हम गिर चुकी मजहब की दीवारों को उठाते रहे,
दीवार जो छुपाती थी,खोखला रसूख वो ढ़ह गयी ।
माया को जो किया, सूबे की सियासत से रुखसत,
बहुरूपिणी मुल्क की माया, रुपी बनकर बह गयी ।
जम्हूरियत तेरी जय हो, सियासत साथ रही तेरे,
तरक्की ठिठक गयी, खुश हाली ख्वाब रह गयी ।
दुर्गा शक्ति बेबस रही, शक्ति मिल भी चुप रही,
मुल्क की अस्मत जहाँ, सिसक सिसक कर सो गयी ।
कितना करे कोई मातम, हर रोज़ का किस्सा हुआ,
आवाज़ अन्ना औ' कोर्ट, तूती नक्कारखाना हो गयी ।
' रवीन्द्र '
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