कहने को मालिक सबका, कहलाता माखनचोर था,
दिल चुराना फ़ितरत उसकी, सही में चित्तचोर था ।
रहा तो वही सबके भीतर, दिखता मगर और था,
सभी का राजदुलारा और प्रेमियों का सिरमौर था ।
दोस्तों से पूरी वफ़ा और दुश्मनों पर भी न खफ़ा,
हुआ सारथी जिस का, चर्चा उसी का चहुँ ओर था ।
वो प्रेम करने का नहीं, प्यार निभाने का दौर था,
क्या करें उसका भी, अंदाज़ समझाने का और था ।
जो गर्दिशों का हो आलम, वो आता है याद करने से,
है जश्न उसको आज, बुलाने का मौका कुछ और था ।
' रवीन्द्र '
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