फिर एक बार,
मिली नई धूप,
वही सम्मोहन,
औ' वही रुप ।
चाहत है मुक्ति,
पर भटकती खूब,
गुज़रती बशर,
हैं कितने लूप ।
एक से दूसरा,
तिमिर का सिरा,
गांठ बंधे औ',
जीवन कुरुप ।
किसकी चाहत,
और कितनी धूप,
रिश्ते औ' नाते,
इनमें ना डूब ।
प्रत्येक सिरा,
बहि प्रयास किया,
विमुख है दिशा,
खुले ना गिरहा ।
हो अन्तर्वलोकन,
औ' समर्पण तद्रूप,
तब खुले मनस की,
'रवि' गिरह अनूप ।
' रवीन्द्र '
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