 

' रवीन्द्र '

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